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हवा में घुल गया शीत
बेशरम ऐय्यार
छीन रहा वादियों की हरी चुनरी !
लजाती ढलानें
हो रही संतरी
फिर पीली
और भूरी !
मटमैला धूसर आकाश
नदी पारदर्शी
संकरी !
काँप कर सिहर उठी सहसा
कुछ बदरंग पत्तियाँ
छूट उड़ी शाख से
सकुचाती
मेरी खिड़की की काँच से
चिपक रह गई एकाध !
दरवाज़े की झिर्रियों से सेंध मारता
आखिरी अक्तूबर का
वह बदमज़ा अहसास
ज़बरन लिपट गया मुझ से !
लेटी रहेगी
एक कुनकुनी उम्मीद
मेरे बगल में
एक ठण्डी मुर्दा लिहाफ के नीचे
कि फूट जाएगीं कोंपलें
लौट आएगी
अगले मौसम तक
भोजवन में ज़िन्दगी .
नैनगार 18.10.2005
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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