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बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने [[भारत]] के पहले [[गणतंत्र दिवस]] समारोह की पूर्व संध्या पर [[नई दिल्ली]] में [[लाल क़िला दिल्ली|लाल क़िले]] से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया।
 
बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने [[भारत]] के पहले [[गणतंत्र दिवस]] समारोह की पूर्व संध्या पर [[नई दिल्ली]] में [[लाल क़िला दिल्ली|लाल क़िले]] से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया।
 
==उल्लेखनीय तथ्य==
 
==उल्लेखनीय तथ्य==
बिस्मिल्ला ख़ाँ ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- "क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं"। उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब [[विवाह]] आदि में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के [[पिता]] और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है। उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।<ref>{{cite web |url=http://surpeti.blogspot.in/2008/08/blog-post_20.html|title=आज बरसी –शहनाई ख़ाँ साहब की |accessmonthday=20 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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बिस्मिल्ला ख़ाँ ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- "क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं"। उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब [[विवाह]] आदि में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के [[पिता]] और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है। उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।<ref name="ab">{{cite web |url=http://surpeti.blogspot.in/2008/08/blog-post_20.html|title=आज बरसी –शहनाई ख़ाँ साहब की |accessmonthday=20 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
==विदेशों में वादन==
 
==विदेशों में वादन==
 
[[अफ़ग़ानिस्तान]], [[यूरोप]], [[ईरान]], इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, [[अमेरिका]], भूतपूर्व सोवियत संघ, [[जापान]], हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ साहब विद्या की [[हिन्दू]] देवी [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] के परम उपासक थे। '[[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]]' और '[[शांतिनिकेतन]]' ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था। उनकी शहनाई की गूँज आज भी लोगों के कानों में गूँजती है।
 
[[अफ़ग़ानिस्तान]], [[यूरोप]], [[ईरान]], इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, [[अमेरिका]], भूतपूर्व सोवियत संघ, [[जापान]], हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ साहब विद्या की [[हिन्दू]] देवी [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] के परम उपासक थे। '[[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]]' और '[[शांतिनिकेतन]]' ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था। उनकी शहनाई की गूँज आज भी लोगों के कानों में गूँजती है।
 
==शहनाई ही बेगम और मौसिकी==
 
==शहनाई ही बेगम और मौसिकी==
[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]] और [[संस्कृति]] की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श खान ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा, इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्दीन था। उनके पूर्वज [[बिहार]] के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर खान इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को [[बनारस]] ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और [[गंगा]] के साथ उनका जुड़ाव भी। खान [[काशी]] [[विश्वनाथ मंदिर]] से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे। खान के ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘खां कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’ किताब में मिश्र ने बनारस से खान के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है, ‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।’<ref name="आजतक">{{cite web |url= http://aajtak.intoday.in/story/Ustad-Bismillah-Khan-1-693960.html|title=शहनाई ही बेगम और मौसिकी थी उस्ताद बिस्मिल्ला खान की |accessmonthday= 11 मार्च|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=आजतक |language=हिंदी }}</ref>
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[[भारतीय शास्त्रीय संगीत]] और [[संस्कृति]] की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ाँ शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श ख़ाँ ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा, इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्दीन था। उनके पूर्वज [[बिहार]] के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर ख़ाँ इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को [[बनारस]] ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और [[गंगा]] के साथ उनका जुड़ाव भी। ख़ाँ [[काशी]] [[विश्वनाथ मंदिर]] से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे। ख़ाँ के ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘ख़ाँ कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’ किताब में मिश्र ने बनारस से ख़ाँ के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है, ‘ख़ाँ कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।’<ref name="आजतक">{{cite web |url= http://aajtak.intoday.in/story/Ustad-Bismillah-Khan-1-693960.html|title=शहनाई ही बेगम और मौसिकी थी उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की |accessmonthday= 11 मार्च|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=आजतक |language=हिंदी }}</ref>
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==जुगलबंदी==
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बिस्मिल्ला ख़ाँ ने मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य [[शहनाई]] को अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर '[[शास्त्रीय संगीत]]' का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। [[उस्ताद विलायत ख़ाँ]] के [[सितार]] और पण्डित वी. जी. जोग के वायलिन के साथ ख़ाँ साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल. पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि- "सिर्फ़ [[संगीत]] ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है"। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने बिस्मिल्ला ख़ाँ के शहनाई वादन पर आपत्ति की। उन्होंने आँखें बद कीं और उस पर "अल्लाह हू" बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा- "मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा हराम है"। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्ला ख़ाँ के बाजे में पहले वह आकर्षण और वजन नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली कि व्यायाम किए बिना साँस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा। इस पर बिस्मिल्ला ख़ाँ उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह [[गंगा]] के घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है कि वे बरसों पूरे [[भारत]] में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।<ref name="ab"/>
 
