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==जन्म तथा शिक्षा==
 
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चन्द्रभानु गुप्त का का जन्म 14 जुलाई, 1902 को [[उत्तर प्रदेश]] में [[अलीगढ़ ज़िला|अलीगढ़ ज़िले]] के 'बिजौली' नामक स्थान पर हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम हीरालाल था। चन्द्रभानु जी के पिता को अपने समाज में बहुत ही मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। चन्द्रभानु गुप्त के चरित्र निर्माण में '[[आर्य समाज]]' का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और भावी जीवन में आर्य समाज के सिद्धान्त उनके मार्ग दर्शक रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा [[लखीमपुर खीरी ज़िला|लखीमपुर खीरी]] में हुई। बाद में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए [[लखनऊ]] चले आए। यहाँ '[[लखनऊ विश्वविद्यालय]]' से एम.ए. और एलएल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद नवाबों का शहर लखनऊ ही उनका कार्यक्षेत्र बन गया।
 
चन्द्रभानु गुप्त का का जन्म 14 जुलाई, 1902 को [[उत्तर प्रदेश]] में [[अलीगढ़ ज़िला|अलीगढ़ ज़िले]] के 'बिजौली' नामक स्थान पर हुआ था। उनके [[पिता]] का नाम हीरालाल था। चन्द्रभानु जी के पिता को अपने समाज में बहुत ही मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। चन्द्रभानु गुप्त के चरित्र निर्माण में '[[आर्य समाज]]' का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और भावी जीवन में आर्य समाज के सिद्धान्त उनके मार्ग दर्शक रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा [[लखीमपुर खीरी ज़िला|लखीमपुर खीरी]] में हुई। बाद में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए [[लखनऊ]] चले आए। यहाँ '[[लखनऊ विश्वविद्यालय]]' से एम.ए. और एलएल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद नवाबों का शहर लखनऊ ही उनका कार्यक्षेत्र बन गया।
==राजनीति में प्रवेश==
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====राजनीति में प्रवेश====
शिक्षा पूर्ण करने के बाद गुप्त जी ने लखनऊ में वकालत आरम्भ की। '[[काकोरी काण्ड]]' के क्रान्तिकारियों के बचाव पक्ष के प्रमुख वकीलों में वे भी थे। शीघ्र ही [[कांग्रेस]] संगठन में भी उनका महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया। चन्द्रभानु गुप्त वर्ष [[1926]] से ही वे 'उत्तर प्रदेश कांग्रेस' और 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य बन गए। उत्तर प्रदेश में वे कोषाध्यक्ष, उपाध्यक्ष और संगठन के अध्यक्ष भी रहे। स्वतंत्रता के प्रत्येक आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया और जेल की सज़ाएँ भोगीं। [[1937]] के निर्वाचन में वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए और बीच के कुछ समय को छोड़कर बराबर निर्वाचन में सफल हुए।
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शिक्षा पूर्ण करने के बाद गुप्त जी ने लखनऊ में वकालत आरम्भ की। लगभग पाँच फुट और चार इंच के कद वाले वाले चन्द्रभानु, जो कि एक पढ़ाकू युवक थे, उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन वह [[महात्मा गाँधी]] के विभिन्न आन्दोलनों से प्रेरित जरूर थे। [[1916]] में घर वालों की मर्जी के बिना पाँच [[रुपया|रुपये]] जेब में डालकर वे [[लखनऊ]] में हुए [[कांग्रेस]] के एक जलसे में हिस्सा लेने पहुँच गए थे। उस समय [[लोकमान्य तिलक]] का जुलूस कैसरबाग़ होते हुए चारबाग़ की तरफ़ आ रहा था। बांसमंडी चौराहे पर सी.बी. गुप्त को लोकमान्य तिलक के पैर छूने का मौका मिला। पैर छूते उन्हें न जाने कैसी प्रेरणा मिली कि उनके कदम सक्रिय राजनीति की ओर बढ़ चले। फिर तो राजनीति और समाज सेवा में ऐसी पैठ बनाई कि [[1960]] के [[दिसम्बर]] में [[उत्तर प्रदेश]] के [[मुख्यमंत्री]] बन गए।<ref name="aa">{{cite web |url=http://www.livehindustan.com/news/up/winner/article1-story-345-345-209161.html|title=अब कौन करता है सी.बी. गुप्त जैसे काम|accessmonthday=09 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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==प्रसिद्धि==
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अपने जुझारूपन और खरी बात बोलने के कारण सी.बी. गुप्त युवा राजनीति में तेजी से उभरे। वर्ष [[1919]] में '[[रौलट एक्ट]]' के विरोध में प्रदर्शन करने के बाद कांग्रेसजन चन्द्रभानु जी की क्षमताओं के कायल हो गए। '[[काकोरी कांड|काकोरी रेल कांड]]' के क्रांतिकारियों के बचाव पक्ष में वकालत करने के बाद तो वह सुर्खियों में आ गए। कांग्रेस को एक ऐसे ही तेजतर्रार युवा की जरूरत थी। चन्द्रभानु गुप्त को [[1928]] में लखनऊ शहर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। [[कानपुर]] में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में लखनऊ से डेलीगेट भी चुने गए। पूरे राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने सक्रिय सिपाही की भूमिका निभाई।
 
