पारिजात नवम सर्ग

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
Disamb2.jpg पारिजात एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पारिजात (बहुविकल्पी)
पारिजात नवम सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग नवम सर्ग
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
पारिजात षष्ठ सर्ग
पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

सांसारिकता

(1) स्वभाव

गोद में ले रखता है प्यारे।
सरस बन रहता है अनुकूल।
मुदित हो करती है मधुदान।
भ्रमर से क्या पाता है फूल॥1॥

धारा कर प्रबल पवन का संग।
भरा करती है नभ में धूल।
गगन बरसाता है वर वारि।
बनाकर वारिद को अनुकूल॥2॥

सदा दे-दे सुन्दर फल-फूल।
विटप करता है छाया-दान।
वृथा कोमल पत्तों को तोड़।
पथिक करता है तरु-अपमान॥3॥

ओस की बूँदों को ले रात।
सजाती है तरु को कर प्यारे।
दिवस लेकर किरणों को साथ।
छीन लेता है मुक्ता-हार॥4॥

प्यारे से भर विलोक प्रियकान्ति।
पास आता है मत्त पतंग।
जलाकर कर देता है राख।
स्नेहमय दीपक भरित-उमंग॥5॥

बोल तक सका नहीं मुँह खोल।
दूर ही रहा सब दिनों सूर।
रागमय ऊषा कर अनुराग।
माँग में भरती है सिन्दूर॥6॥

पपीहा तज वसुधा का वारि।
ताकता है जलधार की ओर।
बरसकर बहुधा उपल-समूह।
डराता है घन कर रव घोर॥7॥

पला सब दिन कोकिल का वंश।
काक के कुल का पाकर प्यारे।
आज तक कोकिल-कुल-संभूत।
कर सका कौन काक उपकार॥8॥

(2) विचित्र विधन

मिला जिससे जीवन का दान।
सतत कर उसी तेल का नाश।
निज प्रिया बत्ती को कर दग्धा।
दीप पाता है परम प्रकाश॥1॥

जी सके जिनसे पा रवि ज्योति।
उन्हीं पत्रों के हो प्रतिकूल।
विटप बनते हैं बहु छविधाम।
लाभ कर नूतन दल-फल-फूल॥2॥

हुआ है जिससे जिसका जन्म।
जो बना जीवन शान्ति-निकुंज।
धूल में उसी बीज को मिला।
अंकुरित होता है तरुपुंज॥3॥

छीनकर तारक-चय की कांति।
भव भरित तम पर कर पविपात।
सहस कर से हर विधु का तेज।
भानु पाता है प्रिय अवदात॥4॥

कुमुद-कुल को कर कान्ति-विहीन।
कौमुदी-उर पर कर आघात।
हरण कर रजनी का सर्वस्व।
प्रभा पाता है दिव्य प्रभात॥5॥

वायु की शीतलता को छीन।
आपको देकर बहु संताप।
दिशाओं में भर पावक पुंज।
प्रबल बनता है तप उत्ताकप॥6॥

अवनि में नभतल में भर धूल।
द्रुमावलि को दे-दे बहु दंड।
हरण करके अगणित प्रिय प्राण।
वात बनता है परम प्रचंड॥7॥

दमन करके दल दुर्दमनीय।
विपुल नृप-भुज-बल का बन काल।
लोक में भर प्रभूत आतंक।
प्रबलतम बनता है भूपाल॥8॥

(3) राजसत्ता

मुकुट होता है शोणित-सिक्त।
राज-पद नर-कपाल का ओक।
घरों में भरता है तमपुंज।
राजसिंहासन का आलोक॥1॥

बंधुओं का कर शोणित-पान।
नहीं उसको होता है क्षोभ।
पिता का करता है बलिदान।
किसी का राज्य-लाभ का लोभ॥2॥

झूमता चलता है जिस काल।
काँपता है अचला सब अंग।
मसलता है जन-मानस-पाल

र्श्नि

दमन का बरसे ज्वलदंगार।
मनुज-कुल का होता है लोप।
धारातल को करता है भस्म।
प्रलय-पावक-समान नृप-कोप॥4॥

भंग करके सद्भाव समेत।
मनुजता का अनुपम-तम अंग।
नर-रुधिकर से रहता है सिक्त।
सुरंजित राजतिलक का रंग॥5॥

बना बहु प्रान्तों को मरुभूमि।
विविध सुख-सदनों का बन काल।
जनपदों का करता है धवंस।
राजभय प्रबल भूत-भूचाल॥6॥

लोक में भरती हैं आतंक।
लालसाओं की लहरें लोल।
भग्न करते हैं भवहित-पोत।
राज्य-अधिकार-उदधिक-कल्लोल॥7॥

गर्व-गोलों से कर पवि-पात।
अरि-अनी का करती है लोप।
कँपाती है महि को कर नाद।
राज्य-विस्तार-वृत्तिक की तोप॥8॥

(4) सेमल की सदोषता

पाकर लाल कुसुम सेमल-तरु रखता है मुँह की लाली।
रहती है सब काल लोक-अनुरंजन-रत उसकी डाली।
नभतल नील वितान-तले जब उसके सुमन विलसते हैं।
तब कितने ही ललक-निकेतन जन-नयनों में बसते हैं॥1॥

मंद-मंद चल मलय-मरुत जब केलि-निरत दिखलाता है।
तब लालिमा-लसित कुसुमों का कान्त केतु फहराता है।
लोहित-वसना उषा विलस जब उसे अंक में लेती है।
सरस प्रकृति जब द्रवीभूत हो मुक्तावलि दे देती है॥2॥

तब वह फूला नहीं समाता, आरंजित बन जाता है।
सहृदय जन के मधुर हृदय में रस का स्रोत बहाता है।
हरित नवल दल उसके कुसुमों में जब शोभा पाते हैं।
जब उसपर पड़ दिनकर के कर कनक-कान्ति फैलाते हैं॥3॥

जब कोकिल को ले स्वअंक में वह काकली सुनाता है।
जब उस पर बैठा विहंग-कुल मीठे स्वर से गाता है।
तब वह किसको नहीं रिझाता, किसको नहीं लुभाता है।
किसको नहीं स्वरित हो-होकर विपुल विमुग्ध बनाता है॥4॥

अति चमकीली चारु मक्खियाँ तथा तितलियाँ छविवाली।
रंग-बिरंगे सुन्दुर-सुन्दर बहु पतंग शोभाशाली।
जब प्रसून का रस पी उड़-उड़ मंजु भाँवरें भरते हैं।
तब क्या नहीं मुग्धकारी निधिक उसको वितरण करते हैं॥5॥

तो भी कितने हृदयहीन जन वंचक उसे बनाते हैं।
कितने नीरस फल विलोक उसको असरस बतलाते हैं।
पर विचित्रता क्या है इसमें, भूतल को यह भाता है।
धारती में प्राय: पर का अवगुण ही देखा जाता है॥6॥

(5) दुरंगी दुनिया
 
अजब है रंगत दुनिया की।
बदलती रहती है तेवर।
किसी पर सेहरा बँधाता है।
उतर जाता है कोई सर॥1॥

किसी का पाँव नहीं उठता।
किसी को लग जाते हैं पर।
धूल में मिलता है कोई।
बरसता फूल है किसी पर॥2॥

(6) निर्मम संसार

वायु के मिस भर-भरकर आह।
ओस-मिस बहा नयन-जलधार।
इधार रोती रहती है रात।
छिन गये मणि-मुक्ता का हार॥1॥

उधार रवि आ पसार कर कान्त।
उषा का करता है शृंगार।
प्रकृति है कितनी करुणा-मूर्ति।
देख लो कैसा है संसार॥2॥

(7) उत्थान

अहह लुट गया ओस का कोष।
हो गया तम का काम तमाम।
कुमुद-कुल बना विनोद-विहीन।
छिना तरु-दल-गत मुक्ता-दाम॥1॥

हर गया रजनी का सर्वस्व।
छिपा रजनी-रंजन बन म्लान।
हुआ तारक-समूह का लोप।
दिवाकर! यह कैसा उत्थान॥2॥

(8) फल-लाभ

चुन लिये जाते हैं लाखों।
अनेकों नुचते रहते हैं।
करोड़ों वायु-वेग से झड़।
विपद-धारा में बहते हैं॥1॥

धूल में मिलते हैं कितने।
बहुत-से विकस न पाते हैं।
सभी का भाग्य नहीं जगता।
सब कुसुम कब फल लाते हैं॥2॥

(9) मन की मनमानी

अड़े, बखेड़े खड़े हो गये।
पीछे पड़े, न किसे पछाड़ा।
डटे, बताई डाँट न किसको।
झझके, बड़े-बड़ों को झाड़ा॥1॥

उलझे, किसे नहीं उलझाया।
सुलझ न पाता है सुलझाये।
तिनके, बना बना तिनकों से।
फूँक से गये लोग उड़ाये॥2॥

आग-बगूले बने, कब नहीं।
किसके दिल में पड़े फफोले।
खिचें खिंच गयी हैं तलवारें।
बमके, चलते हैं बमगोले॥3॥

चिढ़े, सताता है वह इतना।
जिसे देखकर कौन न दहला।
ऐंठे, किससे लिया न लोहा।
दिया लहू से किसे न नहला॥4॥

बहँके, बला पर बला लाया।
कुढ़े, विपद ढाये देता है।
तमके, किसका कँपा कलेजा।
नहीं वह निकाले लेता है॥5॥

खीज, लहू पीती रहती है।
डाह, दूह लेती है पोटी।
तेवर बदले, कितनों ही की।
नुच जाती है बोटी-बोटी॥6॥

बिगड़े, बहुतों की बिगड़ी है।
अकड़े, लुटते लाखों घर हैं।
सनके, खालें है खिंच जाती।
झगड़े, कटे करोड़ों सर हैं॥7॥

रह जाती हैं, मति की बातें।
बनकर पानी पर की खा!
जब देखा तब नर के मन को।
मनमानी ही करते देखा॥8॥

(10) स्वार्थ

कौन किसी का होता है।
स्वार्थसिध्दि के सरस खेत में प्यारे-बीज नर बोता है।
सब छूटे वह हथकंडों से हाथ भला कब धोता है।
पोत दूसरों को दे मोती अपने लिए पिरोता है।
सग से भी सग को दुख देते तनिक नहीं मन रोता है।
मोह ऍंधोरी रुचि-रजनी में सुख की नींदों सोता है।
जिससे पड़े स्वार्थ में बाधा जो वैभव को खोता है।
वह प्रिय सुत भी ऑंख फोड़नेवाला बनता तोता है।
सुख-सरवर के लिए नहीं बन पाता जो रस-सोता है।
है ऐसा उर कौन कि जिसमें काँटे नहीं चुभोता है।
हुई न परवा पर-मन को निज मन की रोटी पोता है।
निज सुख-साधा-तरंगों में पर-सुख का पोत डुबोता है।
स्वार्थ-भाव से ही उजड़ा दिव-भाव-विहंगम-खोता है।
उसके कर ने मसि मानवता रुचिर चित्रा पर पोता है॥1॥