==स्वतंत्रता दिवस पर शहनाई==
 
==स्वतंत्रता दिवस पर शहनाई==
[[भारत]] की आजादी और खान की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है। [[1947]] में आजादी की पूर्व संध्या पर जब [[लाल किला दिल्ली|लालकिले]] पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल [[15 अगस्त]] को [[प्रधानमंत्री]] के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। खान ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने [[ईरान]], इराक, [[अफगानिस्तान]], [[जापान]], [[अमेरिका]], कनाडा और [[रूस]] जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।<ref name="आजतक"/>
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[[भारत]] की आजादी और ख़ाँ की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है। [[1947]] में आजादी की पूर्व संध्या पर जब [[लाल किला दिल्ली|लालकिले]] पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल [[15 अगस्त]] को [[प्रधानमंत्री]] के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। ख़ाँ ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने [[ईरान]], इराक, [[अफगानिस्तान]], [[जापान]], [[अमेरिका]], कनाडा और [[रूस]] जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।<ref name="आजतक"/>
 
==फ़िल्मी सफ़र==  
 
==फ़िल्मी सफ़र==  
 
बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और [[सत्यजीत रे]] की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।<ref name="आजतक"/>
 
बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और [[सत्यजीत रे]] की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।<ref name="आजतक"/>
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पंडित जसराज का मानना है- उनके जैसा महान संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूं। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।<ref name="बीबीसी"/>{{बाँयाबक्सा|पाठ= मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।|विचारक=[[हरिप्रसाद चौरसिया]]}}
 
पंडित जसराज का मानना है- उनके जैसा महान संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूं। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।<ref name="बीबीसी"/>{{बाँयाबक्सा|पाठ= मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।|विचारक=[[हरिप्रसाद चौरसिया]]}}
 
; हरिप्रसाद चौरसिया के श्रीमुख से
 
; हरिप्रसाद चौरसिया के श्रीमुख से
बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया का कहना है- बिस्मिल्ला खां साहब भारत की एक महान विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।<ref name="बीबीसी">{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/08/060821_bismillah_jasraj.shtml|title='संत संगीतकार थे बिस्मिल्ला ख़ान' |accessmonthday= 11 मार्च|accessyear=2013 |last=त्रिपाठी |first=वेदिका  |authorlink= |format= |publisher=बीबीसी हिंदी|language=हिंदी }}</ref>
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बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया का कहना है- बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब भारत की एक महान विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।<ref name="बीबीसी">{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2006/08/060821_bismillah_jasraj.shtml|title='संत संगीतकार थे बिस्मिल्ला ख़ान' |accessmonthday= 11 मार्च|accessyear=2013 |last=त्रिपाठी |first=वेदिका  |authorlink= |format= |publisher=बीबीसी हिंदी|language=हिंदी }}</ref>
 
==सम्मान एवं पुरस्कार==
 
==सम्मान एवं पुरस्कार==
 
*सन [[1956]] में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को [[संगीत नाटक अकादमी]] से सम्मानित किया गया।  
 
*सन [[1956]] में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को [[संगीत नाटक अकादमी]] से सम्मानित किया गया।  
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<references/>
 
<references/>
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.hindinest.com/nibandh/n18.htm बिस्मिल्लाह खां : संगीत ही जिनका धर्म था]
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*[http://www.hindinest.com/nibandh/n18.htm बिस्मिल्लाह ख़ाँ : संगीत ही जिनका धर्म था]
*[http://buddhijeevi.com/index.php/2011-09-11-09-07-44/2011-09-11-09-14-21/item/211-%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%82.html उस्ताद बिस्मिल्ला खां]
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*[http://buddhijeevi.com/index.php/2011-09-11-09-07-44/2011-09-11-09-14-21/item/211-%E0%A4%89%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%82.html उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{भारत रत्‍न}}{{शास्त्रीय वादक कलाकार}}{{भारत रत्‍न2}}  
 
{{भारत रत्‍न}}{{शास्त्रीय वादक कलाकार}}{{भारत रत्‍न2}}  

13:42, 20 मार्च 2013 का अवतरण

बिस्मिल्लाह ख़ाँ
Ustad-Bismillah-khan.jpg
पूरा नाम उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ
जन्म 21 मार्च 1916
जन्म भूमि डुमरांव, बिहार
मृत्यु 21 अगस्त, 2006 (90 वर्ष)
कर्म भूमि बनारस
कर्म-क्षेत्र शहनाई वादक
मुख्य फ़िल्में ‘सन्नादी अपन्ना’ (कन्नड़), ‘गूंज उठी शहनाई’ और ‘जलसाघर’ (हिंदी)
विद्यालय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न, रोस्टम पुरस्कार, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, तानसेन पुरस्कार
विशेष योगदान 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी।
नागरिकता भारतीय

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Bismillah Khan, जन्म- 21 मार्च, 1916, बिहार; मृत्यु- 21 अगस्त, 2006) 'भारत रत्न' से सम्मानित प्रख्यात शहनाई वादक थे। सन 1969 में 'एशियाई संगीत सम्मेलन' के 'रोस्टम पुरस्कार' तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक विशिष्ट पहचान दिलवाने में मुख्य योगदान दिया। वर्ष 1947 में देश की आज़ादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर भारत का तिरंगा फहरा रहा था, तब बिस्मिल्लाह ख़ान की शहनाई भी वहाँ आज़ादी का संदेश बाँट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह ख़ान का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी।

जीवन परिचय

बिस्मिल्लाह ख़ाँ का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमरांव नामक स्थान पर हुआ था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ विश्व के सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक माने जाते थे। उनके परदादा शहनाई नवाज़ उस्ताद सालार हुसैन ख़ाँ से शुरू यह परिवार पिछली पाँच पीढ़ियों से शहनाई वादन का प्रतिपादक रहा है। बिस्मिल्लाह ख़ाँ को उनके चाचा अली बक्श 'विलायतु' ने संगीत की शिक्षा दी, जो बनारस के पवित्र विश्वनाथ मन्दिर में अधिकृत शहनाई वादक थे।

जटिल संगीत रचना

बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने जटिल संगीत की रचना, जिसे तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्द्धन करके अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और शीघ्र ही उन्हें इस वाद्य से ऐसे जोड़ा जाने लगा, जैसा किसी अन्य वादक के साथ नहीं हुआ। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में लाल क़िले से अत्यधिक मर्मस्पर्शी शहनाई वादक प्रस्तुत किया।

उल्लेखनीय तथ्य

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने 'बजरी', 'चैती' और 'झूला' जैसी लोकधुनों में बाजे को अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की थी, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत की नज़रों से नहीं देखा जाता था। ख़ाँ साहब की माता जी शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थीं कि- "क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं"। उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब विवाह आदि में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ाँ साहब के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है। उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।[1]

विदेशों में वादन

अफ़ग़ानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ़्रीका, अमेरिका, भूतपूर्व सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और विश्व भर की लगभग सभी राजधानियों में बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। मज़हबी शिया होने के बावज़ूद ख़ाँ साहब विद्या की हिन्दू देवी सरस्वती के परम उपासक थे। 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' और 'शांतिनिकेतन' ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करके सम्मानित किया था। उनकी शहनाई की गूँज आज भी लोगों के कानों में गूँजती है।

शहनाई ही बेगम और मौसिकी

भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ाँ शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। उस्ताद बिस्मिल्ला के नाम के साथ भी दिलचस्प वाकया जुड़ा है। उनका जन्म होने पर उनके दादा रसूल बख्श ख़ाँ ने उनकी तरफ देखते हुए बिस्मिल्ला कहा, इसके बाद उनका नाम बिस्मिल्ला ही रख दिया गया। उनका एक और नाम कमरूद्दीन था। उनके पूर्वज बिहार के भोजपुर रजवाड़े में दरबारी संगीतकार थे। उनके पिता पैंगबर ख़ाँ इसी प्रथा से जुड़ते हुए डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादन का काम करने लगे। छह साल की उम्र में बिस्मिल्ला को बनारस ले जाया गया। यहां उनका संगीत प्रशिक्षण भी शुरू हुआ और गंगा के साथ उनका जुड़ाव भी। ख़ाँ काशी विश्वनाथ मंदिर से जुड़े अपने चाचा अली बख्श ‘विलायतु’ से शहनाई वादन सीखने लगे। ख़ाँ के ऊपर लिखी एक किताब ‘सुर की बारादरी’ में लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखा है, ‘ख़ाँ कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पात कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता।’ किताब में मिश्र ने बनारस से ख़ाँ के जुड़ाव के बारे में भी लिखा है। उन्होंने लिखा है, ‘ख़ाँ कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज करते हुए जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस उनकी शहनाई में टपकेगा ही।’[2]

जुगलबंदी

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर 'शास्त्रीय संगीत' का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। उस्ताद विलायत ख़ाँ के सितार और पण्डित वी. जी. जोग के वायलिन के साथ ख़ाँ साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल. पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि- "सिर्फ़ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है"। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने बिस्मिल्ला ख़ाँ के शहनाई वादन पर आपत्ति की। उन्होंने आँखें बद कीं और उस पर "अल्लाह हू" बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा- "मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा हराम है"। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्ला ख़ाँ के बाजे में पहले वह आकर्षण और वजन नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली कि व्यायाम किए बिना साँस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा। इस पर बिस्मिल्ला ख़ाँ उस्ताद की बात मानकर सुबह-सुबह गंगा के घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है कि वे बरसों पूरे भारत में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।[1]

स्वतंत्रता दिवस पर शहनाई

भारत की आजादी और ख़ाँ की शहनाई का भी खास रिश्ता रहा है। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लालकिले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी। ख़ाँ ने देश और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में अपनी शहनाई की गूंज से लोगों को मोहित किया। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं।[2]

फ़िल्मी सफ़र

बिस्मिल्ला ख़ाँ ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी।[2]

संत संगीतकार

संगीतकारों का मानना है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की बदौलत ही शहनाई को पहचान मिली है और आज उसके विदेशों तक में दीवाने हैं। वो ऐसे इंसान और संगीतकार थे कि उनकी प्रशंसा में संगीतकारों के पास भी शब्दों की कमी नज़र आई। पंडित जसराज हों या हरिप्रसाद चौरसिया सभी का मानना है कि वो एक संत संगीतकार थे।[3]

Blockquote-open.gif वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है। Blockquote-close.gif

पंडित जसराज के श्रीमुख से

पंडित जसराज का मानना है- उनके जैसा महान संगीतकार न पैदा हुआ है और न कभी होगा। मैं सन् 1946 से उनसे मिलता रहा हूं। पहली बार उनका संगीत सुनकर मैं पागल सा हो गया था। मुझे पता नहीं था कि संगीत इतना अच्छा भी हो सकता है। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी, वह मिठास थी जो बहुत ही कम लोगों के संगीत में सुनने को मिलती है। मैं उनके बारे में जितना भी कहूँगा बहुत कम होगा क्योंकि वो एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने कभी दिखावे में यकीन नहीं किया। वो हमेशा सबको अच्छी राह दिखाते थे और बताते थे। वो ऑल इंडिया रेडियो को बहुत मानते थे और हमेशा कहा करते कि मुझे ऑल इंडिया रेडियो ने ही बनाया है। वो एक ऐसे फरिश्ते थे जो धरती पर बार-बार जन्म नहीं लेते हैं और जब जन्म लेते हैं तो अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है।[3]

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हरिप्रसाद चौरसिया के श्रीमुख से

बाँसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया का कहना है- बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब भारत की एक महान विभूति थे, अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते है तो वो हैं बिस्मिल्ला खा़न साहब। बचपन से ही उनको सुनता और देखता आ रहा हूं और उनका आशीर्वाद सदा हमारे साथ रहा। वो हमें दिशा दिखाकर चले गए, लेकिन वो कभी हमसे अलग नहीं हो सकते हैं। उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा। उनके मार्गदर्शन पर अनेक कलाकार चल रहे हैं। शहनाई को उन्होंने एक नई पहचान दी। शास्त्रीय संगीत में उन्होंने शहनाई को जगह दिलाई इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। यह उनकी मेहनत और शहनाई के प्रति समर्पण ही था कि आज शहनाई को भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में सुना और सराहा जा रहा है। उनकी कमी तो हमेशा ही रहेगी। मेरा मानना है कि उनका निधन नहीं हो सकता क्योंकि वो हमारी आत्मा में इस कदर रचे बसे हुए हैं कि उनको अलग करना नामुमकिन है।[3]

सम्मान एवं पुरस्कार

निधन

बिस्मिल्ला ख़ान ने एक संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया था वो या तो लोगों की मदद में ख़र्च हो गया या अपने बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा आया जब वो आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए थे, तब सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन उस्ताद की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई और 21 अगस्त, 2006 को 90 वर्ष की आयु में इनका देहावसान हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 आज बरसी –शहनाई ख़ाँ साहब की (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 मार्च, 2013।
  2. 2.0 2.1 2.2 शहनाई ही बेगम और मौसिकी थी उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ की (हिंदी) आजतक। अभिगमन तिथि: 11 मार्च, 2013।
  3. 3.0 3.1 3.2 त्रिपाठी, वेदिका। 'संत संगीतकार थे बिस्मिल्ला ख़ान' (हिंदी) बीबीसी हिंदी। अभिगमन तिथि: 11 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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