==मुख्यमंत्री का पद==
 
==मुख्यमंत्री का पद==
[[भारत]] की स्वतंत्रता के बाद [[1948]] में बनी पहली प्रदेश सरकार में चन्द्रभानु गुप्त [[गोविन्द वल्लभ पन्त]] के मंत्रीमण्डल में सचिव के रूप में सम्मिलित हुए। फिर वर्ष [[1948]] से [[1957]] तक उन्होंने अनेक प्रमुख विभागों के मंत्री के रूप में काम किया। चन्द्रभानु जी [[1960]] से [[1963]] तक [[उत्तर प्रदेश]] के [[मुख्यमंत्री]] रहे। बाद में 'कामराज योजना' में उन्होंने यह पद त्याग दिया, किन्तु उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका प्रभाव बना रहा। [[1967]] के आम चुनाव में विजयी होने के बाद वे पुन: मुख्यमंत्री बने। लेकिन शीघ्र ही उनके कुछ कांग्रेसी सदस्यों ने [[चौधरी चरण सिंह]] के नेतृत्व में दल बदलकर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने में मदद की। बदली परिस्थितियों में चन्द्रभानु गुप्त विरोधी (कांग्रेस) दल के नेता बने।
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[[भारत]] की स्वतंत्रता के बाद [[1948]] में बनी पहली प्रदेश सरकार में चन्द्रभानु गुप्त [[गोविन्द वल्लभ पन्त]] के मंत्रीमण्डल में सचिव के रूप में सम्मिलित हुए। फिर वर्ष [[1948]] से [[1957]] तक उन्होंने अनेक प्रमुख विभागों के मंत्री के रूप में काम किया। चन्द्रभानु जी [[1960]] से [[1963]] तक [[उत्तर प्रदेश]] के [[मुख्यमंत्री]] रहे। बाद में 'कामराज योजना' में उन्होंने यह पद त्याग दिया, किन्तु उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका प्रभाव बना रहा। [[1967]] के आम चुनाव में विजयी होने के बाद वे पुन: मुख्यमंत्री बने।
==कठिन निर्णय==
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अधिकांश नेता नौकरशाही को अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं करते, लेकिन कुछ ऐसे भी नेता रहे, जिन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था। [[उत्तर प्रदेश]] के मुख्यमंत्री सी.बी. गुप्त भी एक ऐसे ही नेता थे। जब 1960 में वे मुख्यमंत्री बने तो राजनीति से प्रेरित नौकरशाही और राज्य का खाली ख़ज़ाना उनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी। उन्होंने आला अधिकारियों को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि- "मेरा विश्वास है कि प्रशासन तंत्र को अच्छे ढंग से चलाने के लिए दूसरों के हक लांघकर अयोग्य व्यक्तियों की प्रोन्नति नहीं की जानी चाहिए। यदि एक बार प्रशासन में पक्षपात का रोग लग गया तो वह धीरे-धीरे बढ़कर पूरे तंत्र को ठप कर देता है। प्रशासन तंत्र को राजनीति के कुचक्रों से दूर रहना चाहिए।"<ref name="aa"/> लेकिन शीघ्र ही उनके कुछ कांग्रेसी सदस्यों ने [[चौधरी चरण सिंह]] के नेतृत्व में दल बदलकर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने में मदद की। बदली परिस्थितियों में चन्द्रभानु गुप्त विरोधी (कांग्रेस) दल के नेता बने।
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====कठिन निर्णय====
 
