संगति (सूक्तियाँ)

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
क्रमांक सूक्तियाँ सूक्ति कर्ता
(1) हीयते हि मतिस्तात् , हीनैः सह समागतात् । समैस्च समतामेति , विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥ (हीन लोगों की संगति से अपनी भी बुद्धि हीन हो जाती है, समान लोगों के साथ रहने से समान बनी रहती है और विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है।) महाभारत
(2) संसार रूपी कटु-वृक्ष के केवल दो फल ही अमृत के समान हैं; पहला, सुभाषितों का रसास्वाद और दूसरा, अच्छे लोगों की संगति। चाणक्य
(3) संसार एक कड़वा वृक्ष है, इसके दो फल ही अमृत जैसे मीठे होते हैं - एक मधुर वाणी और दूसरी सज्जनों की संगति। चाणक्य
(4) ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं- मनुष्य जन्म, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों की संगति। शंकराचार्य
(5) जिसने शीतल एवं शुभ्र सज्जन-संगति रूपी गंगा में स्नान कर लिया उसको दान, तीर्थ तप तथा यज्ञ से क्या प्रयोजन? वाल्मीकि
(6) झुकने वाले के सामने झुकें। संगति करने वाले के साथ संगति करें। जातक
(7) सज्जनों की संगति होने पर दुर्जनों में भी सुजनता आ ही जाती है। क्षत्रचूड़ामणि
(8) तीर्थों के सेवन का फल समय आने पर मिलता है, किंतु सज्जनों की संगति का फल तुरंत मिलता है। चाणक्य
(9) मनुष्य जिस संगति में रहता है, उसकी छाप उस पर पड़ती है। उसका निज गुण छिप जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। एकनाथ
(10) संसार रूपी विष - वृक्ष के दो फल अमृततुल्य हैं - काव्यामृत के रस का आस्वादन और सज्जनों की संगति। अज्ञात
(11) विद्वानों की संगति से ज्ञान मिलता है, ज्ञान से विनय, विनय से लोगों का प्रेम और लोगों के प्रेम से क्या नहीं प्राप्त होता? अज्ञात
(12) परमेश्वर विद्वानों की संगति से प्राप्त होता है। ऋग्वेद
(13) यदि तुम चाहते हो कि यह निश्चित रूप से जानो कि नरक क्या है तो जान लो कि अज्ञानी व्यक्ति की संगति ही नरक है। उमर खैयाम
(14) अच्छी संगति बुद्धि के अंधकार को हरती है, वचनों को सत्य की धार से सींचती है, मान को बढ़ती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न रखती है और चारों ओर यश फैलाकर मनुष्यों को क्या क्या लाभ नहीं पहुंचाती? भर्तृहरि

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख