"बिस्मिल्लाह ख़ाँ" के अवतरणों में अंतर

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'''उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ'''<br />
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'''उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bismillah Khan'', जन्म: [[21 मार्च]], [[1916]] - मृत्यु: [[21 अगस्त]], [[2006]]) [[भारत रत्न]] सम्मानित एक प्रख्यात [[शहनाई वादक]] थे। [[1969]] में एशियाई संगीत सम्मेलन के '''रोस्टम पुरस्कार''' तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ ने [[शहनाई]] को [[भारत]] के बाहर एक पहचान प्रदान किया है।  
[[भारत रत्न]] सम्मानित बिस्मिल्ला ख़ाँ (जन्म- [[21 मार्च]] [[1916]] - मृत्यु- [[21 अगस्त]], [[2006]] ) एक प्रख्यात [[शहनाई वादक]] थे। [[1969]] में एशियाई संगीत सम्मेलन के '''रोस्टम पुरस्कार''' तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्ला खाँ ने [[शहनाई]] को [[भारत]] के बाहर एक पहचान प्रदान किया है।  
 
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
[[1916]] में [[बिहार]] के डुमरांव में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते हैं। बिस्मिल्ला ख़ाँ के परदादा शहनाई नवाज़ उस्ताद सालार हुसैन ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। ख़ाँ को उनके चाचा अली बक्श 'विलायतु' ने [[संगीत]] की शिक्षा दी, जो [[बनारस]] के पवित्र [[विश्वनाथ मन्दिर]] में अधिकृत शहनाई वादक थे। बिस्मिल्ला ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ ने [[भारत]] के पहले [[गणतंत्र दिवस]] समारोह की पूर्व संध्या पर [[नई दिल्ली]] में [[लाल क़िला दिल्ली|लाल क़िले]] से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया। उन्होंने [[अफ़ग़ानिस्तान]], [[यूरोप]], [[ईरान]], इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, [[अमेरिका]], भूतपूर्व सोवियत संघ, [[जापान]], हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में प्रदर्शन किया है।
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[[1916]] में [[बिहार]] के डुमरांव में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते हैं। बिस्मिल्लाह ख़ाँ के परदादा शहनाई नवाज़ उस्ताद सालार हुसैन ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। ख़ाँ को उनके चाचा अली बक्श 'विलायतु' ने [[संगीत]] की शिक्षा दी, जो [[बनारस]] के पवित्र [[विश्वनाथ मन्दिर]] में अधिकृत शहनाई वादक थे। बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने [[भारत]] के पहले [[गणतंत्र दिवस]] समारोह की पूर्व संध्या पर [[नई दिल्ली]] में [[लाल क़िला दिल्ली|लाल क़िले]] से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया। उन्होंने [[अफ़ग़ानिस्तान]], [[यूरोप]], [[ईरान]], इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, [[अमेरिका]], भूतपूर्व सोवियत संघ, [[जापान]], हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में प्रदर्शन किया है। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ विद्या की [[हिन्दू]] देवी [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] के परम उपासक हैं। [[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]] और [[शांतिनिकेतन]] ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की है।
==श्रद्धा==
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==शहनाई ही बेगम और मौसिकी==
मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ विद्या की [[हिन्दू]] देवी [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] के परम उपासक हैं। [[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]] और [[शांतिनिकेतन]] ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की है।
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[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]] और [[संस्कृति]] की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श खान ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा, इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्दीन था। उनके पूर्वज [[बिहार]] के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर खान इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को [[बनारस]] ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और [[गंगा]] के साथ उनका जुड़ाव भी। खान [[काशी]] [[विश्वनाथ मंदिर]] से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे। खान के ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘खां कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’ किताब में मिश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है, ‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।’<ref name="आजतक">{{cite web |url= http://aajtak.intoday.in/story/Ustad-Bismillah-Khan-1-693960.html|title=शहनाई ही बेगम और मौसिकी थी उस्ताद बिस्मिल्ला खान की |accessmonthday= 11 मार्च|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=आजतक |language=हिंदी }}</ref>
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==स्वतंत्रता दिवस पर शहनाई==
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[[भारत]] की आजादी और खान की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है। [[1947]] में आजादी की पूर्व संध्या पर जब [[लाल किला दिल्ली|लालकिले]] पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल [[15 अगस्त]] को [[प्रधानमंत्री]] के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। खान ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने [[ईरान]], इराक, [[अफगानिस्तान]], [[जापान]], [[अमेरिका]], कनाडा और [[रूस]] जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।<ref name="आजतक"/>
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==फ़िल्मी सफ़र==
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बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और [[सत्यजीत रे]] की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।<ref name="आजतक"/>
 