(11) रक्तपात

रक्तरंजित है भव-इतिहास।
रुधिकर-पान के बिना नहीं बुझ पाती है वसुधा की प्यासे।
है विकराल काल कापालिक क्रीडा-रत ले विपुल कपाल।
काली बहुत किलकिलाती है मुंडमालिनी बन सब काल।
जो शिवशंकर कहलाते हैं कार्य उन्हीं का है संहार।
शव-वाहना प्रिया है, उनका सिंह-वाहना से है प्यारे।
दुर्गा-दानव-रण में इतना हुआ रक्त-प्लावित भूअंक।
एक पिपासित खग ने गिरि पर बैठे रुधिकर पिया निश्शंक।
राम और रावण आहव में उतना हुआ न रक्त-प्रवाह।
फिर भी खग ने मेरु से उतर पूरी की थी शोणित-चाह।
कहाँ हुआ, कब हुआ, हुआ किससे, भारत-सा युध्द महान।
रक्तपान की बात क्या, विहँग सका नहीं इतना भी जान।
यद्यपि यह प्रतिपादित करता है यह कल्पित समर-प्रसंग।
अतिशय पशुता-निर्दयता-पूरित था आदिम युध्द-उमंग।
किसी अंश में विबुध विवेचक मति सकती है इसको मान।
किन्तु सत्य है यह, दानव मानव दोनों हैं एक समान।
अवसर पर दानवता करते कब मानवता हुई सशंक।
लाखों घर लुट गये, करोड़ों कटे-पिटे होते भूर बंक।
कभी राज्य-विस्तार-लालसा ले कठोर कर में करवाल।
लाख-लाख लोगों का लोहू करती है कर ऑंखें लाल।
कभी आत्म-रक्षण-निमित्त अथवा आतंक-प्रसारण-हेतु।
प्रबल प्रताप किसी का बनता है जग-जन-उत्पीड़न-केतु।
निरपराध हैं पिसे करोड़ों, अरबों दिये गये हैं भून।
अनायास नुच गये कोटिश: सुन्दर-सुन्दर खिले प्रसून।
क्यों? इसलिए कि किसी नराधाम नृप के ये थे प्यारे खेल।
अथवा किसी पिशाच-प्रकृति का चिढ़ से उठ पाया था शेल।
लाखों के लोहू से गारा बन-बन हुए हरम तैयार।
धार्मान्तर के लिए करोड़ों शिर उत, चमकी तलवार।
वैज्ञानिक बहु अस्त्रा-शस्त्रा अब जितने करते हैं उत्पात।
विधवंसक रणपोत आदि से होते हैं जितने अपघात।
वायुयान-गोला-वर्षण से होता है जो हा-हाकार।
देखे नगर-धवंसिनी तोपों की वसुधातल में भरमार।
कैसे कह सकता है कोई, दानव-युग था महादुरन्त।
सच तो यह है, दुर्जनता का होता नहीं दिखाता अंत।
अधिक सभ्य अमरीका योरप को सब लोग रहे हैं मान।
आज इन्हीं को प्राप्त हो गये हैं वसुधा के सब सम्मान।
किन्तु इन्हीं देशों में अब है सा कल-बल-छल का राज।
स्वार्थसिध्दि के रचे गये हैं नाना साधन कर बहु ब्याज।
इसीलिए रणचंडी की है वहाँ गर्जना परम प्रचंड।
होता है यह ज्ञात युध्द से कम्पित होवेगा भूखंड।
क्या है यही विधन प्रकृति का, क्या है शिव का यही स्वरूप।
क्या विकराल काल काली के तांडव का ही है यह रूप।
जो हो, किन्तु देखकर सारी घटनाएँ होता है ज्ञात।
शाक्तिवृध्दि औ स्वार्थसिध्दि का मूल मंत्र है शोणित-पात॥1॥

(12) मतवाली ममता

मानव-ममता है मतवाली।
अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली।
अपनी ही रंगत में रँगकर रखती है मुँह-लाली।
ऐसे ढंग कहाँ वह जैसे ढंगों में है ढाली।
धीरे-धीरे उसने सब लोगों पर ऑंखें डाली।
अपनी-सी सुन्दरता उसने कहीं न देखीभाली।
अपनी फुलवारी की करती है वह ही रखवाली।
फूल बखे देती है औरों पर उसकी गाली।
भरी व्यंजनों से होती है उसकी परसी थाली।
कैसी ही हो, किन्तु बहुत ही है वह भोलीभाली॥1॥

(13) बल

विश्व में है बल ही बलवान।
कौन पूछता है अबलों को, सबलों का है सकल जहान।
जल में, थल में, विशद गगन में एकछत्रा है उनका राज।
सफल सुसेवित सम्मानित है उनका उन्नत प्रबल समाज।
होते हैं विलोप पल-भर में अगणित ताराओं के ओक।
प्रभा-हीन बनता है शशधार रवि का तेज:-पुंज विलोक।
विभावरी तजती है विभुता, उज्ज्वल हो जाता है व्योम।
दिनमणि का प्रताप-बल देखे विदलित होता है तमतोम।
हुई धारा शासित सबलों से, नभ में उड़े विजय के केतु।
किसी सबल कर के द्वारा ही बाँधा गया सिन्धु में सेतु।
दुर्बल छोटे जीव बड़े सबलों के बनते हैं आहार।
दिखलाते हैं जल में थल में प्रतिदिन ऐसे दृश्य अपार।
तनबल जनबल धनबल विद्याबुध्दिबलादिक का सम्मान।
कहाँ नहीं कब हुआ, सब जगह ए ही माने गये महान।
जीवनमय है सबल पुरुष, जीवन-विहीन है निर्बल लोक।
निर्बलता है तिमिर, सबलता है वसुधातल का आलोक॥1॥