वर्ष [[1969]] ई. में सम्पूर्ण देश के स्तर पर [[कांग्रेस]] विभाजित हो गई। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में [[इंदिरा गांधी]] के सक्रिय सहयोग और कांग्रेस के एक वर्ग के समर्थन से [[वी. वी. गिरि]] देश के [[राष्ट्रपति]] चुने गए। यह गुप्त जी के लिए बड़े कठिन निर्णय की घड़ी थी। वे सदा से कांग्रेस के संगठन से जुड़े रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनके अनेक साथी विभाजन के बाद भी पुरानी संस्था में ही अडिग हैं, तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी की नई कांग्रेस में न जाकर अपने पुराने समर्थकों के साथ रहना ही उचित समझा।
 
वर्ष [[1969]] ई. में सम्पूर्ण देश के स्तर पर [[कांग्रेस]] विभाजित हो गई। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में [[इंदिरा गांधी]] के सक्रिय सहयोग और कांग्रेस के एक वर्ग के समर्थन से [[वी. वी. गिरि]] देश के [[राष्ट्रपति]] चुने गए। यह गुप्त जी के लिए बड़े कठिन निर्णय की घड़ी थी। वे सदा से कांग्रेस के संगठन से जुड़े रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनके अनेक साथी विभाजन के बाद भी पुरानी संस्था में ही अडिग हैं, तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी की नई कांग्रेस में न जाकर अपने पुराने समर्थकों के साथ रहना ही उचित समझा।
 
==समाज सेवा==
 
==समाज सेवा==

12:38, 9 जून 2013 का अवतरण

चन्द्रभानु गुप्त (जन्म- 14 जुलाई, 1902 ई., अलीगढ़, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 11 मार्च, 1980 ई.) भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन पर 'आर्य समाज' का बहुत गहरा प्रभाव था। वर्ष 1926 से ही सी.बी. गुप्त 'उत्तर प्रदेश कांग्रेस' और 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य बन गए थे। कई विभागों में मंत्री रहने के बाद चन्द्रभानु जी वर्ष 1960 से 1963 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में भी अनेक काम किए। लखनऊ और गोरखपुर जैसे शहरों को आधुनिक व विकासशील बनाने की पहल करने वाले सी.बी गुप्त को लोग मजबूत प्रशासन, जुझारू नेतृत्व व बड़प्पन के लिए आज भी याद करते हैं।

जन्म तथा शिक्षा

चन्द्रभानु गुप्त का का जन्म 14 जुलाई, 1902 को उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ ज़िले के 'बिजौली' नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम हीरालाल था। चन्द्रभानु जी के पिता को अपने समाज में बहुत ही मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। चन्द्रभानु गुप्त के चरित्र निर्माण में 'आर्य समाज' का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और भावी जीवन में आर्य समाज के सिद्धान्त उनके मार्ग दर्शक रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा लखीमपुर खीरी में हुई। बाद में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लखनऊ चले आए। यहाँ 'लखनऊ विश्वविद्यालय' से एम.ए. और एलएल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद नवाबों का शहर लखनऊ ही उनका कार्यक्षेत्र बन गया।

राजनीति में प्रवेश

शिक्षा पूर्ण करने के बाद गुप्त जी ने लखनऊ में वकालत आरम्भ की। लगभग पाँच फुट और चार इंच के कद वाले वाले चन्द्रभानु, जो कि एक पढ़ाकू युवक थे, उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन वह महात्मा गाँधी के विभिन्न आन्दोलनों से प्रेरित जरूर थे। 1916 में घर वालों की मर्जी के बिना पाँच रुपये जेब में डालकर वे लखनऊ में हुए कांग्रेस के एक जलसे में हिस्सा लेने पहुँच गए थे। उस समय लोकमान्य तिलक का जुलूस कैसरबाग़ होते हुए चारबाग़ की तरफ़ आ रहा था। बांसमंडी चौराहे पर सी.बी. गुप्त को लोकमान्य तिलक के पैर छूने का मौका मिला। पैर छूते उन्हें न जाने कैसी प्रेरणा मिली कि उनके कदम सक्रिय राजनीति की ओर बढ़ चले। फिर तो राजनीति और समाज सेवा में ऐसी पैठ बनाई कि 1960 के दिसम्बर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।[1]

