बहादुर शाह प्रथम

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बहादुर शाह प्रथम
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पूरा नाम 'साहिब-ए-क़ुरान मुअज्ज़म शाह आलमगीर सानी अबु नासिर सैयद कुतुबबुद्दीन अबुल मुज़फ़्फ़र मुहम्मद मुअज्ज़म शाह आलम बहादुर शाह प्रथम पादशाह गाज़ी (खुल्द मंजिल)
अन्य नाम 'शाहआलम प्रथम' अथवा 'आलमशाह प्रथम'
जन्म 14 अक्तूबर, सन 1643 ई.
जन्म भूमि बुरहानपुर, भारत
मृत्यु तिथि 27 फ़रवरी, सन 1712 ई.
मृत्यु स्थान लाहौर
पिता/माता औरंगज़ेब, बाई बेगम
पति/पत्नी निज़ाम बाई और आठ अन्य
संतान आठ पुत्र और एक पुत्री
उपाधि 'शहज़ादा मुअज्ज़म'
शासन 22 मार्च, सन 1707 ई. से 27 फ़रवरी, सन 1712 ई. तक
मक़बरा मोती मस्जिद, दिल्ली

बहादुर शाह प्रथम का जन्म 14 अक्तूबर, सन 1643 ई. में बुरहानपुर, भारत में हुआ था। बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुग़ल बादशाह (1707-1712 ई.) था। 'शहज़ादा मुअज्ज़म' कहलाने वाले बहादुरशाह, बादशाह औरंगज़ेब के दूसरे पुत्र थे। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहज़ादा मुअज्ज़म ही औरंगज़ेब के संभावी उत्तराधिकारी थे। बहादुर शाह प्रथम को 'शाहआलम प्रथम' या 'आलमशाह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। बादशाह बहादुर शाह प्रथम के चार पुत्र थे- जहाँदारशाह, अजीमुश्शान, रफ़ीउश्शान और जहानशाह

क़ाबुल का सूबेदार

बहादुर शाह प्रथम को सन 1663 ई. में दक्षिण के दक्कन पठार क्षेत्र और मध्य भारत में पिता का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। सन1683-1684 ई. में उन्होंने दक्षिण बंबई (वर्तमान मुंबई) गोवा के पुर्तग़ाली इलाक़ों में मराठों के ख़िलाफ़ सेना का नेतृत्व किया, लेकिन पुर्तग़ालियों की सहायता न मिलने की स्थिति में उन्हें पीछे हटना पड़ा। आठ वर्ष तक तंग किए जाने के बाद उन्हें उनके पिता ने 1699 में क़ाबुल (वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान) का सूबेदार नियुक्त किया।

उत्तराधिकार का युद्ध

औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उसके 63 वर्षीय पुत्र 'मुअज्ज़म' (शाहआलम प्रथम) ने लाहौर के उत्तर में स्थित 'शाहदौला' नामक पुल पर मई, 1707 में 'बहादुर शाह' के नाम से अपने को सम्राट घोषित किया। बूँदी के 'बुधसिंह हाड़ा' तथा 'अम्बर' के विजय कछवाहा को उसने पहले से ही अपने ओर आकर्षित कर लिया था। उनके माध्यम से उसे बड़ी संख्या में राजपूतों का समर्थन प्राप्त हो गया। उत्तराधिकार को लेकर बहादुरशाह प्रथम एवं आमजशाह में सामूगढ़ के समीप 'जाजऊ' नामक स्थान पर 18 जून, 1708 को युद्ध हुआ, जिसमें आजमशाह तथा उसके दो बेटे 'बीदर बख़्त' तथा 'वलाजाह' मारे गये। बहादुरशाह प्रथम को अपने छोटे भाई 'कामबख़्श' से भी मुग़ल सिंहासन के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी। कामबख़्श ने 13 जनवरी, 1709 को हैदराबाद के नजदीक बहादुशाह प्रथम के विरुद्ध युद्ध किया। युद्ध में पराजित होने के उपरान्त कामबख़्श की मृत्यु हो गई।

सबसे वृद्ध मुग़ल शासक

अपनी विजय के बाद बहादुर शाह प्रथम ने अपने समर्थकों को नई पदवियाँ तथा ऊचें दर्जे प्रदान किए। मुनीम ख़ाँ को वज़ीर नियुक्त किया गया। औरंगज़ेब के वज़ीर, असद ख़ाँ को 'वकील-ए-मुतलक' का पद दिया था, तथा उसके बेटे जुल्फ़िकार ख़ाँ को मीर बख़्शी बनाया गया। बहादुरशाह प्रथम गद्दी पर बैठने वाला सबसे वृद्ध मुग़ल शासक था। जब वह गद्दी पर बैठा, तो उस समय उसकी उम्र 63 वर्ष थी। वह अत्यन्त उदार, आलसी तथा उदासीन व्यक्ति था। इतिहासकार खफी ख़ाँ ने कहा है कि, बादशाह राजकीय कार्यों में इतना अधिक लापरवाह था, कि लोग उसे "शाहे बेख़बर" कहने लगे थे।

  • बहादुर शाह प्रथम के शासन काल में दरबार में षड्यन्त्र बढ़ने लगा। बहादु शाह प्रथम शिया था, और उस कारण दरबार में दो दल विकसित हो गए थे-(1.) ईरानी दल (2.) तुरानी दल। ईरानी दल 'शिया मत' को मानने वाले थे, जिसमें असद ख़ाँ तथा उसके बेटे जुल्फिकार ख़ाँ जैसे सरदार थे। तुरानी दल 'सुन्नी मत' के समर्थक थे, जिसमें 'चिनकिलिच ख़ाँ तथा फ़िरोज़ ग़ाज़ीउद्दीन जंग जैसे लोग थे।

राजपूतों से सन्धि

बहादु शाह प्रथम ने उत्तराधिकार के युद्ध के समाप्त होने के बाद सर्वप्रथम राजपूताना की ओर रुख किया। उसने मारवाड़ के राजा अजीत सिंह को पराजत कर, उसे 3500 का मनसब एवं महाराज की उपाधि प्रदान की, परन्तु बहादुर शाह प्रथम के दक्षिण जाने पर अजीत सिंह, दुर्गादास एवं जयसिंह कछवाहा ने मेवाड़ के महाराज अमरजीत सिंह के नेतृत्व में अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया और राजपूताना संघ का गठन किया। बहादुर शाह प्रथम ने इन राजाओं से संघर्ष करने से बेहतर सन्धि करना उचित समझा और उसने इन शासकों को मान्यता दे दी।

सिक्खों से संघर्ष

गुरु गोविन्द सिंह ने उत्तराधिकार के युद्ध में बहादुर शाह प्रथम का साथ दिया था। बहादुर शाह प्रथम ने सिक्खों के प्रति नरम रूख अपनाया। उसने गुरु गोविन्द सिंह के साथ एक संधि की तथा उन्हें 5000 जात तथा 5000 सवार का मनसब प्रदान कर सिक्खों के साथ मेल-मिलाप करने का प्रयास किया। गुरु गोविन्द सिंह ने बहादुर शाह प्रथम के साथ दक्कन जाकर युद्ध में भाग लिया। किन्तु पंजाब में 1708 ई. में गुरु गोविन्द सिंह की मुत्यु के बाद सिक्खों ने बन्दा सिंह के नेतृत्व में मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसने मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए पंजाब के विभिन्न हिस्सों से बड़ी संख्या में सिक्खों को इकट्ठा किया तथा कैथल, समाना, शाहबाद, अम्बाला, क्यूरी तथा सधौरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। उसकी सबसे बड़ी विजय सरहिन्द के गर्वनर नजीर ख़ाँ के विरुद्ध थी, जिसे उसने हराकर मार डाला। उसके बारे में कहा जाता है कि, उसमें गुरु गोविन्द सिंह की आत्मा का निवास था। उसने स्वयं को 'सच्चा बादशाह' घोषित किया, अपने टकसाल चलायीं और एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया। बन्दा ने सरहिन्द, सोनीपत, सधौरा, एवं उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर खूब लूटपाट की। बहादुर शाह प्रथम ने सिख नेता बन्दा को दण्ड देने के लिए 26 जून, 1710 को सधौरा में घेरा डाला। यहाँ से बन्दा भागकर 'लोहगढ़' के क़िले में आ गया। बहादुरशाह ने लोहगढ़ को घेरकर सिखों से कड़ा संघर्ष करते हुए, अन्ततः दुर्ग पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु क़ब्ज़े के पूर्व ही बन्दा फरार हो गया। 1711 ई. में मुग़लों ने पुनः सरहिन्द पर अधिकर कर लिया। लोहगढ़ का क़िला गुरु गोविन्द सिंह ने अम्बाला के उत्तर-पूर्व में हिमालय की तराई में बनाया था। बहादुर शाह प्रथम ने बुन्देला सरदार 'छत्रसाल' से मेल-मिलाप कर लिया। छत्रसाल एक निष्ठावान सामन्त बना रहा। बादशाह ने जाट सरदार चूड़ामन से भी दोस्ती कर ली। चूड़ामन ने बन्दा बहादुर के ख़िलाफ़ अभियान में बादशाह का साथ दिया।

मराठों के प्रति नीति

बहादुर शाह प्रथम को 'शाहे बेख़बर' कहा जाता था। राजपूतों की भांति मराठों के प्रति भी बहादुर शाह प्रथम की नीति अस्थिर रही। बहादुर शाह प्रथम की क़ैद से मुक्त शाहू ने आरंभ में तो मुग़ल आधिपत्य स्वीकार कर लिया, परन्तु जब बहादुर शाह प्रथम ने उसके 'चौथ' और 'सरदेशमुखी' वसूल करने के अधिकार को स्पष्टतया स्वीकार नहीं किया, तब उसके सरदारों ने मुग़ल सीमाओं पर आक्रमण करके मुग़लों के अधीन शासकों द्वारा मुग़ल सीमाओं पर भी आक्रमण करने की ग़लत परंपरा की नींव डाली। इस प्रकार मुग़लों की समस्या को बहादुर शाह प्रथम ने और गम्भीर बना दिया। बहादुर शाह प्रथम ने मीरबख़्शी के पद पर आसीन जुल्फिकार ख़ाँ को दक्कन की सूबेदारी प्रदान कर एक ही अमीर को एक साथ दो महत्वपूर्ण पद प्रदान करने की भूल की। उसके समय में ही वज़ीर के पद के सम्मान में वृद्धि हुई, जिसके कारण वज़ीर का पद प्राप्त करने की प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी।

बहादुर शाह की मृत्यु

बहादुर शाह प्रथम के दरबार में 1711 में एक डच प्रतिनिधि शिष्टमण्डल 'जेसुआ केटेलार' के नेतृत्व में गया। इस शिष्टमण्डल का दरबार में स्वागत किया गया। इस स्वागत में एक पुर्तग़ाली स्त्री 'जुलियानी' की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उसकी इस भूमिका के लिए उसे 'बीबी फिदवा' की उपाधि दी गयी। 26 फ़रवरी, 1712 को बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात् उसके चारों पुत्रों, जहाँदारशाह, अजीमुश्शान, रफ़ीउश्शान और जहानशाह में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। फलतः बहादुरशाह का शव एक मास तक दफनाया नहीं जा सका।


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