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महमूद ग़ज़नवी

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महमूद ग़ज़नवी
Sultan-Mahmud-Ghaznawi.jpg
पूरा नाम महमूद ग़ज़नवी
जन्म 2 नवम्बर, 971 (लगभग)
जन्म भूमि ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान
मृत्यु तिथि 30 अप्रैल, 1030 (उम्र 59 वर्ष)
मृत्यु स्थान ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान
पिता/माता सुबुक्तगीन
राज्य सीमा पूर्वी ईरान, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान
शासन काल 997-1030
शा. अवधि 33 वर्ष
धार्मिक मान्यता सुन्नी इस्लाम

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महमूद ग़ज़नवी यमीनी वंश का तुर्क सरदार ग़ज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई. 971) में हुआ, 27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई. 998) में वह शासनाध्यक्ष बना था। महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था। उसके पिता ने एक बार हिन्दू शाही राजा जयपाल के राज्य को लूट कर प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त की थी, महमूद भारत की दौलत को लूटकर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था। उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर ग़ज़नी ले गया था। आक्रमणों का यह सिलसिला 1001 ई. से आरंभ हुआ। उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है।

ग़ज़नवी

नौवीं शताब्दी के अन्त तक ट्रांस-अक्सियाना, ख़ुरासान तथा ईरान के कुछ भागों पर समानी शासकों का राज्य था जो मूलतः ईरानी थे। इन्हें अपनी उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर बराबर तुर्क क़बीलों से संघर्ष करना पड़ता था। इसी संघर्ष के दौरान एक नये प्रकार के सैनिक 'ग़ाज़ी' का उदय हुआ। 'तुर्क' अधिकतर प्रकृति की शक्तियों की पूजा करते थे। अतः मुसलमानों की दृष्टि में काफ़िर थे। इसलिए उनके ख़िलाफ़ युद्ध राज्य की रक्षा के साथ-साथ धर्म की दृष्टि से भी वांछनीय था। इस प्रकार ग़ाज़ी, योद्धा तथा धर्म-प्रचारक, दोनों था। वह सेना के एक अतिरिक्त अंग के समान था और कम वेतन की पूर्ति लूटपाट से करता था। ग़ाज़ी लोग वीर होने के साथ-साथ धर्म के लिए बड़े से बड़ा ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार रहते थे और इन्हीं की बदौलत नए मुस्लिम राज्यों को तुर्कों के आक्रमणों का सामना करने में सफलता मिल सकी। समय के साथ-साथ कई तुर्क मुसलमान बन गए पर फिर भी ग़ैर-मुसलमान तुर्क क़बीलों के साथ मुसलमान राज्यों का संघर्ष जारी रहा। तुर्की के क़बीलाई जो मुसलमान बन गए थे बाद में वे ही मुसलमान धर्म के कट्टर संरक्षक और प्रचारक बन गए। लेकिन इस्लाम की रक्षा और प्रचार के साथ-साथ उनकी लूटपाट की लिप्सा बनी रही। समानी राज्य के प्रशासकों में एक तुर्क ग़ुलाम 'अलप्तगीन' था, जो धीरे-धीरे एक अपना राज्य क़ायम करने में सफल हो गया। इसकी राजधानी 'ग़ज़नी' थी। बाद में समानी साम्राज्य का पतन हो गया और 'ग़ज़नवी' लोगों ने मध्य एशिया के क़बीलों से इस्लामी क्षेत्र की रक्षा करने का भार सम्भाला।

महमूद ग़ज़नवी

इसी प्रक्रिया के दौरान ग़ज़नी के सिंहासन पर महमूद (998-1030) बैठा। मध्ययुगीन इतिहासकारों ने मध्य एशिया के क़बीलाई आक्रमणकारियों से वीरता से संघर्ष करने के कारण महमूद को इस्लाम का योद्धा माना है। इसके अलावा इस समय ईरानी संस्कृति का जो पुनर्जागरण हुआ, उसके साथ महमूद का गहरा सम्पर्क था। गर्वीले ईरानियों ने कभी भी अरबों की भाषा और संस्कृति नहीं अपनायी। समानी साम्राज्य में फ़ारसी भाषा और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया गया। 'फ़िरदौसी' की 'शाहनामा' के साथ ईरानी साहित्य अपने शिखर पर पहुँच गया। फ़िरदौसी महमूद के दरबार में राज कवि था। उसने यह दिखाने की चेष्टा की कि ईरान और तूरान का संघर्ष बहुत प्राचीन युग में भी था और उसने ईरानी योद्धाओं को अपने साहित्य में गौरवशाली बनाया। इस काल में ईरानी देशप्रेम का इतना उभार हुआ कि महमूद ने भी स्वयं को प्राचीन ईरानी किंवदन्तियों में चर्चित राजा 'अफ़रासियाब' का वंशज होने का दावा किया। फ़ारसी भाषा सारे ग़ज़नवी साम्राज्य की भाषा बन गई। इस प्रकार तुर्क न केवल मुसलमान वरन् फ़ारसी भी बन गए। इसी संस्कृति को दो शताब्दियों के बाद वे भारत लाए।

