हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति -डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर

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लेखक- डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर

सामान्यतः संस्कृति के संबन्ध में जब बात की जाती है तब एक गौरव का भाव हमारे मन में उदित होता है। इस गौरव के बोध में जातीय अस्मिता की भावना पीठिका के रूप में सक्रिय होने के कारण एक तरह की विशुद्ध सार्थकता एवं संतोष की तीव्र अनुभूति हम करते हैं। चूँकि भारतीय संस्कृति हजारों वर्ष पुरानी है और काल के प्रवाह में जब अनेक समृद्ध संस्कृतियाँ भी विनष्ट हो चुकी हैं और भारतीय संस्कृति टिकी हुई तब यह गौरवबोध अधिक युक्तियुक्त भी लगने लगता है और यह धारण जाने अनजाने हमें सांस्कृतिक परिवेश, ऐतिहासिक विकासक्रम, सांस्कृतिक जिजीविषा और टिकाऊपन की स्थायी विशेषताएँ कालप्रवाह में विचलित सांस्कृतिक वैशिष्ट्य, चुनौतियों का स्वरूप, आंतरिक तनाव और अंतविरोध आदि के बारे में सोचने से विमुख करती है। वैसे भी संस्कृति से एक जीवंत और दीर्घ परंपरा का बोध जुड़ा हुआ है और इस कारण सामान्यतः हम अतीत से प्राप्त संस्कारों के विचार में अधिक उलझ जातें हैं और सांस्कृतिक प्रक्रिया के वर्तमान स्वरूप को और उसके विभिन्न स्तरों परचल रहे संघर्ष को कुछ नजरअंदाज़करते हैं। वस्तुतः अतीत के सांस्कृतिक स्वरूप को पर्याप्त गहराई से देखा और सोचा गया है - आवश्यकता वर्तमान संदर्भ में सांस्कृतिक स्वरूप को देखने की है। यद्यपि विषय संस्कृति विश्लेषण न होकर हिन्दी साहित्य से संदर्भित करता है कि फिर भी सांस्कृतिक विचार का कुल परिदृश्य देखना आवश्यक जान पड़ता है।
इस में सामान्यतः सांस्कृतिक विषयों पर चिंतन करने वाले मनीषी एकमत हैं कि भारतीय संस्कृति एक सामासिक संस्कृति है और उसने विभिन्न संस्कृतियों को पचाने में और अपने स्वभाव से समन्वित करने में अद्भुत प्रतिभा और लचीनेपन का परिचय दिया है।

आर्यावर्त में जिन वैदिक-अवैदिक सभ्यताओं और संस्कृतियों का संपर्क संघर्ष समन्वय हुआ उसने लंबे अर्से तक भारतीय मानस के आचरण, व्यवहार, जीवन के आदर्शों और मूल्यों को प्रेरित किया तथा उसे दिशा और आकार दिया। ऐसी संस्कृतिक का प्रवहमान किया जो भौतिक सुविधाओं को महत्व देती हुई भी आध्यात्मिक संस्कृति को प्रवहमान कियाजो भौतिक सुविधाओं को महत्व देती हुई भी आध्यात्मिक संस्कृति से अनुशासित होती रही। यह आध्यात्मिक मूल्यों को चरम महत्व विभिन्न सामाजिक और वैयक्तिक आचरणों के आदर्शों में देखा जा सकता है। अधिकार या हक से अधिक कर्तव्य की वरीयता, परिवार, जाति और समाज के प्रति व्यक्ति की उत्संगशील उन्मुखता, बड़ों के प्रति आदर अर्थात अनुभव और ज्ञान के सम्मुख विनम्रता, छोटों ओर समवयस्कों के प्रति वात्सल्यमय प्रेम, भाव, परिवार जाति और समाज के माध्यम से सामूहिक जीवनाभिव्यक्ति, अर्थ और काम जैसे दो महत्वपूर्ण पुरुषार्थों की स्वीकृति और गृहस्थधर्म के रूप में उनकी संतुलित परिपूर्तिख् पुरुषार्थों का धर्म के द्वारा नियंत्रण और मोक्ष की ओर उन्मुखता का चरम लक्ष्य (जीवन की ऐषणाओं को त्याग नहीं कर नहीं उनकी संयत परितृप्ति के माध्यम से उनके ऊपर उठने की, निरंतर जीवन में जड़ स्थितियों को अतिक्रमित करने की एवं गत्यात्मकता की बात इसमें अंतर्निहित है।) ये इसी आध्यात्मिक वरीयता के तत्व हैं। भारतीय संस्कृति का यह समन्वित रूप संस्कृत भाषा के माध्यम से रामायण, महाभारत, गीता, कालिदास, भवभूति, भास के काव्यों और नाटकों के माध्यम से बार बार व्यक्त हुआ है। गेटे ने ‘शांकुतल’ को पढ़कर उल्लसित मनोभाव में कहा था कि उसमें स्वर्ग और धरा का उदात्त सम्मिलिन है - यह समूची भारतीय संस्कृति और साहित्य के संबंध में कहा जा सकता है। भारतीय पुराचीन संस्कृति का एक समादेशक सामाजिक रूप वहाँ मिलता है जहाँ नाट्य को नाट्यवेद कहकर वह सब के लिए -शूद्रो के लिए भी खुला रखा गया है। असल में नाट्यवेद ही नहीं एक प्रकार से जीवन की भावनात्मक अभिव्यक्ति के महत्वपूर्ण स्रोत ही खुले थे। ज्ञान के क्षेत्र में कठोर वर्ण व्यवस्था का बंधन शायद इसलिए आवश्यक हो गया कि वह केवल उच्चारण और स्मरण के आधारों पर ही स्थित थी जिसके लिए कठोर अनुशासन, परंपरा की सशक्त पृष्ठभूमि और निमर्म अभ्यास की आवश्यकता थी। आगे चलकर जैसा कि हर अच्छे बंधन का विकासमान रूप खत्म होकर सड़ियन रूप ही बच जाता है, इसी प्रकार इन बंधनों का भी हुआ।

साहित्य सत्य के साथ शिव और सौंदर्य का भी समन्वय करता है। हमारे संस्कृत साहित्य में उपर्युक्त सांस्कृतिक स्थिति का परिमार्जन और सौष्ठवयुक्त रूप संस्कृत भाषा और प्राकृत भाषाओं के माध्यम से प्रकट हुआ। यह धरोहर के रूप में हिन्दी साहित्य को भी प्राप्त हुआ। हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल का स्वरूप देखा जाए तो सांस्कृतिक दृष्टि से आमूलचूल परिवर्तन दृष्टिगत नहीं होता। यह आक्रमण इस्लाम धर्म को अपने साथ लेता आया। इससे हमारी संस्कृति में कुछ तबदीलियाँ अवश्यक हुई। मध्ययुग में इस्लाम के राजनैतिक आक्रमण के सामने हमारी भौतिक सभ्यता नहीं टिक पाई जिसके लिए प्रदेश की प्राकृतिक स्थितियाँ भी आंशिक रूप में जिम्मेदार हैं जो मनुष्य को संघर्षशील कम और शांतिप्रिय अधिक बना देती है। साथ साथ आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति लगाव ने भौतिक शक्ति के प्रति कुछ अनास्था भी उत्पन्न कर दी थी। आपसी फूट और वैयक्तिक संकीर्ण महत्वाकांक्षा भी भारतीयों वीरों की हार का कारण बनी। हमारी सामासिक संस्कृतिक पर इससे कुछ अच्छे और कुछ बरे प्रभाव भी पडे। ध्यान में रखने की बात है कि हिन्दी का साहित्य भी प्राकृत अपभ्रंश का दामन छोड़कर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व इसी समय ग्रहण कर रहा था।

इस्लाम के आक्रमण से निश्चित रूप से भारतीय बहुदेववादी आस्था पर आघात हुआ और इस्लाम की ‘अल्ला हो अकबर’ की एकेश्वरवाद की घोषणा ने हमें सभी देवी देवताओं को कहीं न कहीं एक भगवान से जोड़ने के लिए बाध्य किया। एकेश्वरवाद, ईश्वर के निर्गुण सगुण रूपों के स्वीकार के लिए भारतीय आध्यात्मिक चिंतनप्रणाली में स्रोत नहीं था ऐसी बात नहीं है परंतु तुलसी जैसे समन्वयवादी महाकवि में यह प्रयत्न अधिक सजग रूप में दिखाई पड़ता है। ऐसा लगता है कि सभी देवताओं को एक भगवान के रूप में देखने का विशेष प्रयास किया जा रहा है। आक्रामक इस्लाम सभ्यता ने निर्गुण के प्रति अधिक उन्मुख किया हो तो आश्चर्य नहीं। उधर भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पहलुओं को आत्मसात करने का इस्लाम का प्रयास भी चल रहा था। आक्रमण के कारण अपनी जात विरादरी में समा जाने का हिन्दुओं को स्वभाव चरमोत्कर्ष पर था और उसको विरोध नाथपंथ से लेकर सिख धर्म तक पाया जाता हे। साहित्यिक रूप मे उसका सशक्त प्रभाव कबीर में देखा जा सकता है। जायसी जैसे सूफी महाकवि ने भी इस्लाम से भारतीय सांस्कृतिक श्रेय को मिलाने का प्रयास किया। राजनीतिक स्थितियां चाहे जेसी रहीं हो इन महाकवियों के काव्य में भारतीय सामासिक संस्कृति का उज्ज्वल अंश प्रकट हो रहा था। आध्यात्मिक मूल्यों की भौतिक सुख सुविधाओं पर वरीयता, मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रेम-भाव पर आधारित स्नेह संबंधों की उत्कट आकांक्षा (जो सूरदास के काव्य में चरमोत्कर्ष पर है और जायसी ने जिसे दार्शनिक आधार दिया है,) बहुदेववाद के परे सगुण-निर्गुण, इस सत्य को शिव और सौदर्य से समन्वित कर देखने में आस्थ, गृहस्थ जीवन को एक धर्म और कर्तव्य के रूप में ग्रहण करने की कोशिश, राजसत्ता या शक्ति को शील से समन्वित करने के अपेक्षा आदि सांस्कृतिक मूल्य हिन्दी के साहित्य में प्रकट होते हैं। एक छोर पर इस्लाम की आक्रामकता कबीर के माध्यम से धार्मिक रूढ़ियों पर प्रहार कर रहीं थी और सिखधर्म के माध्यम से वीरधर्म की तलाश कर रही थी तो दूसरे छोर पर समाज से कटकर रहने वाले योगियों नाथपंथियों सिद्धों की अतिवादिता की तीव्र धार को सूर की माधुर्यभक्ति कुंठित कर रही थी और इस सबके बीच महाकवि तुलसी की प्रज्ञा विराट समन्वय का प्रयास कर रही थी। असल में मध्ययुगीन सांस्कृति की समग्रता ‘रामचरितमानस’ में प्रकट हुई।

साहित्य की ओर स्थूल उपयोगितावादी दृष्टि से अथवा इस हाथ ले उस हाथ दे वाली फायदावादी मनोवृत्ति से देखने वालों की दृष्टि से यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि रामचरितमानस जैसी रचनाओं ने भारतीय मानस को राजनीतिक आक्रमण के प्रति कहां तक सजग किया और अगर किया तो बाद के अंग्रेजों के आक्रमण के विरोध में हम क्यों नहीं तैयार रहे। असल में यह कहकर, कि साहित्य और परिवेश की चुनौतियों का सीधा संबंध नहीं होता, प्रश्न को टालना नहीं चाहिए। इनके अखाड़े में ही उतरकर प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता है।

अंग्रेजों के आक्रमण ने फिर से यह प्रमाणित किया कि सांस्कृतिक संस्कारों से वंचित हमारी राजनीतिक शक्ति, आपसी फूट, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा, भौतिक शक्ति के साधन उपार्जित करने में अक्षमता आदि हमारे दोष दूर नहीं कर पाई राम के चरित्र ने हमारे क्षत्रिय धर्म का वांछित संस्कार नही किया। परंतु जरा अधिक गहरे उतरना होगा। अंग्रेजों ने हमें भौतिक धरातल पर परास्त अवश्य किया किंतु क्या वे हमारे सांस्कृतिक उत्सों को उखाड़ने में सफल हुए। यद्यपि अंग्रेजों के विरोध में डटकर खड़ी रहने वाली प्रतिरोधी शक्तियों का तेजस्वी अविष्कार लोकमान्य देन नहीं है फिर भी इन दोनों ने अंग्रजों का मुकाबला करने की सामर्थ्य गीता में पाई थी, इससे कैसे इंकार किया जा सकता हे। दोनों को ‘रामचरितमानस’ एवं तदृश सांस्कृतिक साहित्यिक ग्रंथों ने और संस्कारों ने जो प्रेरणा प्रदान की थी, इससे इंकार कैसे किया जा सकता है। ‘रामचरितमानस’ के संस्कारों से संयुक्त उत्तर भारतीय जनता ने तिलक में भगवान को देखा, महात्मा गांधी में राम और कृष्ण के संयुक्त रूप को देखा और इस विराट जनता ने दोनों का अनुगमन किया, यह तथ्य कैसे नकारा जा सकता है। अगर तुलसी, कबीर, सूर, जायसी, नानक के जनमानस पर पड़े व्यापक प्रभाव को (जौ मौखिक परंपरा के रूप में अधिक शक्तिशाली बना रहा) अनदेखा कर दिया जाए तो तिलक और महात्मा गांधी के पीछे सांस्कृतिक अस्मिता से युक्त जनमानस खड़ा रहा। उसका स्पष्टीकरण कैसे दिया जा सकता है। ध्यान में रहे कि अंग्रेजों के सांस्कृतिक संपर्क से जो दो महत्वपूर्ण प्रवाह उत्पन्न हुए उनमें एक था मुट्ठीभर शिक्षित लोगों का जो अंग्रेजों को ही देवता मानकर अनुकरण कर रहे थे। दूसरा सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रवाह था जो राजा राममोहन राय से लेकर महात्मागांधी तक एक भारतीय संस्कृतिक के मूल रूप से जुड़कर विकसित होना चाहता था। जन मानस ने दूसरे का ही साथ दिया। स्वाधीनता के लिए उत्सर्ग और सेवा की भूमिका निभानेवालों के संस्कारों में क्या मध्ययुगीन सांस्कृतिक संस्कारों का स्थान नगण्य है। और यह संस्कार कहां से हुए। ध्यान में रहे कि राजनीतिक सत्ता के पीछे भारतीय जनमानस मध्ययुग में अपवादात्मक रूप में ही रहा परंतु जब अंग्रेजों का विरोध धर्म और कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया, स्वाधीनता सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के हेतु आवश्यक मान ली गई तभी राजनीतिक दृष्टि से उदासीन जनता स्वाधीनता आंदोलन में बड़े पैमाने पर उतरी और पहली बार भौतिक शक्ति से प्रबलतर अंग्रेजी सत्ता सांस्कृतिक विरोध के आगे परास्त हुई। इस हार में हिंसा कितनी थी अंहिसा कितनी थी, यह विवादास्पद विषय है किंतु भारतीय जनमानस की वह ऐसी अभिव्यक्ति थी जिसमें स्वार्थ दब गए थे और भौतिक सुख सुविधा की आकांक्षाएं धूमिल हो गई थी और सांस्कृतिक उर्जस्विता को चरम महत्व मिलता था। इसमें हिन्दी साहित्य के संस्कार प्रभूत यात्रा में थे।

लेकिन अंग्रेजों के चले जाने के बाद जब हम नए देश के सर्वागीण विकास के लिए कटिबद्ध हुए तब नई चुनौतियाँ आई, नई समस्याएँ आई। हिन्दी साहित्य का सांस्कृतिक योगदान क्या है। क्या हमारी संस्कृतिक का सामासिक रूप इस चुनौती को पचा सका। साहित्य के माध्यम से यह प्रक्रिया कैसे सिद्ध हुई? एक तथ्य यह है कि इस्लाम संस्कृति भारतीय संस्कृति से समन्वियत हो सकी थी। इसका कारण यह था कि मूलभूत धारणाओं में कुछ साम्यविंदु थे। ईश्वरीय अस्तित्व में आस्था और भौतिकता से परे किसी उच्चतम तत्व की स्वीकृत का अहसास दोनों में था। दोनों को एक दूसरे के साथ समझौता करना ही पड़ा। अंग्रेजी में संस्कृति के साथ यह बाध्यता नहीं थी। धर्म प्रचार के रूप उसने अवश्य प्रभाव डाला। चूँकि धर्म प्रचार और राजनीतिक साम्राज्य दोनों को यथासंभव अलग रखने को अंग्रेज शासक विवश हुए। टकराहट की स्थितियाँ भी कम नहीं पैदा हुई। ईसा मसीह के विचारों और आचारों में जो प्रेमतत्व पर बल था, पड़ोसियों को प्यार करने पर जोर था, आपसी व्यवहार में अंहिसक और शांतिपूर्ण स्नेह संबंधों का अनुरोध था, दुखियों और पीड़ितों की सेवा में धार्मिक भावना की अभिव्यक्ति का अन्वेषण था, उसके कारण भी सामान्यतः परस्पर सौमनस्य का वातावरण ही रहा। आश्चर्य की बात यही है कि ईसाई समाज ने हिन्दी को सर्जनशील सात्यिकार स्वाधीनता प्राप्ति तक लगभग नहीं दिए।

पश्चिमी सभ्यता निश्चित रूप से भारतीय सभ्यता से अधिक प्रगतिशीत थी और ऐहिकता का महत्व, मनुष्य के ऐहिक जीवन को सुखमय बनाने की उसकी आकांक्षा, वैज्ञानिक दृष्टि से ज्ञान के विविध क्षेत्रों को जीतने की महत्वाकांक्षा, समता, बंधुत्व और स्वातंत्रय का इसी जीवन को सामने रखकर विचार करने की दृष्टि आदि सांस्कृतिक तत्वों का हमारी सांस्कृतिक विचार धारा पर बहुत अधिक प्रभाव पडा। विजयी जाति होने के कारण अपनी श्रेष्ठता को मनवाना आसान हो गया। भारत की लुप्तप्राय सांस्कृतिक गरिमा को - संस्कृत ग्रंथों के पुनः जीवित करने का अधिकांश श्रेय इन्ही को जाता है। इन स्थितियों को देखा जाए जो अंग्रेजों के आगमन पर यहाँ प्रतिष्ठा तो पैदा हुई लेकिन भारतीय मनीषा की सराहना इसलिए की जानी चाहिए कि उसने अपना सांस्कृतिक सत्व खोकर पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृतिक के प्रति समपर्ण नहीं किया। राजा राममोहन राय, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, रानेडा, तिलक, महात्मा गांधी आदि महान् व्यक्तियों ने अंग्रेजों से काफ़ी कुछ लिया किंतु अपनी अस्मिता नहीं खोई। जातिवाद, संकीर्ण धर्माभिमान, मनुष्य की सृजनधर्मिता का अवरोध करने वाले भौतिक और धार्मिक बंधन, मनुष्य की स्वाधीनता को संकुचित करने वाली भौतिक एवं अन्य प्रकार की मान्यताँ, प्रेम और सहानुभूति का दायरा सीमित करने वाली सामाजिक रूढ़ियाँ - इन सबके प्रति हमें सावधान करने का श्रेय पश्चिमी संस्कृति को जाता है। परंतु उनको स्वीकार करने के बाद भी ‘भारतीय’ के रूप में बने रहने का जो अस्तित्व - संघर्ष हमने किया वह नवोत्थान की धारा का उज्ज्वल पक्ष है। निस्संदेह इसमें राष्ट्रीयता की भावना का काफ़ी योगदान है जिसका मूल्यांकन अभी भलीभांति नहीं हुई। अंग्रेज संस्कृति ने, जो ईसाई धर्म और सेक्युलेरिज्म में समन्वय करने का प्रयास स्वयं कर रही थी, हमारी साहित्य को सेक्युलर बनाने में काफ़ी हाथ बंटाया। आचरण की ऊपरी कुत्सितता में खोया हमारा धर्म साहित्यकारों को विशेष गतिशील, विकोसान्मुख और आर्दश नहीं लगा। हिन्दू और इस्लाम दोनों को एक नए संश्लेषण के लिए तैयार होना पड़ा। राष्ट्रीयता की तीव्र भावना ने इस संश्लेषण के लिए समान बिंदुओं के अन्वेषण में काफ़ी सहायता की। हिन्दी का राष्ट्रीय भाव धारा से प्रेरित समूचा साहित्य सामान्यतः धर्मातीता का परिचय देता है। भारतीय गौरव की पीठिका की खोज में हमारे राष्ट्रीय हिन्दी कवियों ने सामान्यतः ऐसे प्रसंगों को जहां धार्मिक कुटता के पैदा होने की स्थितियाँ थी, वहाँ धर्म को अधिक मूलगामी एवं व्यापक सिद्धांतों पर खड़ा कर देखा है। मतलब यह है कि हिन्दू मुसलमान वैमनस्य के प्रसंगों को अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया गया है। दूसरे शब्दों में हमारे राष्ट्रीय काव्य के अतीत के गौरवमय आख्यान की पड़तान की जाए तो एक तरह की धर्मातीत मानवीयता का उदार स्रोत वहाँ प्रवाहित मिलेगा। मैथिलीशरण गुप्त की निरंतर उदारता की ओर उन्मुखता और ‘राम’ में किसी विशिष्ट धर्म एवं संप्रदाय को न देखकर व्यापक मानवीय रूप को देखना सामान्यतः हिन्दी साहित्य की राष्ट्रीयता के विकास का उदाहरण है। आगे चल कर दिन कर जैसे कवियों में राष्ट्रीयता को पूर्णतः धर्मातीत आधार मिला है।

आश्चर्य तो हिन्दी साहित्यकारों की सामासिकता को देखकर तब होता है जब छायावादी काव्य में, प्रसाद के नाटकों में हिन्दू धर्म के ऐसे उदात्त रूप के प्रति समरसता है जो धर्मातीत अध्यात्म की छाया में पलती है। निराला के काव्य का चरमोत्कर्ष ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ में हुआ है। दोनों के विषय हिन्दू मन को प्रभावित करने वाले है परंतु क्या किसी भी धर्म के व्यक्ति के लिए अगर वह सहृदय होने की आवश्यक शर्त पूरी करता है तो ये कविताएँ सम्मोहित नहीं करती। महादेवी की कविता के आस्वादन के लिए हिन्दू होना आवश्यक नहीं है। कालिदास के बाद शायद पहली बार जो प्रकृति संवेदना हिन्दी काव्य में वैभवशाली रूप में अवतरित हुई उसके समृद्ध अनुभव के लिए न किसी धार्मिक संवेदना की ज़रूरत है, न किसी विशिष्ट विचार की। किसी भी अनुभव का साहित्य के रूप में चरम सफलता के बिंदु तक व्यंजित होना इस बात का द्योतक है कि उस साहित्य के रचयिता और आस्वादक दोनों उस अनुभव को अपने व्यक्तित्व के गहरे धरातल तक ले जाने में सफल हुए हैं। मतलब यह है कि एक सांस्कृतिक सामासिकता की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है।

पश्चिमी संस्कृति ने जो बहुत बड़ी चुनौती भारतीय मानव को दी थी वह विज्ञान और तकनीकि विकास की थी। वैसे वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव भारतीय बुद्धिजीवियों में नही था। जिस समाज में नाट्टयशास्त्र जैसे विश्वकोषीय ग्रंथ दो हजार वर्ष पूर्व पैदा हुआ, महाभारत के शांतिपर्व जैसा अध्याय रचा गया, दर्शन की सूक्ष्मतम चर्चाएँ हुई पाणिनि जैसे भाषाविद् ने भाषा को सूत्रमय बनाने की अद्भुत क्षमता दिखाई, योग, आयुर्वेद, ज्योतिष और गणित क्षेत्रों में विलक्षण प्रगति हुई, उस समाज के बुद्धिजीवियों में वैज्ञानिक दृष्टि नहीं थी यह कहना सत्य अपलाफ होगा। परंतु यह भी सही है कि पिछले हजार वर्षों में यह सारा विकास हमारी प्रत्यक्ष जीवन की ठोस अनुभूति से परे की चीज हो गई थी। दूसरी बात यह भी थी कि यह सारा ज्ञान जो अधिकांश रूप में मौखिस परंपरा पर निर्भर था एक छोटे से वर्ग तक सीमित रहा और जीवन के व्यवहार के साथ नाता टूट जाने के कारण वह केवल अनुपयोगी संचय की तरह कुछ लोगों के दिमाग में लगभग बंद रहा। पश्चिम के संपर्क से विशेषतः लिखित परंपरा के आगमन से, प्रयोगशाला जैसी संस्था की अनिवार्यता से हमारी दृष्टि चौंधिया गई। ज्ञान के व्यापक समाज के प्रसृत होने के साधन भी पैदा हुए और विचारों का ठोस आधार भी पैदा हुआ। जो ज्ञान भारतीय मनीषियों के अंतः करण में अंतः प्रज्ञा के रूप में स्फुरित होता था। वह अब प्रयोग शालाओं के उपकरणों में पकड़ा जाने लगा। भारतीय मानव को निश्चित ही नया लगने लगा। वह कभी मुग्ध नहीं हुआ, सम्मोहित भी हुआ तो कभी चकित भी। विशेषतः विज्ञान की भौतिक सुविधाएँ प्रदान करने की क्षमता से वह कहीं हर्षित हुआ तो कही भयभीत भी। भौतिक सुविधाओं के साथ विज्ञान का सिक्का जम गया और उससे उत्पन्न होने वाली सुखवादी जीवनदृष्टि, तर्क की कर्कशता, भावना जगत् का उपहास, प्रत्यक्ष के परे किसी महान् मल्य या सत्ता के अस्तित्व के प्रति संदेह आदि कुछ ऐसी बातें थी जो संवेदनशील मन को संशयग्रस्त कर रही थी। विज्ञान और तकनीक के विकास में एक अप्रतिहत गति थी, मात्र गति जिसमें मानवीय जीवन को सार्थक बनाने वाले मूल्यों की या श्रेय और शुभ की अवमानना थी। भारतीय मानस इससे चिंताक्रांत अवश्य हुआ और उसकी सशक्त अभिव्यक्ति प्रसाद के महाकाव्य ‘कामायनी’ में हुई यद्यपि प्रसाद जी ने अपनी वैयक्तिक आस्था के बल पर विज्ञान और भाव की समन्विति में आनंद का ‘विजन’ देखा। फिर भी विचक्षण पाठक को उसमें विश्वसनीयता का सार्वजनीन आधार नहीं प्राप्त हुआ। उधर मानव जीवन की चिंता से व्याकुल महात्मा गांधी ने भी इसके संबंध में संदेह की भूमिका ग्रहण की। वैज्ञानिक और तकनीकि विकास के कारण जो समस्याएँ मानव जीवन में उत्पन्न हुई है उनमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर चिंताकुल कोई समर्थ लेखक प्रसाद के बाद हिन्दी में नहीं दिखा। कदाचित् विज्ञान को लेकर हम ऐसी स्थिति मे है कि कोई निर्णयात्मक भूमिका पर नहीं पहुँचा जा सकता। शायद इस संबंध में हम जगगति के साथ ही रहे हैं। चूंकि वैज्ञानिक सभ्यता का सांस्कृतिक धरातल पर किसी प्रकार समन्वय करें यह प्रश्न समूचे विश्व में अनसुलझा है। हमारी सृजनशील साहित्यकारों ने भी उसके संबंध में ‘क्राइसिस’ के सवान पूछना समीचीन नहीं समझा। यहाँ हमें उन सनसनीखेज पुस्तकों का विचार नहीं करना है जो वैज्ञानिक कथाओं के नाम से प्रकाशित होती है, न यांत्रिक जीवन की प्रतिक्रिया के रूप में लिखी जाने वाली कथाओं का। वैज्ञानिक प्रगति और मानवीय जीवन की भवितव्यता की समस्या से गंभीर रचनात्मक धरातल पर जूझने वाले साहित्यकारों का यहाँ अपेक्षित है।

पश्चिम सभ्यता व संस्कृति से प्रभावित होकर ‘मॉडर्निटी’ को ही एक मूल्य मानने वाले साहित्यकारों को हिन्दी साहित्य में कमी नहीं है। ‘मार्डनिटी’ के साथ आने वाले गंभी वैचारिक अनुषंगों को हिन्दी साहित्यकारों ने निश्चय ही बड़े लगाव के साथ अभिव्यक्त किया। स्त्री पुरुष संबंधों के नए आयाम इसी परिणाम है जो आधुनिक कथा साहित्य एवं काव्य के महत्वपूर्ण उपजीव्य है। नारी के व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा, इसके विकास के सभी रास्तों की जाँच पड़ताल, उसकी स्वाधीनता की स्वीकृति, पुरुष के समकक्ष उसको मानने की तैयारी आधुनिक साहित्य में अब विचारार्थ विषय नही रहा हे। भले ही कुछ निम्नस्तर पर व्यंग्य और मजाक के लिए नारी की प्रगति का उपयोग किया जाता हो परंतु गंभीर धरातल पर साहित्य में नारी पुरुष की समानता सभी क्षेत्रों में स्वीकृत है। मतलब हे कि उसे अपनी इच्छा के अनुसार किसी पुरुष से प्रेम करने की, किसी के साथ शारीरिक संबंध रखने की या संबंधों को तोड़ने की बात सैद्धांतिक धरातल पर स्वीकृत हो गई है। देह की पवित्रता या यौन के इर्दगिर्द बनने वाली नैतिकता का दायरा अब संकुचित नहीं रहा। प्रेमचंद से लेकर कृष्णा सोबती तक हिन्दी उपन्यासकारों ने नारी-पुरुष की समानता को सभी स्तरों पर स्वीकारा है। आधुनिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण वैशिश्ट्य यह है कि यहां नारी-पुरुष का प्रणय अब अर्थ में उपभोक्ता-उपभोग्य का संबंध न रहकर दोनों के सहयोग के रूप में चित्रांकित होता है। यह पुरुष का श्रृंगार न रहकर एक समृद्ध जीवनानुभव के रूप में व्यक्त होता है। इसके विविध पहलुओं को जैनेंद्र और अज्ञेय से लेकर निरूपता सेवती तक के कभी साहित्य में उभारा गया है।