(14) अनर्थ-मूल स्वार्थ
 
स्वार्थ ही है अनर्थ का मूल।
औरों का सर्वस्व-हरण कर कब उसको होती है शूल।
तबतक सुत सुत है वनिता वनिता है उनसे है बहु प्यारे।
स्वार्थदेव का उनके द्वारा जबतक होता है सत्कार।
अन्तर पड़े चली दारा सुत की ग्रीवा पर भी तलवार।
कटी भाइयों की भी बोटी, हुई पिता पर भी है वार।
अवलोकन के लिए अन्य का दुख वह होता है जन्मांधा।
तोड़ा करता है उसका हठ-प्लावन नीति-नियम का बाँधा।
कोई कटे पिटे लुट जावे छिने किसी के मुँह का कौर।
किसी का कलेजा निकले या जाय रंक बन जन-सिरमौर।
मसल जाय लालसा किसी की, किसी शीश पर हो पविपात।
किसी लोकपूजित के उर में लगे किसी पामर की लात।
इन बातों की कुछ भी परवा उसने किसी काल में की न।
तड़प-तड़पकर कोई चाहे बने बिना पानी का मीन।
सौ परदों में छिपकर भी करता रहता है अपना काम।
अवसर पर सब सद्भावों से वह बदला करता है नाम।
छल-प्रपंच का वह पुतला है, वह पामरता की है, मूर्ति।
अधाम कौन उसके समान है, वह है सब पापों की पूत्तिक।
किन्तु जगत के प्राणिमात्रा के उर पर है उसका अधिकार।
हो असार संसार पर वही है सा सारों का सार।
बड़े-बड़े त्यागी अवलोके, देखा बहुत बड़ों का त्याग।
ऐसे मिले महाजन जिनमें हरि का था सच्चा अनुराग।
किन्तु स्वार्थ उनमें भी पाया, हाँ, बहु परवर्तित था रूप।
सरस सुधा से सिक्त हुआ था संसारी का नीरस पूप।
जीवन का सर्वस्व स्वार्थ है, बिना स्वार्थ का क्या संसार।
इसीलिए है प्राणिमात्रा पर उसका बहुत बड़ा अधिकार।
किन्तु मानवी दुर्बलता का हुआ न उससे सद्व्यवहार।
इसी हेतु वह बना हुआ है अत्याचारों का आधार।
जिसका सृजन हुआ करने को सा जीवों का उपकार।
बहुत दिनों से बना हुआ है वही अनर्थों का आगार।
प्रकृति-क्रियाएँ हैं रहस्यमय, अद्भुत है भव-पारावार।
मनुज पार पा सका न उसका यद्यपि हुआ प्रयत्न अपार।

(15) स्वार्थपरता

स्वार्थपरता है पामरता।
यह है सत्य तो कहेंगे हम किसे कार्य-तत्परता।
नाना बाधाएँ हैं सम्मुख, भय-संकुल है धारती।
विविध असुविधाएँ आ-आकर सुविधाएँ हैं हरती।
जो उनका प्रतिकार न होगा, कार्य सिध्द क्यों होगा।
यत्न ज्ञात हो तो कोई दुख क्यों जायगा भोगा।
दुरुपयोग है बुरा सदा, है सदुपयोग उपकारी।
कुपथ त्यागकर सतत सुपथ का बने मनुज अधिकारी।
स्वार्थ रहेगा जबतक समुचित निन्द्य बनेगा कैसे।
पर न कनक-मुद्रा कहलायेंगे ताँबे के पैसे॥1॥

(16) दानव

पापी है वह माना जाता।
कर अपकार कुपथ पर चल जो पाप-परायणता है पाता।
जो है विविध प्रपंच-विधाता जो है मूर्तिमान मायावी।
जिसकी मति है लोक-धवंसिनी, जिसका मद है शोणित-स्रोवी।
अहंभाव जिसका है यम-सा, जिसके कौशल हैं पवि-जैसे।
नीति नागिनी-सी है जिसकी उसमें है मानवता कैसे।
कौन उसे मानव मानेगा जिसे काल कहती है जनता।
दानव अन्य है न, दानवता कर मानव है दानव बनता॥1॥

(17) नरता और पशुता

उस नरता से पशुता भली।
विधिक-विडम्बना से जो पामरता पलने में पली।
पशुता ने कब नरता की-सी टेढ़ी चालें चली।
कब उसके समान ही वह कुत्सित ढंगों में ढली।
नरता दुर्मति-ज्वालाओं में जैसी जनता जली।
उसके भय से पड़ी जनपदों में जैसी खलबली।
जैसी उसने रोकी भयभीतों की रक्षित गली।
वैसी की है कब पशुता ने, वह कब भव को खली।
नरता लाई बला लोक पर दे-दे मिसरी-डली।
पशुता से यों भोली जनता कहाँ गयी कब छली।
पशुता में वह शक्ति कहाँ, हों पास भले ही बली।
नरता-दर्पों से वसुन्धारा गयी नहीं कब दली॥1॥

(18) जीव का जीवन जीव

जीवों का जीवन है जीव।
यह जीवन-संग्राम जगत का है कौतूहल-जनक अतीव।
जल-थल-अनल-अनिल में नभ में होता रहता है दिन-रात।
कोटि-कोटि जीवों का पल-पल कोटि-कोटि जीवों से घात।
छोटे-छोटे कीट बड़े कीटों के बनते हैं आहार।
बड़े-बड़े कीटों को खाते रहते हैं खग-वृन्द अपार।
निर्बल खग को पकड़-पकड़कर पलते हैं सब सबल सचान।
पशु-समूह में भी मिलता है विधिक का यही विचित्र विधन।
बड़ी मछलियाँ छोटी मछली को खा जाती हैं तत्काल।
बड़ी मछलियों को लेता है मकर उदर में अपने डाल।
ऐसे अद्भुत दृश्य अनेकों दिखलाता है वारिधिक-अंक।
वह सब काल बना रहता है महाकाल का प्रिय पर्यंक।
बड़े-बड़े विकराल जीव का होता है पल-भर में लोप।
उसको उदरसात करता है किसी प्रबल का महाप्रकोप।
मनुज-उदर है किसी पयोनिधिक से भी बृहत् और गम्भीर।
जिसमें समा सके हैं जग के सभी जीव धार विविध शरीर।
स्वजातीय को भी पामर नर खा जाता है सर्प-समान।
इतर प्राणियों-सा है वह भी, बने भले ही ज्ञान-निधन।
बलवानों की है वसुन्धारा, बलवानों का है संसार।
निर्बल मिटते हैं, होती है सदा सबल की जय-जयकार।
प्रकृति-नटी के रंगमंच के सकल दृश्य हैं बड़े विचित्र।
कोई नहीं समझ पाता है उसके चित्रिकत चित्रा चरित्रा॥1॥

(19) जगत-जंजाल

हैं भव-जाल जगत-जंजाल।
भूलभुलैयाँ की-सी उसकी भूल-भरी है चाल।
नाना अवसर विविध परिस्थिति बाधाएँ विकराल।
सदा समाने ला देती हैं परम अवांछित काल।
विविध प्रकृतियों के मानव देते हैं झंझट डाल।
कोप न होगा क्यों वैरी को देख बजाते गाल।
है वह पामर जो न सके अपना सर्वस्व सँभाल।
सबसे अधिक विचारणीय है भव में भूति-सवाल।
होगा वह न अकण्टक जो पथ-कंटक सका न टाल।
वह असि-वार सहेगा जिसके पास न होगी ढाल।
विधिक-प्रपंच-कृत गरल-सुधामय है वसुधा का थाल।
जटिल क्या, जटिलतम है जग के जंजालों का हाल॥1॥

(20) शार्दूल-विक्रीडित

व्याली-सी विष से भरी विषमता आपूरिता क्रोधाना।
अन्धाकधुन्धा-परायणा कुटिलता की मूर्ति व्याघ्रानना।
है अत्यन्त कठोर उग्र अधामा, है लोक-संहारिणी।
है दुर्दान्त नितान्त वज्र-हृदया स्वार्थान्धाता-दानवी॥1॥

होती है मधुरा सुधा-सरसता से सिंचिता शोभना।
नाना केलि-निकेतना सुवसना शांता मनोज्ञा महा।
लीला लोल तरंगिता उदधिक-सी चिन्तांकिता आकुला।
है सांसारिकता महान गहना मोहान्धाता-आवृता॥2॥

कांक्षा है अनुरक्त भक्त जन को सद्भक्ति या मुक्ति की।
ज्ञानी को बहु ज्ञान की, विबुध को लोकोत्तारा बुध्दि की।
त्यागी को अनुभूत त्याग-सुख की, योगीन्द्र को सिध्दि की।
है सांसारिकता न स्वार्थ-रहिता, निस्स्वार्थता है कहाँ॥3॥

मैं हूँ ब्रह्म-समान व्याप्त सबमें, हूँ सर्वलोकेश्वरी।
हूँ अद्भुत समस्त भूति खनि, हूँ सर्वार्थ की साधिकका।
हूँ सारी वसुधा-विभूति-जननी, हूँ शक्ति-संचारिणी।
है सांसारिका पुकार कहती, मैं स्वार्थसर्वस्व हूँ॥4॥

होती है सुख-कामनातिप्रबला है लालसा-लोलुपा।
प्यारे हैं भव-भोग, मुग्ध करती हैं भूयसी भूतियाँ।
तो भी है वह प्रेम, प्रेम? जिसमें है इन्द्रियासक्तता।
तो क्या हैं हितपूर्तियाँ यदि बनीं वे स्वार्थ की मूर्तियाँ॥5॥

सा धर्म-समाज भूमितल के जो दंभसर्वस्व हैं।
पाते हैं जिनमें महाविषमता जो द्वेष-उन्मेष हैं।
जो हैं गौरव गर्व ईति जिनमें है वृत्तिक-उन्मत्ताता।
क्या वे हैं परमार्थ-मूर्ति जिनमें स्वार्थान्धाता है भरी॥6॥

उत्फुल्ला सरसा नितान्त मधुरा शान्ता मनोज्ञा महा।
नाना भाव-निकेतना विविधता आधारिता व्यंजिता।
हो अम्भोधिक-समान वैभवमयी हो व्योम-सी विस्तृता।
है सांसारिकता विहार करती सर्वत्र संसार में॥7॥

बातें हों मन की मिले सफलता सम्पत्तिक स्वायत्ता हो।
पूरी हो प्रिय कामना, सुगमता से सिध्दियाँ प्राप्त हों।
बाधाएँ सब काल बाधिकत बनें, हो वैरिता वंचिता।
ए हैं मानव की नितान्त रुचिरा स्वाभाविकी वृत्तिकयाँ॥8॥

क्या खाये-पहने क स्वहित क्यों मुद्रा कमाये न जो।
जायेगा लुट जो न बुध्दि-बल से टाले बलाएँ टलीं।
होगा रक्षित भी न ईति अथवा दुर्नीतियों से दबे।
संसारी फिर क्यों न जन्म जग में ले स्वार्थ-सर्वस्व हो॥9॥

वे हैं धान्य परार्थ त्याग करते जो लोग हैं स्वार्थ का।
ऐसे हैं कितने, परन्तु उनका तो त्याग ही स्वार्थ है।
होता है परमार्थ पूत उसमें है भूरि स्वर्गीयता।
तो भी क्या परमार्थ सार्थक नहीं जो अर्थ है स्वार्थ में॥10॥

कोई है जग में भला न, यह तो कोई कहेगा नहीं।
संसारी फिर भी प्रमत्त रहता है स्वार्थ की सिध्दि में।
कच्चे काम पड़े सगे बन गये, सच्चे न सच्चे रहे।
देखा जो दृग खोल बोल सुन के तो ढोल में पोल थी॥11॥

हैं ऐसे जन भी हुए जगत में जो त्याग-सर्वस्व थे।
देवों से अति पूत दिव्य जिनकी हैं मानवी कीत्तिकयाँ।
जाँचा तो उनकी असंख्य जन में संख्या गिनी ही मिली।
लाखों में कुछ लोग पुण्यबल से माने महात्मा गये॥12॥

ज्ञाता वैदिक मन्त्रा के प्रथमत:, धाता धारा-धर्म के।
नाना मान्य महर्षि विज्ञ मुनि से मन्वादि से दिव्य-धीरे।
मेधावी कपिलादि से विबुधता-सर्वस्व व्यासादि से।
पृथ्वी ने कितने जने सुअन हैं उद्बुध्द सिध्दार्थ-से॥13॥

मूसा-से जरदश्त-से अरब के नामी नबी-से सुधी।
शिंटो धर्मधुरीण-से कुछ गिने चीनादि के सिध्द-से।
ऐसे ही कुछ अन्य धर्मगुरु-से धार्माग्र्रणी व्यक्ति से।
हैं अत्यल्प हुए सदैव महि में ईसादि-से सद्व्रती॥14॥

है अधयात्म महा पुनीत, तम में है तेज के पुंज-सा।
है विज्ञान विकासमान नभ का पीयूषवर्षी शशी।
है स्वार्थान्धा-विलोचनांजन तथा सद्भाव-अंभोधिक है।
है आधार त्रिकलोक-शान्ति-सुख का सद्बोधा-सर्वस्व है॥15॥