==सम्मान एवं पुरस्कार==
 
==सम्मान एवं पुरस्कार==
*सन [[1956]] में बिस्मिल्ला ख़ाँ को [[संगीत नाटक अकादमी]] से सम्मानित किया गया।  
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*सन [[1956]] में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को [[संगीत नाटक अकादमी]] से सम्मानित किया गया।  
 
*सन [[1961]] में उन्हें [[पद्म श्री]] से सम्मानित किया गया।  
 
*सन [[1961]] में उन्हें [[पद्म श्री]] से सम्मानित किया गया।  
 
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*[[2001]] में उन्हें [[भारत रत्न]] से सम्मानित किया गया।
 
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*[[मध्य प्रदेश]] में उन्हें सरकार द्वारा '''तानसेन पुरस्कार''' से भी सम्मानित किया गया।  
 
*[[मध्य प्रदेश]] में उन्हें सरकार द्वारा '''तानसेन पुरस्कार''' से भी सम्मानित किया गया।  
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==निधन==
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बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में [[दिल्ली]] के [[इंडिया गेट]] पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और [[21 अगस्त]], [[2006]] को 90 वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.hindinest.com/nibandh/n18.htm बिस्मिल्लाह खां : संगीत ही जिनका धर्म था]
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*[http://buddhijeevi.com/index.php/2011-09-11-09-07-44/2011-09-11-09-14-21/item/211-%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%82.html उस्ताद बिस्मिल्ला खां]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
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10:54, 11 मार्च 2013 का अवतरण

बिस्मिल्लाह ख़ाँ
Ustad-Bismillah-khan.jpg
पूरा नाम उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ
जन्म 21 मार्च 1916
जन्म भूमि डुमरांव, बिहार
मृत्यु 21 अगस्त, 2006 (90 वर्ष)
कर्म भूमि बनारस
कर्म-क्षेत्र शहनाई वादक
मुख्य फ़िल्में ‘सन्नादी अपन्ना’ (कन्नड़), ‘गूंज उठी शहनाई’ और ‘जलसाघर’ (हिंदी)
विद्यालय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न, रोस्टम पुरस्कार, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, तानसेन पुरस्कार
प्रसिद्धि शहनाई वादक
नागरिकता भारतीय

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Bismillah Khan, जन्म: 21 मार्च, 1916 - मृत्यु: 21 अगस्त, 2006) भारत रत्न सम्मानित एक प्रख्यात शहनाई वादक थे। 1969 में एशियाई संगीत सम्मेलन के रोस्टम पुरस्कार तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक पहचान प्रदान किया है।

जीवन परिचय

1916 में बिहार के डुमरांव में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते हैं। बिस्मिल्लाह ख़ाँ के परदादा शहनाई नवाज़ उस्ताद सालार हुसैन ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। ख़ाँ को उनके चाचा अली बक्श 'विलायतु' ने संगीत की शिक्षा दी, जो बनारस के पवित्र विश्वनाथ मन्दिर में अधिकृत शहनाई वादक थे। बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में लाल क़िले से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया। उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में प्रदर्शन किया है। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ विद्या की हिन्दू देवी सरस्वती के परम उपासक हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की है।

शहनाई ही बेगम और मौसिकी

भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श खान ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा, इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्दीन था। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर खान इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। खान काशी विश्वनाथ मंदिर से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे। खान के ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘खां कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’ किताब में मिश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है, ‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।’[1]

स्वतंत्रता दिवस पर शहनाई

भारत की आजादी और खान की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। खान ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।[1]

फ़िल्मी सफ़र

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।[1]

सम्मान एवं पुरस्कार

निधन

बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और 21 अगस्त, 2006 को 90 वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 शहनाई ही बेगम और मौसिकी थी उस्ताद बिस्मिल्ला खान की (हिंदी) आजतक। अभिगमन तिथि: 11 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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