ईरानी संस्कृति का पुनर्जागरण

माना जाता है कि महमूद ने न केवल तुर्क क़बीलों के विरुद्ध इस्लामी राज्य की रक्षा की वरन् ईरानी संस्कृति के पुनर्जागरण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन भारत में वह केवल एक लुटेरे के रूप में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया। आरम्भ में उसने पेशावर और पंजाब के हिन्दू शाही शासकों के ख़िलाफ़ युद्ध किया। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध भी युद्ध किया क्योंकि वे इस्लाम के उस सम्प्रदाय को मानने वाले थे जिनका महमूद कट्टर विरोधी था। हिन्दुशाही राज्य पंजाब से लेकर आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान तक फैला हुआ था और उनके शासक ग़ज़नी में एक स्वतंत्र शक्तिशाली राज्य से उत्पन्न होने वाले ख़तरों को बखूबी समझते थे। हिन्दुशाही शासक जयपाल ने समानी शासन के अंतर्गत भूतपर्व गवर्नर के पुत्र के साथ मिलकर ग़ज़नी पर चढ़ाई भी की थी, लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। उसने अगले वर्ष फिर चढ़ाई की और फिर पराजित हुआ। इन लड़ाइयों में युवराज के रूप में महमूद ने सक्रिय भाग लिया था।

हिन्दूशाहियों के विरुद्ध अभियान

महमूद ने सिंहासन पर बैठते ही हिन्दूशाहियों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। उनके बीच होने वाले संघर्ष में मुल्तान के मुसलमान शासकों ने 'जयपाल' का साथ दिया। महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा 'जयपाल' के विरुद्ध 29 नवंबर सन् 1001 में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परन्तु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया । इस अपमान से व्यथित होकर वह जीते जी चिता पर बैठ गया और उसने अपने जीवन का अंत कर दिया । जयपाल के पुत्र आनन्दपाल और उसके वंशज 'त्रिलोचनपाल' तथा 'भीमपाल' ने कई बार महमूद से युद्ध किया। हिन्दूशाही राजधानी 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) में महमूद और आनन्दपाल के बीच 1008-1009 ई. में भीषण युद्ध हुआ। ऐसा लगता है कि इस युद्ध में उत्तर-पश्चिमी भारत के कन्नौज और अजमेर के राजाओं के अलावा कई राजपूत शासकों ने भाग लिया। मुल्तान के मुसलमान शासक ने भी आनन्दपाल का साथ दिया। यद्यपि हिन्दुओं की सेना काफ़ी बड़ी थी और उसमें बहादुरी के लिए पंजाब के 'खोकर क़बीले' के लोग थे, तथापि महमूद के घुड़सवार धनुषधारियों के आगे उनकी एक न चली। हिन्दूशाहियों को अब ज़ागीरदारों के रूप में अपने भूतपर्व साम्राज्य के एक भाग का शासन मिला। यह 1020 तक क़ायम रहा, लेकिन सही अर्थों में पंजाब पर अब ग़ज़नवियों का पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद मुल्तान की बारी आई।पर हर बार उन्हें पराजय मिली। सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया । हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो जाने पर महमूद को खुला मार्ग मिल गया। बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में ख़ूब मार-काट की तथा भारतीयों को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाया । उसका नवाँ (कुछ लेखकों के मतानुसार बारहवाँ) आक्रमण सं. 1074 में कन्नौज के विरुद्ध हुआ था । उसी समय उसने मथुरा पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा ।

महमूद की लूट और महावन का युद्ध

ग्यारहवीं शती के आरम्भ में उत्तर-पश्चिम की ओर से मुसलमानों के धावे भारत की ओर होने लगे। ग़ज़नी के मूर्तिभंजक सुल्तान महमूद ने सत्रह बार भारत पर चढ़ाई की। उसका उद्देश्य लूटपाट करके ग़ज़नी लौटना होता था। अपने नवें आक्रमण का निशाना उसने मथुरा को बनाया। उसका वह आक्रमण 1017 ई. में हुआ। मथुरा को लूटने से पहले महमूद गज़नबी को यहाँ एक भीषण युद्ध करना पड़ा। यह युद्ध मथुरा के समीप महावनके शासक कुलचंद के साथ हुआ।

