विदेह

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विदेह उत्तरी बिहार का प्राचीन जनपद था, जिसकी राजधानी मिथिला में थी। स्थूल रूप से इसकी स्थिति वर्तमान तिरहुत के क्षेत्र में मानी जा सकती है। कोसल और विदेह की सीमा पर सदानीरा नदी बहती थी। ब्राह्मण ग्रंथों में विदेहराज जनक को सम्राट कहा गया है, जिससे उत्तर वैदिक काल में विदेह राज्य का महत्व सूचित होता है।[1]

पौराणिक उल्लेख

'शतपथ ब्राह्मण' में 'विदेघ' या 'विदेह' के राजा माठव का उल्लेख है, जो मूलरूप से सरस्वती नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहते थे और पीछे विदेह में जाकर बस गए थे। इन्होंने ही पूर्वी भारत में आर्य सभ्यता का प्रचार किया था। शांखायन श्रौतसूत्र[2] में जलजातु कर्ण्य नामक विदेह, काशी और कोसल के पुरोहित का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में सीता के पिता मिथिलाधिप जनक को 'वैदेह' कहा गया है-

‘ऐव मुक्त्वा मुनिश्रेष्ठ वैदेहो मिथिलाधिपः।'[3]

  • सीता इसी कारण 'वैदेही' कहलाती थीं।
  • 'महाभारत' में भी विदेह देश पर भीम की विजय का उल्लेख है तथा जनक को यहां का राजा बताया गया है, जो निश्चिय पूर्व ही विदेह नरेशों का कुलनाम था-

'शर्मकान् वर्मकांश्चैव व्यजयत् सान्त्वपूर्वकम्, वैदेहकं राजानं जनकं जगतीपपतिम्।'[4]

'वर्षत्रयान्ते च वभ्रू ग्रसेन प्रभृतिभिर्यादवैर्न तद्रत्नं कृष्णोनापहृतमिति कृतावगतिभिर्विदेहनगरी गत्वा बलदेवस्सम्प्रत्याय्य्द्वारकामानीत।

  • बौद्ध काल में संभवतः बिहार के वृज्जि तथा लिच्छवी जनपदों की भांति की विदेह भी गणराज्य बन गया था। जैन तीर्थंकर महावीर की माता 'त्रिशला' को जैन साहित्य में 'विदेहदत्ता' कहा गया है। इस समय वैशाली की स्थिति विदेह राज्य में मानी जाती थी, जैसा की 'आचरांगसूत्र'[8] सूचित होता है, यद्यपि बुद्ध और महावीर के समय में वैशाली लिच्छवी गणराज्य की भी राजधानी थी। तथ्य यह जान पड़ता है कि इस काल में विदेह नाम संभवतः स्थूल रूप से उत्तरी बिहार के संपूर्ण क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होने लगा था। यह तथ्य 'दिग्घनिकाय' में अजातशत्रु[9] के वैदेहीपुत्र नाम से उल्लिखित होने से भी सिद्ध होता है।[1]

कथा

एक बार राजा जनक ने अपनी यौगिक क्रियाओं से स्थूल शरीर का त्याग कर दिया। स्वर्गलोक से एक विमान उनकी आत्मा को लेने के लिए आया। देव लोक के रास्ते से जनक कालपुरी पहुंचे, जहां बहुत-से पापी लोग विभिन्न नरकों से प्रताड़ित किये जा रहे थे । उन लोगों ने जब जनक को छूकर जाती हुई हवा में सांस ली तो उन्हें अपनी प्रताड़नाओं का शमन होता अनुभव हुआ और नरक की अग्नि का ताप शीतलता में बदलने लगा। जब जनक वहां से जाने लगे, तब नरक के वासियों ने उनसे रुकने की प्रार्थना की। जनक सोचने लगे- "यदि ये नरकवासी मेरी उपस्थिति से कुछ आराम अनुभव करते हैं तो मैं इसी कालपुरी में रहूंगा, यही मेरा स्वर्ग होगा।"

ऐसा सोचते हुए वे वहीं रूक गये। तब काल विभिन्न प्रकार के पापियों को उनके कर्मानुसार दंड देने के विचार से वहां पहुंचे और जनक को वहां देखकर उन्होंने पूछा- "आप यहाँ नरक में क्या कर रहे हैं?" जनक ने अपने ठहरने का कारण बताते हुए कहा कि वे वहां से तभी प्रस्थान करेंगे, जब काल उन सबको मुक्त कर देगा। काल ने प्रत्येक पापी के विषय में बताया कि उसे क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है। जनक ने काल से उनकी प्रताड़ना से मुक्ति की युक्ति पूछी। काल ने कहा- "तुम्हारे कुछ पुण्य इनको दे दें तो इनकी मुक्ति हो सकती है।" जनक ने अपने पुण्य उनके प्रति दे दिये। उनके मुक्त होने के बाद जनक ने काल से पूछा- "मैंने कौन सा पाप किया था कि मुझे यहाँ आना पड़ा?" काल ने कहा- "हे राजन! संसार में किसी भी व्यक्ति के तुम्हारे जितने पुण्य नहीं हैं, पर एक छोटा-सा पाप तुमने किया था। एक बार एक गाय को घास खाने से रोकने के कारण तुम्हें यहाँ आना पड़ा। अब पाप का फल पा चुके सो तुम स्वर्ग जा सकते हो।" विदेह (जनक) ने काल को प्रणाम कर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।[10] इसी कारण जनक को विदेह कहा जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 857 |
  2. शांखायन श्रौतसूत्र 16,295
  3. वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, 65,39
  4. महाभारत, सभापर्व, 30,13
  5. अंक 6
  6. वायुपुराण 88,7-8
  7. विष्णुपुराण 4,13107
  8. आयरंग सूत्र, 2,15,17
  9. जो वैशाली के लिच्छवी वंश की राजकुमारी छलना का पुत्र था।
  10. पद्म पुराण, 30-39।

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