सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य -राजेश्वर गंगवार

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लेखक- राजेश्वर गंगवार

          गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के एक गीत का भाव है - यहां आर्य भी आए, अनार्य भी आए, द्रविड़ , चीन, शक, हूण, पठान, मुग़ल सभी यहां आए लेकिन कोई भी अलग नहीं रहा, सब इस महासागर मे विलीन होकर एक हो गये।
          सचमुच भारत एक महासागर है, भारतीय संस्कृति महासागर है, विश्व की तमाम संस्कृतियां आकर इसमें समाहित हो गई हैं। आज जिसेे आर्य संस्कृति, हिन्दू संस्कृति आदि नामों से जाना जाता है, वह वस्तुतः भारतीय संस्कृति है जिसकी अजग्र धारा सिंधु घाटी की सभ्यता, प्राग्वैदिक और वैदिक संस्कृति से झरती हुई नवोन्मेषकाल तक बहती रही है। अनेका अनेक धर्मों, सभ्यताओं और संस्कृतियों को अपने में समाहित किये हुए इस भारतीय संस्कृति को सामासिक संस्कृति ही कहना उचित है। संस्कृति की सामासिकता का तात्पर्य यह है कि इसमें ऐसे अनेक मतों को प्रश्रय मिला है, जो परस्पर ‘नकुल-सर्प संबंध’ के लिए प्रसिद्ध रहे हैं।
          वर्तमान पौराणिक हिन्दू धर्म क्या है ? क्या वह मात्र वैदिक धर्म है? इस पौराणिक हिन्दू धर्म का एक नाम निगमागम धर्म भी है इसका अभिप्राय है कि हिन्दू धर्म का आधार केवल निगम नहीं ‘आगम’ भी है। अर्थात वह निगम आगम धर्मों का समन्वित रूप है। आगम प्राग्वैदिक काल से चली आ रही वैदिकेतर परंपरा का वाचक है। आर्योें के आने से पहले यहां द्रविड़, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, नाग किरात, किन्नर आदि आर्येतर जातियां थीं। इन जातियों से आर्यों के रक्त संबंध बने, जिससे दानों ने एक दूसरे के विचारों को अपनाया और आज हम अपनी संस्कृति का जो रूप देख रहे हैं, वह इन सभी का समन्वित रूप है, समन्वय की प्रक्रिया हजारों वर्ष से चली आ रही है। आर्यों के बाद जो लोग (यूनानी, पठान, शक, हूण, मुग़ल, चीनी आदि) आए उनमें से जो यहां रह गए, वो यहां के हो गए और यहां की संस्कृति के विकास और विस्तार में उनका भी योगदान है।
          यदि भारतीय संस्कृति पर एक दृष्टि डालें तो चार बातें बहुत ही स्पष्ट हैं। प्रथम, भारतीय संस्कृति प्रगतिशील रही है। द्वितीय, वह असंप्रदायिक है, उसकी अंतरधारा में चिरंतन से सहिष्णुता की भावना का प्रवाह बहता रहा है। अनेक बार सांप्रदायिक वैमनस्य उभरे, उग्र हुए फिर भी उन संप्रदायों ने इस सहिष्णुता की भावना को तिलांजलि कभी नहीं दी। सभी संप्रदाय अंतोगत्वा गंगा की सहायक नदियां ही सिद्ध हुए। तृतीय, भारतीय संस्कृति की भारत के से समस्त इतिहास के प्रति ममत्व की भावना है और चौथी बात है भारतीय संस्कृति की अखिल भारतीय भावना, सहस्त्रों मील की दूरी पर अवस्थित बदरीनारायण, गंगोत्री, काशी, रामेश्वरम, पुरी, द्वारका जैसे तीर्थ स्थानों की भक्ति और प्रेम से यात्रा करना भारत का हर व्यक्ति (वह चाहे जिस प्रांत का निवासी हो) अपना पुनीत कर्तव्य मानता है। स्वभावतः सांस्कृतिक दृष्टि से वे समस्त भारत को अपना देश समझते हैं। आचार्य शंकर ने भारत के चार कोनों पर चार पीठों की जो स्थापना की, उसके पीछे भी यही भावना थी। इसी भावना के वशीभूत होकर अयोध्या के राम (गोस्वामी तुलसीदास के राम जो विष्णु के अवतार हैं) रामेश्वरम् में शिव की उपासना करते हैं, ‘निराला’ के राम रामेश्वरम में शक्ति की उपासना करते हैं। शक्ति की पूजा का अनुष्ठान कहीं अधूरा न रह जाए, इसके लिए वे अपने नयन कमल देवी को चढ़ाने के लिए तत्पर हो उठते हैं कहां है इसमें शैवों, वैष्णवों और शाक्तों का पारस्परिक वैमनस्य, तुलसीदास के राम तो स्पष्ट कहते है -
शिवद्रोही मम दास कहावा,
सो नर नहिं सपनेहुं मोहिं पावा।
शिव द्रोहियों को जैसे शाप दिया जा रहा है-
हर-गुरु निंदक दादुर होई,
कोटि जन्म फल पाबहि सोई।
