दान केलिकौमुदी

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यह नाटक एक ही अंक में समाप्त किया गया है, इसलिए इसे 'भाणिका' कहते हैं। इसके अन्त में रूप गोस्वामी ने लिखा है कि उन्होंने किसी सुहृद के अभिप्राय से इसकी रचना की हैं। कहा जाता हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी ललित-माधव पढ़कर उसमें वर्णित राधा की विरह-वेदना से इतना मर्माहता हुए थे कि उनके प्राणों पर आ बीती थी। उनका अन्तर्दाह प्रशमन करने के लिए ही रूप गोस्वामी ने हास-परिहासपूर्ण इस भाणिका की रचना कीं इसे पढ़कर वे स्वस्थ हुए।

भाणिका की आख्यान-कल्पना इस प्रकार है। राधा गुरुजनों के आदेश से सखियों सहित गोविन्दकुण्ड के यज्ञस्थल पर घृत विक्रय करने जा रही हैं। कृष्ण सखाओं समेत मानस गंगा के तट पर उपस्थित होकर उनका पथ रोक लेते हैं और उनके दान व शुल्क का दावा व्यक्त करते हैं। राधा और उनकी सखियाँ उनका दावा स्वीकार नहीं करतीं वाद-विवाद शुरू होता है। अनेक हास्य और मधुर रस पूर्ण तर्क-वितर्क के पश्चात पौर्णमासी की मध्यस्थता से वाद-विवाद समाप्त होता है। भाणिका की रचना सन् 1549 में हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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