प्रसिद्धि

अपने जुझारूपन और खरी बात बोलने के कारण सी.बी. गुप्त युवा राजनीति में तेजी से उभरे। वर्ष 1919 में 'रौलट एक्ट' के विरोध में प्रदर्शन करने के बाद कांग्रेसजन चन्द्रभानु जी की क्षमताओं के कायल हो गए। 'काकोरी रेल कांड' के क्रांतिकारियों के बचाव पक्ष में वकालत करने के बाद तो वह सुर्खियों में आ गए। कांग्रेस को एक ऐसे ही तेजतर्रार युवा की जरूरत थी। चन्द्रभानु गुप्त को 1928 में लखनऊ शहर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। कानपुर में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में लखनऊ से डेलीगेट भी चुने गए। पूरे राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने सक्रिय सिपाही की भूमिका निभाई।

मुख्यमंत्री का पद

भारत की स्वतंत्रता के बाद 1948 में बनी पहली प्रदेश सरकार में चन्द्रभानु गुप्त गोविन्द वल्लभ पन्त के मंत्रीमण्डल में सचिव के रूप में सम्मिलित हुए। फिर वर्ष 1948 से 1957 तक उन्होंने अनेक प्रमुख विभागों के मंत्री के रूप में काम किया। चन्द्रभानु जी 1960 से 1963 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। बाद में 'कामराज योजना' में उन्होंने यह पद त्याग दिया, किन्तु उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका प्रभाव बना रहा। 1967 के आम चुनाव में विजयी होने के बाद वे पुन: मुख्यमंत्री बने।

अधिकांश नेता नौकरशाही को अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं करते, लेकिन कुछ ऐसे भी नेता रहे, जिन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सी.बी. गुप्त भी एक ऐसे ही नेता थे। जब 1960 में वे मुख्यमंत्री बने तो राजनीति से प्रेरित नौकरशाही और राज्य का खाली ख़ज़ाना उनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी। उन्होंने आला अधिकारियों को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि- "मेरा विश्वास है कि प्रशासन तंत्र को अच्छे ढंग से चलाने के लिए दूसरों के हक लांघकर अयोग्य व्यक्तियों की प्रोन्नति नहीं की जानी चाहिए। यदि एक बार प्रशासन में पक्षपात का रोग लग गया तो वह धीरे-धीरे बढ़कर पूरे तंत्र को ठप कर देता है। प्रशासन तंत्र को राजनीति के कुचक्रों से दूर रहना चाहिए।"[1] लेकिन शीघ्र ही उनके कुछ कांग्रेसी सदस्यों ने चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में दल बदलकर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने में मदद की। बदली परिस्थितियों में चन्द्रभानु गुप्त विरोधी (कांग्रेस) दल के नेता बने।

कठिन निर्णय

वर्ष 1969 ई. में सम्पूर्ण देश के स्तर पर कांग्रेस विभाजित हो गई। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में इंदिरा गांधी के सक्रिय सहयोग और कांग्रेस के एक वर्ग के समर्थन से वी. वी. गिरि देश के राष्ट्रपति चुने गए। यह गुप्त जी के लिए बड़े कठिन निर्णय की घड़ी थी। वे सदा से कांग्रेस के संगठन से जुड़े रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनके अनेक साथी विभाजन के बाद भी पुरानी संस्था में ही अडिग हैं, तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी की नई कांग्रेस में न जाकर अपने पुराने समर्थकों के साथ रहना ही उचित समझा।

समाज सेवा

पुराने साथियों के प्रति भले ही चन्द्रभानु गुप्त के राजनीतिज्ञ विचार में भिन्नता रही हो, गुप्त जी ने सदा मित्रों का भाव रखा और आवश्यकतानुसार उनकी सहायता करते रहे। चन्द्रभानु गुप्त ने समाज सेवा के क्षेत्र में भी अनेक कार्य किए। उनके द्वारा स्थापित लखनऊ की मुख्य संस्थाएँ थी-

  1. मोतीलाल मेमोरियल सोसाइटी
  2. आचार्य नरेन्द्र देव स्मृति भवन
  3. बाल विद्या मन्दिर
  4. बाल संग्रहालय
  5. रवीन्द्रालय

निधन

11 मार्च, 1980 ई. में चन्द्रभानु गुप्त जी का देहान्त हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 अब कौन करता है सी.बी. गुप्त जैसे काम (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 09 जून, 2013।

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