पश्चिमी संस्कृति की चकाचैंध से उसमें मिली उन्मुक्तता से प्रभावित होकर भारतीय समाज का ऐसा उच्चवर्गीय तबका केवल दैहिक सुख, भौतिक सुविधाएँ, अधिकार का निरंकुश व्यवहार, और इन सबका आधार अर्थ-संचय आदि बातों को महत्व देता आ रहा है। इसकी अबाध गति में भारतीय घर टूट रहे हैं, बेघर होकर मनुष्य ‘थ्रिल’ के क्षणों को भोगकर जीवन काटना चाहता है। दिनकर ने ‘उर्वशी’ के माध्यम से घर टूटने की, मनुष्य के अति अकेले पड़ने की ट्रेजिडी को संकेतिक किया है और गृहस्थ धर्म की प्रतिष्ठा का सुझाव दिया है। कतिपय हिन्दी साहित्यकार इस स्थिति का सामना करने वाले स्त्री-पुरुषों का चित्रण कर जिंदगी के अंधेरे बंद कमरों में छिपी नरक यातना का इजहार कर रहे हैं। निर्मल वर्मा के दुखी जीवों की वेदना का कारण भी उनका ‘घर’ से उखड़ना है। हमारी संस्कृति में यह एक भयावह वास्तविकता पैदा हुई हे। असल में घर से टूटे-उखड़े व्यक्तियों का अकेलापन और दर्द चिरंतन दर्द मानकर चित्रित करने की रूढ़ि भी हिन्दी साहित्य में स्थायी होती जा रही है। यह घर टूटने की स्थिति नागर जीवन में अधिक तीव्र रूप में दिखती है। घर जिसमें व्यक्ति न केवल अधिकार से बल्कि कर्तव्य से भी बंधा है और जिसमें अति व्यक्तिवादी स्वातंत्रय की उच्छंखल कल्पनाओं को स्थान न दिया गया तो व्यक्ति के विकास की संभावना भी असीम है, एक महत्वपूर्ण समस्या के रूप में हमारी संस्कृति में और साहित्य में स्थान पा रहा है। यह प्रश्न बुद्धिजीवी व्यक्ति के सामने है कि वह ‘व्यक्ति’ के रूप में जीना चाहता है या ‘गृहस्थ’ के रूप में। अमेरिका के चिंतक इस पर पुनः विचार कर रहे हैं। प्रेम और घर की - गृहस्थ जीवन की आवश्यकता को महसूस कर रहे हैं। एक अति वह भी जब भारतीय मनुष्य अपने को समर्पित कर दूसरों के लिए जीने में आदर्श मानता था और एक अति यह है कि जब गति के पीछे सबसे रिश्ता तोड़कर अलग द्वीप के रूप में जीना चाहता है और दुखी भी होता है।दोनों अतिवादों को टालकर घर को बचाने का विकल्प हमारी पास है। मजे की बात यह है कि घर के लिए व्याकुल व्यक्ति भी ‘मॉडर्निटी’ के गलत चक्कर में आकर साहित्य में व्यक्तिवादी भूमिका ग्रहण करता है।

भारतीय संस्कृति को एवं भारतीय समाज की व्यवस्था को एक गहरा धक्का माक्र्सवादी विचारधारा ने दिया है। यह विचारधारा किसी प्रकार के आध्यात्मिक मूल्यों के विपरीत है। किंतु इसमें जो वर्गहीन, विषमताहीन श्रममूल्य पर आधारित आदर्श समाज व्यवस्था का यूटोपिया व्यक्त है वह आखिर उसी रामराज्य के आसपास आ जाता है। इस विचारधारा ने सामान्य मनुष्य के प्रति समवेदना ही नहीं जगाई बल्कि व्यवस्था क विविध रूपों में चल रहे शोषण के रूपों को खोलकर सामने रखा। एक तरह से जहाँ तक माक्र्सवाद की ‘स्पिरिट’ का प्रश्न है किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को उससे विरोध करने काकोई कारण नहीं है। हिन्दी साहित्य में मार्क्सवादी विचारधारा के अनेक रूपों में अभिव्यक्ति हुई है। जहाँ तक जातिभेदविहीन वर्गभेदरहित समाज व्यवस्था की ओर उन्मुखता का प्रश्न है, विषमता और शोषण के विरोध की बात है भारतीय संस्कृति से उसका विरोध नहीं है। यही कारण है कि स्वतंत्र भारत ने इसी उद्देश्य को अपने सामने रखा है और एक जनतंत्र के माध्यम से उस दिशा में हम जाना चाहते हैं। कुछ प्रांतों में कम्युनिस्ट पार्टियों में इसे निष्ठा के साथ स्वीकारा भी है और वे सत्ता पर आई भी है। यह भारतीय सांस्कृतिक सामासिकता ही है जो इन भिन्नभिन्न दृष्टियों को पचा रही है।

असल में हिन्दी साहित्य जिस भाषा में लिखा जा रहा है उसकी क्षमता का अनेकमुखी विकास आवश्यक है। दिल और दिमाग की भाषा हिन्दी और रोजी रोटी की भाषा अंग्रेजी का विभाजन हमारी संस्कृति को ही गहरे धरातल तक विभाजित कर रहा है और परिणामतः एक नकली, ऊपरी और दिलदिमाग की ताकत से विहीन ऊपरी सभ्यता का शिकार हमारा ऊपर का तबका हो रहा है। यह खतरनाम स्थिति है। हमें भाषा के रास्ते से सशक्त बनाने का मतलब यह है कि हमारी संस्कृति की भाषा में सभ्यता की भाषा की शक्ति भी समाविष्ट करनी होगी। जब तक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं (समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, नृविज्ञान, प्राणिविज्ञान, रसायन और पदार्थविज्ञान, गणितविज्ञान आदि) का व्यवहार हिन्दी के माध्यम में नहीं होगा तब तक सही रूप में न हिन्दी विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी न संस्कृति की सामासिकता की प्रक्रिया सही रूप में गतिमान और सशक्त होगी। इस संदर्भ में अधिक खतरनाम वर्ग हमारे देश का वह उच्च वर्ग है जो सुविधाभोगी रहा है और अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को भी सुविधाभोगी बना रहा है और अंग्रेजी उसका अधिकार कायम रखने में एक औजार बन गई है। इस वर्ग की खतरनाम चाल कितनी शक्तिशाली है यह इस बात से स्पष्ट होता है कि स्वाधीनता के बाद ‘इंडियन अंग्रेजी’ नामक नई भाषा को स्थापित करने के प्रयास में है और ऐसे सब मुद्दों को जो वे हिन्दी के ख़िलाफ़ उठाते हैं, अंग्रेजी के संबंध में से सुविधापूर्ण ढंग से भूल जाते हैं। यह देशी भाषाओं का अपमान है कि एक नकटी और कुलक्षणी सौत उनके अधिकारों पर आक्रमण कर नाच रही हे। क्या हमारी संस्कृति में इससे मुकाबला करने की क्षमता है? यह अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह मुकाबला हमारी संस्कृति को बचाने के लिए और उसे निरंतर विकासमान रखने की लिए है। असल में हमें इस तथ्य को भलीभांति जानना होगा कि हिन्दी के स्वीकार एवं अस्वीकार का प्रश्न अहिन्दीभाषी जनता के स्वीकार पर निर्भर है किंतु जबतक हिन्दी विज्ञान की सभ्यता को पचाकर अपनी सामासिक शक्ति का सही परिचय नहीं देगी तब तक भारतीय संपर्क भाषा के रूप में भारत में और एक शक्तिशाली भाषा के रूप में विश्व में समादृत नहीं होगी। संस्कृति केवल अतीत की ओर और परंपरा से प्राप्त जड़ वस्तु नहीं होती, उसे वर्तमान में गतिशील बनाने का कार्य बुद्धिजीवियों का ऐतिहासिक दायित्व है। क्या हमारा बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेजी से बुरी तरह प्रभावित सुखवादी उच्चवर्ग का भाषा के माध्यम से सामना कर सकेगा?

हिन्दी को अपनी उदार सामासिक शक्ति का परिचय एक और दिशा में देना है। हिन्दी साहित्य केवल हिन्दी भाषाभाषियों का साहित्य नहीं रहा। अहिन्दी भाषी भारतीय एवं अभारतीय भी साहित्य की सेवा कर रहे हैं। कुछ विद्वानों ने तो ऐसा काम किया है या कर रहे है कि उनके कृत्तिव को देखकर आश्चर्य होता है। इनके कार्य की जाने अनजाने अगर उपेक्षा हो रही हो तो हिन्दी उज्ज्वल भविष्य की दृष्टि से न वर्तमान से उचित है, न भविष्य में वह समीचीन माना जाएगा। हिन्दी भाषियों को इस सेवा के प्रति विशेष रूप से सजग रहना चाहिए। भारतीय भाषाओं की अत्युत्तम सामग्री को रूपांतरित कर हिन्दी में लाने के लिए जो प्रयास चल रहे हैं वे सचमुच सराहनीय है। जो कार्य आज अंग्रेजी में विश्व साहित्य के संर्दीा में हो रहे हैं वही हिन्दी को भारतीय भाषाओं के संबन्ध में विशेषतः और विश्व की भाषाओं के संबंध में सामान्यतः करना होगा। आज रूसी, फ्रेच, जापानी, चीनी लेखकों की अच्छी पुस्तकें अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ने को मिलती हैं। वह दिन कब आएगा जब हिन्दी यह कार्य करने लगेगी और अंग्रेजी की ज़रूरत हमारे लिए नहीं रहेगी? इसके दुनिया की प्रगत भाषाओं को एक व्रत के रूप में हिन्दी प्रेमियों को सीखना होगा। अगर हिन्दी प्रेमी प्राध्यापक अपने विषय की एक बहुत अच्छी पुस्तक अनूदित कर लाने की प्रतिज्ञा करेगा तो हिन्दी की सामासिक शक्ति अद्भुत प्रभाव पैदा कर सकती है।

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
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