          शैव और वैष्णव मतों के समन्वय का यह एक उदाहरण है। ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं। सच तो यह है कि आज हिन्दू धर्म में शिव का जो स्वरूपर है, वह आर्येतर जातियों की देन है। स्वभाव से भावुक आर्य प्राकृतिक शक्तियों के उपासक थे। प्रकृति के कोमल रूप उषा की वंदना करते थे, तो साथ ही प्रकृति के भयानक स्वरूप में रुद्र की पूजा भी करते थे। इंद्र, अग्नि, वरुण आदि सभी प्राकृतिक शक्तियां हैं। जिन पर प्राणियों का जीवन निर्भर है इन शक्यिों की देव रूप में पूजा का यही आधार है प्रकृति देवता रुद्र नीलकंठ शिव कब और कैसे हो गए, इसकी खोज कठिन नहीं है। विद्वानों के अनुसार यह शिव द्रविड़ द्रविड़ संस्कृति की देन है शिव का गजानिन रूप स्पष्टतः उन आर्यों का दिया हुआ नहीं हो सकता, मध्य एशिया से आए, क्योंकि मध्य एशिया में हाथी पाया ही नहीं जाता, अतः उनके उपास्य देव का वस्त्र चर्म नहीं हो सकता। इसके अलावा शिव रावण, वाणासुर आदि असुर राजाओं के पूज्य थे। शिव की उन पर अपार कृपा थी (शायद इसलिए राम ने पहले शिव की पूजा करके उनका मन जीत लिया, ताकि वे तटस्थ हो जायें) लिंग पूजा तो निश्चित रूप से आर्य अनुष्ठान नहीं था लेकिन जब आर्यों और द्रविड़ों में परस्पर विवाह संबंध हुए, द्रविड़ कन्याएं आर्य परिवारों में आयी तो उनके साथ शिव भी उन परिवारों में पहुंच गये। इस तरह शिव पूजा आर्य और द्रविड़ों के घनिष्ठ संपर्क का परिणाम है। यही बात कार्तिकेय और गणेश के साथ भी लागू होती है।
          शिव की तरह विष्णु भी शत प्रतिशत आर्य देवता नहीं हैं। गौर वर्ण के आर्यों ने श्याम वर्ण के विष्णु की कल्पना कैसे की, यह विचारणीय है। विष्णु का रंग आकाश की तरह नीला है। तमिल में आकाश को ‘बिनु’ भी कहते हैं। डाॅ० रामधारी सिंह दिनकर ने यह संभावना व्यक्त की है कि शायद ‘विष्णु’ शब्द का ‘बिनु’ से कुछ नाता है।[1]
          इसी तरह कृष्ण का नाम तो बहुत प्राचीन है, किंतु प्रेमी और रसिक कृष्ण (जो हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य का जीवन प्राण है) आर्यों के पूज्य नहीं थे। राधा तो निश्चय ही आर्य देवी नहीं थी। वैष्णवों के तीन प्राचीन ग्रंथों - हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण और भागवत में राधा का नाम तक नहीं है। कुछ विद्वानों का मत है कि राधा नाम आर्यों और द्रविड़ों के समागम से बहुत बाद में आया, लेकिन बाद में आने पर भी राधा भक्ति साहित्य की आधार बनी है।
          जब समाज में प्रतिष्ठत देवी देवता ही विभिन्न धर्मों की देन हों, तो उस समाज के रीति रिवाजों का परस्पर प्रभावित होना स्वाभाविक हैं। हमारे समाज के न जाने कितने रीति रिवाज कितने अनुष्ठान हैं, जिनके वेदों मे उल्लेख तक नहीं हैं। जो देवता दूसरी जातियों से आए उनको हिन्दुत्व ने न केवल स्वीकार कर लिया बल्कि कालक्रम में यह भी सिद्ध कर दिया कि ये देवी देवता हिन्दुओं के ही हैं। समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व में कहां मिलेगा।
          सांस्कृतिक समन्वय का यह रूप भारत की सभी भाषाओं के साहित्य में परिलक्षित होता है वस्तुतः हिन्दी साहित्य को सांस्कृतिक समन्वय का भाव विरासत में मिला है। हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक युग में देश में बौद्ध, जैन, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि नाना मत मतांतर प्रचलित थे। वेदों और उपनिषदों पर आधारित ब्राह्मण धर्म श्रमण कार्य का विरोधी था। ब्राह्मणों और श्रमणों में नकुल सर्प संबंध माना जाता था, लेकिन शनैः शनै इन दोनों धर्मोें ने एक दूसारे के प्रति सहिष्णुता का रुख अपनाना शुरू कर दिया। ब्राह्मण धर्म ने बौद्धों और जैनियों की अहिंसा, तप त्याग की भावना को मान्यता दी, तो ईश्वर विरोधी बौद्ध कालांतर में बुद्ध को ही भगवान मानने लगे। महायानी भगवान बुद्ध की मूर्ति की पूजा अर्चना वैसे करने लगे जैसे मंदिरों में शिव की पूजा होती है।
          हिन्दी के आदि स्वरूप अपभ्रंश में यह समन्वयात्मक दृष्टि देखी जा सकती है। अपभ्रंश गद्य का वर्ण्यविषय मुख्यतः जैन धर्म है। इसी काल में कश्मीर में शैव मत फल फूल रहा था। इस मत ने आगे चलकर अनेक रूप धारण किये। इस मत में शिव और शक्ति का बंधन अटूट माना जाता था। तांत्रिक मत के कारण इसमें पंच मकारों (मांस, मत्स्य, मद्य, मुद्रा, और मैथुन), पशुबलि, गुरु, भैरवी चक्रों (जिनमें चक्र भेद के अनुसार विभिन्न वर्षाें की स्त्रियां सम्मिलित थीं) की सृष्टि, भोग द्वारा कुंडलिनी जाग्रत करना आदि बातों को महत्व दिया जाता था। प्रारंभ में ब्राह्मण धर्म में ये बातें नहीं थी, लेकिन बाद में पशुबलि, गुरु, भैरवी चक्र आदि बातें उसमें शामिल हो गईं और जैन, बौद्ध, शैव धर्म से सम्बंधित वैष्णव धर्म भी सार्वदेशिक धर्म बन गया। यह समन्वित रूप अपभ्रंश गद्य और पद्य दोनों में रचे गये ग्रंथों में देखा जा सकता है:

जिमि लोण विलिज्जइ पाणिएहि तिमि धरिणी लइचित समरस जाइ तक्खणे, जई पुणु तो समणित।- कण्हपा

(जिस तरह पानी में नमक घुल जाता है, उसी तरह धरिणी के प्रेम में लीन हो जाने से तत्काल समरस की अवस्था उत्पन्न होती है, यदि वह स्थिर हो।)

          शैव और वैष्णव धर्म दोनों प्रकार की उपासना में विश्वास करते थे। आर्यों के लिये प्राकृतिक शक्तियां रुद्र, ऊषा, इंद्र आदि साकार रूप में थे। लेकिन आने चलकर निर्गुण भक्ति का जो स्वरूप विकसित हो गया, उसके पीछे संभवतः यही भावना थी कि अनेक देवों और भगवानों के कारण पारस्परिक कलह बढ़ता जा रहा था। अतः ईश्वर के उस रूप को मान्यता दी गई जो सभी ईश्वरों में सर्वत्र व्याप्त है। वह ईश्वर साकार रूप में सर्वत्र व्याप्त नहीं हो सकता, निराकार होने पर ही यह संभव है। निर्गुण उपसना से साध्य और साधक भिन्न नहीं रहे। साधक अंतर के में ही साध्य है, उसी की खोज पर बल दिया गया है। गोरखनाथ के शब्दों में -
तुंबी में तिरलोक समाया, त्रिवणी रिब चंदा।
बूझौ रे ब्रम्भ गियानी, अनहद भेद अभंगा।।
इस तरह कबीर ने स्पष्ट कहा है -
कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढै वन मांहि।
ऐसेहि घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिं।
          हिन्दी साहित्य में सगुण और निर्गुण विवाद काफ़ी समय तक चला। कबीर, दादू और आदि संतों के लिए निर्गुण ब्रह्म की ही सत्ता है, तो मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास आदि के लिए वह साकार है। तुलसीदास यह तो मानते हैं कि राम सभी में व्याप्त हैं, सभी के मन में हैं, अंतर्यामी हैं, किंतु यह ‘ज्ञान को पंथ कृपान की धारा’ है, जिस पर फिसलने में देर नहीं लगती और इसलिए वह ब्रह्म जिसकी विशेषता है -
पद बिनु चलै सुनै बिनु काना,
कर बिनु कर्म करहि विधि नाना।
          जन सामान्य की आराधना का आधार नहीं हो सकता। जन सामान्य के लिए तो साकार भगवान भी ठीक है और उसमें भी राम। तुलसीदास जी कृष्ण को राम से भिन्न नहीं मानते, दोनों विष्णु के अवतार हैं, लेकिन कृष्ण का मोहन रूप, बाँसुरी बजैया का रूप तुलसी को पसन्द नहीं, क्योंकि दृष्टों के दलन के लिए माधुर्य नहीं, शौर्य चाहिए। इसलिए वे बाँसुरी बजैया कृष्ण की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर कहते हैं:
भली बनी छवि आजु की कहा कहौ मैं नाथ।
तुलसी मस्तक तब नबै, धनुष बाण लेहु हाथ।।
          गोस्वामी तुलसीदास अपने युग के सबसे बड़े समन्वयवादी थे। राम और कृष्ण, विष्णु और शिव किसी और के लिए भले ही अलग अलग हों, तुलसी के लिए एक ही थे। वह स्वयं साकार के उपासक होते हुए भी निराकार उपासकों के विरोधी नहीं थे। रामचरितमानस की एक पंक्ति ‘ढोल गंवार सूद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी’ को लेकर तुुलसी पर नारी और शूद्र के प्रति विद्वेष भाव का आरोप लगाया जाता है, जो वस्तुतः इस कथन को संदर्भ से काटकर देखने के कारण है। सीता जी भी तो नारी थीं। राम ने शूद्र भक्तिनी शबरी के जूठे बेर भी तो खाए थे यह सच है कि तुलसीदास ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान देते थे किंतु किसी अन्य जाति के प्रति विद्वेष नहीं था। जब राम वन जाते हैं, तो वनवासी राम उसी रंग में रंग जाते हैं, जिस रंग में अन्य वनवासी जातियां रंगी थी और जब रावण से युद्ध की नौबत आती है, तो ये सभी जातियां राम के लिए प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो जातीं है। राम ने इन वनवासी जातियों का समन्वय कितने अच्छ ढंग से किया है, अच्छी तरह दिखाया गया है। कोहली जी के ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ और ‘युद्ध’ (भाग 1 और 2) में राम की समन्यवादी दृष्टि बहुत ही स्पष्ट है। तुलसी की तरह अन्य संतों ने भी समाज में प्रचलित विचारों को समन्वित करने का सफल प्रयत्न किया था। कबीर की सधुक्कड़ी भाषा में उन सभी के लिए फटकार थी, जो समाज में धर्म, जाति आदि को लेकर वैमनस्य का बीज बो रहे थे, स्पष्ट कह रहे थे:‘अरे इन दाउन राह न पायी।’ सीधी राह तो अपने अंतर मे ब्रह्म ढूंढता है। नामदेव के शब्दों में:
