अबिगत[1] गति[2] कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत[3] ही भावै॥[4]
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित[5] तोष[6] उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर[7] सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन[8] जाति जुगति बिनु निरालंब[9] मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन[10] लीला पद गावै॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अव्यक्त, अज्ञेय जो जाना न जा सके
- ↑ बात
- ↑ हृदय, अन्तरात्मा
- ↑ रुचिकर प्रतीत होता है
- ↑ अपार
- ↑ सन्तोष, आनन्द
- ↑ इन्द्रियजन्य ज्ञान से परे
- ↑ गुण, सत्व, रज और तमो गुण से आशय है
- ↑ बिना अवलंब या सहारे के
- ↑ सगुण, दिव्यगुण संयुक्त साकार ब्रह्म श्रीकृष्ण
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