  • महमूद के मीरमुंशी अल-उत्वी ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है –

'कुलचंद का दुर्ग महावन में था । उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था। वह विस्तृत राज्य, अपार वैभव, असंख्य वीरों की सेना, विशाल हाथी और सुदृढ़ दुर्गों का स्वामी था, जिनकी ओर किसी को आँख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था। जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो गया। अत्यंत वीरतापूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब उसके सैनिक क़िले से निकल कर भागने लगे, जिससे वे यमुना नदी को पार कर अपनी जान बचा सकें। इस प्रकार लगभग 50,000 (पचास हज़ार) सैनिक उस युद्ध में मारे गये या नदी में डूब गये, तब कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया। उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे।'

  • फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन किया है-

'मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था। महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ। उस युद्ध में अधिकांश हिन्दू सैनिक यमुना नदी में धकेल दिये गये थे। राजा ने निराश होकर अपने स्त्री-बच्चों का स्वयं वध किया और फिर ख़ुद को भी मार डाला। दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। महावन की लूट में उसे प्रचुर धन-सम्पत्ति तथा 80 हाथी मिले थे।'

  • इन लेखकों ने महमूद गज़नबी के साथ भीषण युद्ध करने वाले योद्धा कुलचंद्र के व्यक्तित्व पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है। इसके बाद सुल्तान महमूद की फ़ौज मथुरा पहुँची। यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है-

    'इस शहर में सुल्तान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बताकर देवताओं की कृति बताया। नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी की ओर ऊँचे तथा मज़बूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाज़े स्थित थे । शहर के दोनों ओर हज़ारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे। ये सब पत्थर के बने थे और लोहे की छड़ों द्वारा मज़बूत कर दिये गये थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है। सुल्तान महमूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न ख़र्च करने पड़ेगें और उसके निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये।' सुल्तान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय। बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही। इस लूट में महमूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य माणिक्यों से जड़ी हुई थीं। इनका मूल्य पचास हज़ार दीनार था। केवल एक सोने की मूर्ति का ही वज़न चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर ग़ज़नी ले जाया गया ।'[1]

सोमनाथ के मंदिर का ध्वंस

उसका सबसे बड़ा आक्रमण 1026 ई. में काठियावाड़ के सोमनाथ मंदिर पर था। देश की पश्चिमी सीमा पर प्राचीन कुशस्थली और वर्तमान सौराष्ट्र (गुजरात) के काठियावाड़ में सागर तट पर सोमनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर है। स्कंद पुराण में उल्लेख है – "वैदिक सरस्वती वहाँ सागर में मिलती है, जहाँ सोमेश्वर का मंदिर है, उस पवित्र स्थल के दर्शन करने से अत्यंत पुण्य प्राप्त होता है। ये सोमेश्वर ही सोमनाथ है, जिनका मंदिर काठियावाड के वर्तमान जूनागढ़ राज्य में है।" चालुक्य वंश का भीम प्रथम उस समय काठियावाड़ का शासक था। महमूद के आक्रमण की सूचना मिलते ही वह भाग खड़ा हुआ।

महमूद ने सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग तोड़ डाला। मंदिर को ध्वस्त किया। हज़ारों पुजारी मौत के घाट उतार दिए और वह मंदिर का सोना और भारी ख़ज़ाना लूटकर ले गया। अकेले सोमनाथ से उसे अब तक की सभी लूटों से अधिक धन मिला था। उसका अंतिम आक्रमण 1027 ई. में हुआ। उसने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया था। और लाहौर का नाम बदलकर महमूदपुर कर दिया था। महमूद के इन आक्रमणों से भारत के राजवंश दुर्बल हो गए और बाद के वर्षों में मुस्लिम आक्रमणों के लिए यहां का द्वार खुल गया।

महमूद के समय के लेखक और उनके ग्रंथ

महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों को जिन लेखकों ने अपनी आँखों से देखकर लिपिबद्ध किया, उनमें 'महमूद अलउत्वी, बुरिहाँ, अलबरूनी और इस्लाम वैराकी' प्रमुख हैं । उनके लिखे हुए विवरण भी उपलब्ध होते हैं।

  1. महमूद अलउत्वी– यह महमूद ग़ज़नवी का मीर मुंशी था, हालाँकि आक्रमणों में वह साथ में नहीं था। उसने सुबुक्तगीन तथा महमूद के शासन-काल का सं. 1077 तक का इतिहास अरबी भाषा में अपनी किताब "उल-यमीनी" में लिखा है। इस किताब में महमूद के सं. 1077 तक के आक्रमणों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उसका विवरण पक्षपात पूर्ण है। उसने भारतीयों की दुर्बलता और विदेशी मुसलमान आक्रमणकारियों की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण किया है।
  2. अलबेरूनी– मुस्लिम लेखकों में अलबेरूनी का विवरण प्रायः पक्षपात रहित है। वह भारतीय दर्शन, ज्योतिष, इतिहास, आदि का उत्कृष्ट विद्वान् और धीर गम्भीर प्रकृति का लेखक था। उसका जन्म एक छोटे से राज्य ख्यादिम में 4 सितंबर सन् 973 में हुआ था। वह महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों में उसके साथ रहा था, किंतु उसको लूट-मार से कोई मतलब नहीं था। वह भारतीयों से निकट संबंध स्थापित कर उनकी भाषा, संस्कृति, धर्मोपासना एवं विद्या-कलाओं की जानकारी प्राप्त करने में लगा रहता था। उसकी सीखने की क्षमता ग़ज़ब की थी। थोड़ी ही कोशिश में बहुत सीखने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी। भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसने संस्कृत एवं प्राकृत भाषाएँ सीखी थीं, और उनके ग्रंथो का अध्ययन किया था। उसने अनेक भारतीय ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भी किया।
  3. इमाम वैराकी– उसका पूरा नाम इमाम, अबुल फ़ज़ल वैराकी था। वह महमूद ग़ज़नवी के दरबार में हाकिम था। उसने जो ग्रंथ लिखा, उसका नाम "तारीख़-ए-अरब-ए-सुबुक्तगीन" अर्थात सुबुक्तगीन वंश का इतिहास। इसमें सुबुक्तगीन और उसके पुत्र-पौत्र महमूद ग़ज़नवी एवं उसके शासन-काल की घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें प्रासंगिक रूप से महमूद के भारतीय आक्रमणों का भी कुछ विवरण लिखा गया है, जो उल्लेखनीय ईमानदारी का प्रमाण है। यह ग्रंथ तीन भागों में है किंतु इस समय उसका केवल तीसरा भाग ही उपलब्ध है। आरंभ के दो भाग नष्ट हो गये। उपलब्ध भाग फ़ारसी भाषा में है।

तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

इसके बाद भारत में महमूद के आक्रमणों का उद्देश्य यहाँ के मन्दिरों और उत्तर भारत के शहरों को लूटना तथा अपने विरुद्ध यहाँ के राजाओं को एक होने से रोकना था। इस प्रकार उसने पंजाब पहाड़ियों में नगरकोट तथा दिल्ली के निकट थानेसर पर चढ़ाई की। उसका सबसे बड़ा आक्रमण 1018 में कन्नौज तथा 1025 में गुजरात में सोमनाथ पर हुआ। कन्नौज के अपने अभियान के दौरान उसने कन्नौज के साथ-साथ मथुरा का भी विध्वंस किया और अपार सम्पत्ति के साथ बुंदेलखण्ड से कालिंजर होता हुआ स्वदेश लौट गया। अपने इन अभियानों में वह इसलिए सफल हुआ क्योंकि उस समय उत्तरी भारत में एक भी शक्तिशाली राज्य नहीं था। महमूद ने इन क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया। उन दिनों सोमनाथ का मन्दिर अपनी अपार सम्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था। उसे लूटने के लिए महमूद मुल्तान से राजस्थान होते हुए सोमनाथ बिना किसी विशेष बाधा के या विरोध के पहुँच गया। भारत में पंजाब के बाहर यह उसका अन्तिम अभियान था।

महमूद को केवल एक लुटेरा कहकर उसकी भूमिका की अनदेखी करना उचित नहीं होगा। पंजाब और मुल्तान पर उसकी विजय से उत्तरी भारत की राजनीतिक स्थिति बिल्कुल बदल गई। अब तुर्क भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा करने वाले पहाड़ों को पार कर कभी भी गंगा प्रदेश में आक्रमण कर सकते थे। फिर भी वे डेढ़ सौ वर्षों तक इस क्षेत्र को अपने अधिकार में नहीं ले सके। इसका कारण हमें इस काल में मध्य एशिया तथा उत्तर भारत में तेज़ी से होने वाले परिवर्तनों में मिलता है।

मृत्यु

अपने अंतिम काल में महमूद गज़नवी असाध्य रोगों से पीड़ित होकर असह्य कष्ट पाता रहा था। अपने दुष्कर्मों को याद कर उसे घोर मानसिक क्लेश था। वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से ग्रसित था। उसकी मृत्यु सं. 1087 (सन 1030, अप्रैल 30) में ग़ज़नी में हुई थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32 ।

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