हिन्दू पूजै देहरी, मुसलमान मसीत
नामा सोई सेविया, जहां देहरा न मसीत।
          इन संतों की वाणी में देश की एकता का भाव था। जब कबीर यह कहते हैं - ‘भक्ति दाविड़ ऊपजी लाए रामानंद/परगट कियो कबीर ने सात द्वीप नौ खंड’ तो वे देश की उसी एकता को दृढ़ करते हैं, जिसमें आसेतु हिमालय पूरा देश आबद्ध हैं।
          भक्ति काल की यह समन्वय दृष्टि आगे भी बनी रही। हिन्दुत्व ने जिस उदारता का परिचय दिया था, उसका प्रभाव उन जातियों और धर्मावलंबियों पर भी पड़ा, जो बाद में इस देश में आए। यह सच है कि प्रायः सभी जातियां इस देश को जीतन अथवा लूटने के उद्देश्य से आईं थीं, चाहे वह सिकंदर के नेतृत्व में आए यूनानी हों, अथवा मुहम्मद गौरी के नेतृत्व में आए यवन अथवा बाबर के नेतृत्व में आए मुग़ल हों अथवा कोई अन्य आक्रमण कारी। कुछ तो मात्र लूट कर चले गये, कुछ ने विजित क्षेत्रों पर अपना शासन कायम किया और यहीं बस गये। जो लौटकर गए उनमें भी न जाने कितनों के दिल पर इस देश की संस्कृति की अमिट छाप पड़ी थी भारत छोड़ते समय सिकंदर ने कहा था-‘मैं तलवार खींचे भारत में आया था, हृदय देकर जाता हूं। विस्मय विमुग्ध हूं। जिनसे खड्ग परीक्षा हुई थी, युद्ध में जिनसे तलवारें मिलीं थीं, उनसे हाथ मिलाकर, मैत्री का हाथ मिलाकर जाना चाहता हूं।’ उसके सेनापति सिल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया तो इस देश के रंग में ऐसी रंगी की फिर वापिस ही नहीं गई, सम्राट चंद्रगुप्त से उसका विवाह राजनीतिक संधि का परिणाममात्र नहीं थ, बल्कि उसका इस देश की धरती से प्यार भी उसका कारण था। प्रसाद जी के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में उसकी भावना उसके गीत में मुखर हो उठी है -
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहां भरे करुणाजल
लहरें टकरातीं अनंत की, पाकर जहां किनारा।
          हम जानते हैं, इस देश की धरती पर विस्मय विमुग्ध होने वाला अकेला सिकंदर ही नहीं था, यहां के वर्षा जल को करुणा जल समझने वाली कार्नेलिया अकेली नहीं थी। ऐसे बहुत थे। लेकिन आज कोई यह नहीं कह सकता कि अब उनका अस्तित्व कहीं अलग है। यही हाल मंगोलों, हूणों और चीनियों का हुआ। सभी ‘एक देहे हलोलनी’ हो गए। हां, इस्लाम के कुछ अनुयायी ज़रूर यह शपथ लेकर आए थे कि तलवार के बल पर इस देश को इस्लाम धर्मावलंबी बना देंगें, लेकिन उनमें से भी न जाने कितने यहां के रंग में रंग गये। जहां तुलसी, सूर और मीरा थे वहीं अमीर खुसरो, मुल्ला दाउद, मलिक मुहम्मद जायसी, रसखान आदि भी थे। हिन्दू भक्त कवियों का समाज में जितना आदर है, उतना ही इन मुसलमान कवियों का भी है। ‘इन मुसलमान हरिजन पर कोटिन हिन्दू वारिये’ कहने वाले की नज़र में इन मुसलमान भक्त कवियों का स्थान कितना ऊंचा रहा होगा, कल्पना की जा सकती है।
          इन मुसलमान कवियों ने भक्ति का वही स्वरूप अपनाया जो उनके समकालीन हिन्दू भक्तों ने अपनाया था, देव भी वे ही थे, जो हिन्दू भक्तों के थे। इसमे सबसे आगे थे रसखान, जो कृष्ण की ‘लकुटी अरु कामरिया’ पर तीनों लोकों का राज्य निछावर करते थे और ‘ब्रज गोकुल गांव के ग्वारिन’ के बीच जनम जनम तक बसने की साध मन में संजोये थे।
          ऐसेे ही कृष्ण रंग में रंगी थी शेख। हिन्दुत्व और कृष्ण के प्रति उसकी दीवानगी उसी के शब्दों में:
सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी
तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहौंगी मैं
देव पूजा ठानी मैं नमाज़ भी भुलानी
तजे कलमा क़ुरआन सारे गुनन गहौंगी मैं।
 
स्यामलो सलोनों सिरताज कुल्ली दिये
तेरे नेह आग में निदाध ह्वै दहौंगी मैं
नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै
हौं तो मुग़लानी, हिन्द्वानी ह्वे रहौंगी मैं।
          शेख जाति की रंगरेजिन थी। उसके प्यार में दीवाने आलम (जो ब्राह्मण थे) ने हिन्दू धर्म छोड़ दिया था। मुसलमान हो गए और शेख से विवाह कर लिया। इन दोनों के प्रेम की पीर अद्भुत थी।
          सूफी कवि तो भारतीय रंग में रंगे ही थे। सूफियों का ‘तसव्बुफ’ भारत के अद्वैत से प्रभावित था। ये सूफी ब्रह्मज्ञानी, अध्यात्मवादी और सभी धर्मों से प्रेम करने वाले थे। इस्लाम के अन्तर्गत सूफी रहस्यवादी साधक माने जाते हैं। हिन्दी के सूफी कवियों ने तसब्बुफ के अनुसार ‘प्रेम की पीर’ को ही साधना का मूल मंत्र माना है। भारतीय कथानक रूढ़ियों (श्रवण दर्शन, चित्र दर्शन, स्पप्न दर्शन, सिहल द्वीप, पद्मिनी आदि) का प्रयोग कर सूफी कवियों ने ईरानी मसनबी शैली और भारतीय परंपराओं का सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया है।
          सूफी एकेश्वरवाद मे विश्वास करते हैं किंतु वे इस्लाम के कट्टर अनुयायी नहीं है। कट्टर अनुयायी खुदा को इस दृश्यमान जगत से भिन्न मानते हैं, जबकि सूफी लोग परमात्मा को जगत में सर्वत्र व्याप्त मानते हैं। उनकी दृष्टि में सृष्टि असत्य है, परमात्मा ही सत्य है। किंतु यह असत्य जगत सत्य को समझने में सहायक है, क्योंकि परमात्मा अपनी अनंत विभूति और सौंदर्य मे से जगत की सृष्टि करता है। सृष्टि उसका प्रतिबिंब मात्र है, प्रतिबिंब कभी सच्चा नहीं होता। सच वह सŸाा है, जिसका यह प्रतिबिंब है। यहां हम स्पष्ट देख सकते हैं कि आचार्य शंकर के अद्वैस इसका बहुत कुछ साम्य है। अद्वैतवाद में यह सृष्टि ब्रह्म की माया है। यानी अद्वैत की ‘माया’ और सूफियों का प्रतिबिंब एक ही बात है। कहना गलत न होगा कि वर्तमान में भारतीयों के लिए सूफी मत से परिचय का सबसे प्रमुख माध्यम सूफी कवियों के काव्यग्रंथ रह गए हैं, जो उस विचारधारा को जन जन तक पहुंचाने का कार्य बखूबी कर रहे हैं।
          सक्षेप में कहें तो सूफी मत इस्लाम से प्रोद्भूत होने के बावजूद एक तो भारतीय विचारधारा से प्रभावित जान पड़ता है, तो दूसरी ओर यह सूफी मत हिन्दी के संत कवियों की विचारधारा को प्रभावित भी करता है। कबीर जैसे संत भी इस सूफी मत से प्रभावित थे। मुल्ला दाउद का ‘चंद्रायन’, कुतुबन की ‘मृगावती’ जायसी का ‘पद्मावत’ आदि हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
          भारतीय और इस्लामी संस्कृति के समन्वयकर्ताओं में अमीर खुसरो का योगदान भी कम नहीं है। भारतीयता और भारतीय भाषा के प्रति खुसरो का प्रेम अनन्य है। अपनी इस भावना का स्पष्ट परिचय देने के लिये ही शायद उन्होंने कौतुकी रचनाओं की सृष्टि की। फारसी छुद का एक टुकड़ा उन्होंने फारसी में रचा, तो दूसरा ब्रजभाषा में:
जे हाले मिस्कीं तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिजां न बारम-ए-जां, न लेहु काहे लगाय छतियाँ।।
          खुसरो की देखा देखी अन्य कवियों ने भी ऐसी कौतुकी रचनाएं कीं। गंग कवि का एक उदाहरण है-
कौन घरी विधना करी जब रुए अयां दिलदार मुबीरम्।
आनंद होय तबै सजनी, दर बस्लये चार निगार नशीनम्।
          लेकिन रहीम ने तो एक कदम आगे बढ़कर संस्कृत और खड़ी बोली की खिचड़ी तैयार की
दृष्ट्या तंत्र विचित्रतां तरुलतां मैं था गया बाग में।
काचितत्र कुरंगशावकनयना गुल तोड़ती थी खड़ी।।
          तात्पर्य यह है कि कवियों ने तरह तरह से अपनी समन्वयात्मक दृष्टि का परिचय दिया और लोगों के सामने एकता, भ्रातृत्व और पारस्परिक सद्भाव का उदाहरण पेश किया। आगे चलकर रीतिकाल में भी यह धारा अजग्र बहती रही।
          हिन्दी का श्रष्ठ साहित्य मुसलमानों के शासनकाल में रचा गया। कबीर, जायसी, विद्यपति और दादूदयाल पठान युग की देन हैं, तो सूर, तुलसी, मीरा, केशव, घनानंद, पद्माकर, रहीम, रसखान तथा उनके समकालीन सैंकड़ों श्रेष्ठ कवियों का समय मुग़ल शासनकाल था। तुलसी का सम्मान हिन्दू मुसलमान दोनों करते थे। रहीम और तुलसी की मित्रता प्रसिद्ध है। दोनों एक दूसरे के प्रशंसक थे। ‘गोद लिए हुलसी फिरे तुलसी सो सुत होय’, कहने वाले रहीम ने ‘रामचरितमानस’ की प्रशंसा में लिखा:
हिन्दुआन को वेद सम, तुरुकहिं प्रकट क़ुरआन
          हिन्दू मुस्लिम एकता की राहें केवल दो हैं एक तो यह कि देश से धर्म का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाए। मंदिर और मस्जिद नेस्तनाबूत कर दिये जाएं। बीसवीं शताब्दी के अनेक चिंतकों और कवियों को किसी समय यही राह ठीक दिखाई दी थी:
तेरे झूठे कुफ्रो ईमां को मिटा डालूंगा मैं
हड्डियां इस कुफ्रो ईमां की चबा डालूंगा मैं
डाल दूंगा तर्जे नो अजमेर और प्रयोग
में झोंक दूंगा कुफ्रो ईमां को दहकती आग में -जोश मलीहाबादी
उर्दू कवि ने ही नहीं, एक हिन्दी कवि ने भी यह भावना व्यक्त की है:
ठोकर मार फोड़ दे उसको जिस बरतन में छेद रहे,
वह लंका जल जाए जहां भाई भाई मे भेद रहे
गजनी तोड़ सोमनाथ को काबे को दूं फूंक शिवा
जले कुरां अरबी रेतों में सागर जा फिर वेद रहे।
दूसरी राह वेदांत के अद्वैत की, जिसको सहज और जनप्रिय रूप में सूफियों ने प्रस्तुत किया था। भक्तों की निर्गुण उपासना इसी वेदांत से जन्मी है।
          हिन्दू मुस्लिम समन्वय का एक जबरदस्त मौका था आजादी की लड़ाई के दिनों का। देश पर मर मिटने की ललक हिन्दू ही नहीं मुसलमान को भी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सूत्रधारों में प्रमुख थे अजीमुल्ला खां। बहादुरशाह ज़फ़र के नेतृत्व में जिस आजादी का उद्घोष किया गया था उसके नायक थे तात्या टोपे, महारानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, नाना साहब, कुंवर सिंह आदि। और जब कांग्रेस के मंच से यह लड़ाई लड़ी गई तो भी हिन्दू मुसलमान साथ साथ थे। क्रांतिकारियों में प्रायः सभी प्रांतों के हिन्दू मुसलमान थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द सेना के एक नायक शाहनवाज खाँ थे। हिन्दी और उर्दू दोनों में ऐसी कविताओं का बाहुल्य है, जो हर देशवासी को सिर्फ हिन्दुस्तानी के नाम पर आजादी के यज्ञ में आहुति देने का आह्वान करती हैं। आजादी की नज़्मों में बार बार कौमी एकता का नारा बुलंद हुआ है। काकोरी कांड में अमर शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और रोशन सिंह क्रमशः मुसलमान ब्राह्मण और ठाकुर होते हुए भी साथ साथ खाते पीते थे। ‘बिस्मिल’ की गजलें ‘सरफरोशी की तमन्ना’, ‘जिंदगी का राज मुसाफिर’ और ‘जो हम फरियाद करते है’ हर देश प्रेमी की जबान पर थीं। असफाकउल्ला खां की आखिरी नज्म ‘शोरिशे जुनू’ का एक शेर हैः
ये झगड़े और बखेड़े मेटकर आपस में मिल जाओ
अबस तफ़रीक[2] है तुमसे यह हिन्दू और मुसलमां की।
          इस शहीदों की शहादत से आजादी तो मिली, लेकिन अंग्रेज जाते जाते भी हिन्दू मुसलमानों में वैमनस्य का बीज बो गए। आजादी से पहले पाकिस्तान की मांग उसी बीज की उपज थी। बहुत से लोग इस साजिश को समझते भी थे, लेकिन उनकी चली नहीं और देश का बंटवारा हो गया। कितने कत्ल हुए कितने घर से बेघर हुए, कितना नुकसान हुआ और सबसे बढ़कर तो यह कि उस घृणा के बीज में अभी भी कभी कभी सांप्रदायिक वैमनस्य का अंकुर फूट पड़ता हैै। उदाहरण के तौर पर इस संदर्भ में दो उपन्यास ‘धर्मपुत्र’ और ‘तमस’ उल्लेखनीय हैं।
          आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास ‘धर्मपुत्र’ में हिन्दू मुस्लिम एकता का अच्छा चित्रण है। डाॅ० अमृतराय और उनकी पत्नी अरुणादेवी सब कुछ जानते हुए भी कुंवारी माँ हुस्नबान् के बच्चे को अपना पुत्र मानकर पालते हैं। वे जानते हैं कि बच्चे का बाप मुसलमान है। आजादी के पहले इस देश में हिन्दू और मुसलमान अपने अपने धर्म को मानते हुए भी प्रेम में रहते थे। हिन्दू अगर मुसलमान का छुआ नहीं खाते थे तो इस पर मुसलमान को कोई ऐतराज न था। ऊंचे खानदान का मुसलमान भी अपने हिन्दू नौकर के खाने को छूकर उसकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाता था। मुसलमानों के यहां हिन्दू की दावत होती, तो खाना हिन्दू रसोइया बनाता था। इसी हाल में जब अरुणादेवी ने हुस्नबान के बच्चे को अपना बच्चा मान लिया और उसके पति ने हुस्नबान को बहन, तो जैसे मजहब की सारी दीवारें ढह गईं। अरुणादेवी ने हुस्नबान को दावत दी। बान् ने जिद की कि ‘भाभी तुम बैठो, लाओ अपनी थाली’, अरुणा मेहमान को खिलाकर खाना चाहती थी, लेकिन जब मेहमान न मानी, ‘तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ ही खाउंगी, एक ही थाल में, और वह (अरुणा देवी) हुस्नबान् के सामने बैठ गई। थाल से ग्रास उठाया। बान् ने कहा ‘हें, हें यह क्या करती हो भाभी!’
‘बहन, ननद बनना इतना आसान नहीं है। तुम्हारा ज़िगर का टुकड़ा अब मेरी गोद मे है। अब भी भेदभाव रह सकता है ?......... जब तक मैं तुम्हारे साथ खाउंगी नहीं, तुम्हारे बेटे को अपनाउंगी कैसे ?’ और यही ज़िगर का टुकड़ा जब बड़ा होकर रंगमहल (हुस्नबान् का आवास) में आग लगाने जाता है, तो डॉ. अमृतराय अरुणा देवी और हुस्नबान् को बचाने के लिए प्राणों की बाजी लगा देते हैं देश का माहौल बदल चुका था। जिन्ना साहब के आह्वान पर दिल्ली के मुसलमान सीधी कार्रवाई पर आमादा थे। कट्टर हिन्दू भी भला कब पीछे रहने वाले थे। दोनों धर्मांध थे। मजहब का जुनून सिर पर सवार था। हुस्नबान् के जिगर का टुकड़ा यही समझता था कि वह हिन्दू माता पिता की संतान है। वह किसी भी कट्टर हिन्दू से ज्यादा कट्टर ह्रिन्दू था। उसमें अमृतराय और अरुणा देवी की उदारता नहीं थी वह हुस्नबान् को रंगमहल में जीवित जला देना चाहता था। अमृतराय, बान् को बचाने के लिए पत्नी सहित रंगमहल पहुंचते हैं। सामने दिलीप हैं। वह बान् की रक्षा के लिए दिलीप (जिस पर शैतान सवार है) पर बंदूक तान देते हैं। हुस्नबान् को पता है कि दिलीप उसी का बेटा है, वह झपटते हुए बंदूक की नली के आगे खड़ी हुई। उसने कहा, ‘खुदा के लिए भाई जान, बंदूक मुझे दे दीजिए, उसे जो जी चाहे करने दीजिए और उसने एक तौर पर बंदूक उनके हाथ से छीन ली।’
लेकिन अभी एक और परीक्षा की घड़ी शेष है हिन्दुओं के लिए। दिलीप मुसलमान माँ बाप की संतान है, यह जानते हुए भी माया उसका वरण करती है। उसके पिता राय साहब आशीर्वाद देते हैं। पूरे उपन्यास में हिन्दू मुस्लिम भाई भाई का कहीं कोई नारा नहीं है, लेकिन घटनाक्रम और पात्रों की भावनाएं इसी भावना को दृढ़ करती हैं।
          भीष्म साहनी का ‘तमस’ उपन्यास भी हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ाने की प्रेरणा देता है। उपन्यास की पृष्ठभूमि में विभाजन से पहले के पंजाब में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पनपी घृणा और वैमनस्य की भावना है। लेकिन इस घृणा और वैमनस्य के पीछे कतिपय स्वार्थी तत्वों द्वारा पैदा की गई गलतफहमियां हैं। दोनों संप्रदाय एक दूसरे को शंका की दृष्टि से देखते हैं। मस्जिदों और गुरुद्वारों में हथियार जमा किये जा रहे हैं। सिक्ख कहते हैं कि मुसलमानों का कोई ऐतबार नहीं और मुसलमान कहते हैं कि सिखों का कोई ऐतबार नहीं और एक के बाद एक गलतफहमियां और वैमनस्य बढ़ता जाता है। हिंसा का लावा फूट पड़ता है। कत्ल होते हैं और नारियां बेइज्ज़त होतीं हैं। बेचारे मनोहरलाल की कोई नहीं सुनता। उसकी धारणा है कि यह सब अंग्रेजों की साजिश से हुआ है।
          हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गलतफहमियां पैदा करने वाले तत्व को कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि वारदातों की शुरुआत मस्जिद के सामने जिस सुअर को देखकर हुई थी, उस सुअर को मुबारक अली के कहने पर नत्थू ने मारा था (नत्थू को नहीं मालूम कि उस सुअर को क्यों मरवाया गया है) और मस्जिद के सामने रात के अंधेरे में फेंका कालू नामक ईसाई ने। जिस मुबारक अली के इशारे पर गलतफहमियों की श्रृंखला शुरू हुई, हत्याकांड हुआ, वही मुबारक अली अंत में अमन की बस में सबसे पहले बैठकर ‘हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद - जिंदाबाद’ और ‘अमन कमेटी जिंदाबाद’ के नारे लगाता हुआ जाता है। कोई नहीं पूछता कि मुबारक अली उस सरकारी बस में कब, कैसे चढ़ गया, यानी घृणा का जहर घोलने वालों की ओर कोई उंगली नहीं उठाता।
          फिसाद के दौरान सिख हरनाम सिंह को सचेत करने वाला करीमखान भी मुसलमान है और पनाह देने वाला परिवार भी मुसलमान एहसान अली का है। उसका बेठा रमज़ान मुस्लिम लीगी है। फिर भी हरनाम सिंह की उस घर में रक्षा होती है। इस तरह हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य और घृणा की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया उपन्यास दोनों संप्रदायों के पारस्परिक सद्भाव और ऐक्य को रेखांकित करता चला जाता है।
          आज उर्दू भाषा विवाद का विषय बनी हुई है (अथवा यूं कहें कि कुछ राजनीतिक कारणों से उर्दू को विवादास्पद बनाया जा रहा है) लेकिन भाषा बहता नीर है बहता रहेगा, तो स्वच्छ रहेगा, अगर बंध जाएगा तो दूषित हो जाएगा। जैसा कि कहा जा चुका है, भारत में मुसलमानों के आने के बाद इस्लाम ने जहां भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया, वहां यहां की भाषा पर भी अरबी फारसी का असर पड़ा। हिन्दी कवियों ने आवश्यकता होने पर अरबी फारसी शब्दों से कभी परहेज नहीं किया। कविवर भिखारीदास के अनुसार तो:
ब्रजभाषा भाषा रुचिर, कहै सुमति सब कोय
मिले संस्कृत फारस्यो, पै अति सुगम जो होय
 और जायसी के लिए भी भाषा का कोई झगड़ा नहीं था:
अरबी, तुरकी, हिन्दुई भाषा जेति आहि
जैहि महं मारण प्रेम का सबै सराहै ताहि
आज का कवि भी भारत की भाषा मे विदेशीपन नहीं चाहता:
कीजै न ज़मील उर्दू का सिंगार अब ईरानी तलमीहों से
पहनेगी विदेशी गहने कयों यह बेटी भारतमाता की-जमील मज़हरी
          अगर जमील मज़हरी की भावना को उर्दू वाले अपना लें, तो उर्दू हिन्दी का झगड़ा मिट जाए। अरबी फारसी से बोझिल होने के कारण उर्दू जनता की जुबान उसी तरह नहीं बन पा रही है जिस तरह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी। अरबी फारसी के जो शब्द यहां की बोली में सहज प्रचलित हैं, उनका इस्तेमाल करते हुए यदि जनसामान्य की भाषा लिखी जाए तो दोनों भाषाएं एक हैं, सिर्फ लिपि का अंतर है।
          इस तरह हम देखते हैं कि कौमी एकता की जो भावना कबीरदास के सबदों और साखियों में थी, वह आज भी है। इस दर्शन को अभिव्यक्ति देने वाले उर्दू के महान् शायर इक़बाल का भी तो यही पयाम है:
वस्ल के सामान पैदा हों तेरी तहरीर से
देख, कोई दिल न दु:ख जाए तेरी तकरीर से
          समन्वय की यह प्रक्रिया, विरोधी विचारों को भी आत्मसात करने की सामासिक प्रक्रिया आज भी जारी है। भारत में अंग्रेजी शासनकाल में पश्चिम से वैचारिक आदान प्रदान हुआ। अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिसिज़्म का प्रभाव हिन्दी के छायावादी काव्य पर स्पष्ट ही है। मार्क्स और लेनिन के विचारों ने हिन्दी साहित्य में युगांतकारी परिवर्तन किया है। पंतजी के ‘युगांत’ से छायावादी युग का अंत माना जाने लगा। पंत जी के ही शब्दों में ‘मार्क्सवाद के साथ धरा पर करता स्वर्ण पदार्पण’ - मार्क्सवाद से धरा पर स्वर्ग ने पदार्पण भले ही नहीं किया, किंतु उसने हिन्दी कविता को एक नई विचार भूमि ज़रूर प्रदान की है।
          इसी वैचारिक समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण है प्रसाद जी की ‘कामायनी’ महाकाव्य। मानव मन में बुद्धि और भावना (श्रद्धा) का द्वंद सनातन है। मनुष्य चाहता कुछ है और करता कुछ है। यह संघर्ष (अंतः और बाह्य दोनों) का कारण है। इन विरोधी बातों का सामांजस्य ज़रूरी है। यही समरसता का सिद्धांत है। इस भाव भूमि पर पहुंचने के बाद कुछ भिन्न नहीं रह जाता है।
          मनु ने कुछ कुछ मुसक्या कर कैलास की ओर दिखलाया और बोले, ‘देखो यहां पर कोई नहीं पराया’
हम अन्य न और कुटुम्बी हम केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो जिसमें कुछ नहीं कमी हैं
          यदि एक वाक्य में कहे तो अद्वैत का भाव भारत की सामासिक संस्कृति का प्राण और जिन काव्य मनीषियों ने इस अद्वैत भाव को समझा और अपनाया है, उन्होंने सांस्कृतिक समन्वय एवं एकता का मार्ग प्रशस्त किया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (संस्कृति के चार अध्याय पृ० 98)
  2. बेकार भेदभाव

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
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21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
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29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
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31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
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57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
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