होती है जब पाप-पूरित धारा सद्वृत्तिक उत्पीड़िता।
पाती है पशुता प्रसार बनती स्वार्थान्धाता है कशा।
होता है जब नग्न नृत्य दनुजों के दानवी कृत्य का।
आता है तब मही-मध्य बहुधा कोई महा-दिव्य-धी॥16॥

होता है वह देश-काल प्रतिभू सत्याग्रही संयमी।
देता है बहु दिव्य ज्योति जगती के प्राणियों में जगा।
लेता है बिगड़ी सुधार, करता उध्दार है धर्म का।
पाती है वसुधा अलौकिक सुधा सद्बोधा-सर्वस्व से॥17॥

कोई हो अवतार दिव्य जन हो या हो महा सात्तिवकी।
शिक्षा हो उसकी महा हितकरी, हो उक्ति लोकोत्तारा।
होंगे क्या तब भी सभी रुचिरधीरे, त्यागी, तपस्वी, यती।
क्या होगी तब भी समस्त वसुधा हो शान्त स्वर्गोपमा॥18॥

है स्वाभाविक कामना स्वहित की, है वित्ता-वांछा बली।
प्राणी की सुख-लालसा सहज है, है चित्त स्वार्थी बड़ा।
पंजे में इनके सदा जग रहा, कैसे भला छूटता।
वे हैं विश्वजनीन भूति यदि ए संसार-सर्वस्व हैं॥19॥

क्या है मुक्ति? यथार्थ ज्ञान इसका है प्राणियों को कहाँ।
कोई मानव हो रहस्य इसका है जान पाता कभी।
चिन्ता है किसको नहीं उदर की है जीविका जीवनी।
प्यारी है उतनी न मुक्ति जितनी है भुक्ति भू की प्रिया॥20॥

ऑंखें हैं छवि-कांक्षिणी, श्रवण है लोभी सदालाप का।
जिह्ना है रस-लोलुपा, सुरभि की है कामुका नासिका।
सारी प्रेय विभूति को विषय को हैं इन्द्रियाँ चाहती।
जाता है बन योग रोग, किसको है भोग भाता नहीं॥21॥

तो है कौन विचित्र बात मन में जो है भरी मत्तता।
है आश्चर्य नहीं मनुष्य बनता जो स्वार्थ-सर्वस्व है।
जो है जीव ममत्व से भरित तो क्या है हुआ अन्यथा।
क्या है भौतिकता न भूत-चय की स्वाभाविकी प्रक्रिया॥22॥

होती है तम-मज्जिता मलिनता-आपूरिता ज्यों तमा।
त्यों ही मानव की प्रवृत्तिक रहती है स्वार्थ से आवृता।
जैसे तारक से मयंक-कर से पाती निशा है प्रभा।
त्यों ही है वर बोध से नृमति भी है दिव्य होती कमी॥23॥

आचार्यों महिमा-महान पुरुषों से प्राप्त सद्वृत्तिकयाँ।
होती हैं उपकारिका हितकरी सद्बोधा-उत्पादिका।
वे हैं आकर यथाकाल करते उद्बुध्द संसार को।
तो भी स्वार्थ-प्रवृत्तिक-वृत्तिक जनता है त्याग पाती नहीं॥24॥

है आवश्यक वस्तु व्यस्त रखती देती व्यथा है क्षुधा।
बाधा है सब काल व्याधिक बनती है वैरिता बेधाती।
है दोनाकर बाँधाती विवशता, है व्यर्थता बाँट में।
प्राणी स्वार्थनिबध्दा दृष्टि-सुपथों में विस्तृता क्यों बने॥25॥

ऐसे हैं महि में मिले सुजन भी जो त्याग की मूर्ति थे।
लोगों का हित था निजस्व जिनका जो थे परार्थी बड़े।
ए लोकोत्तर धर्मप्राण जन ही भू दिव्य आदर्श हैं।
होते हैं अपवाद, लोक कितने ऐसे मिले लोक में॥26॥

औरों का मुँह-कौर छीन, भरते हैं पेट भूखे हुए।
लोगों की विविध विभूति हरते हैं, भीति होती नहीं।
होते हैं बहु लोग तृप्त बहुधा पीके सगों का लहूँ।
होवे क्यों न अधर्म, स्वार्थ इतना है धर्म प्यारा किसे॥27॥

माता हैं महि देवता, पर हुए भीता कलंकांक से।
हाथों से अपने अबोध सुत का है घोंट देती गला।
जो थे देव-समान, संकट पड़े, वे दानवों-से बने।
कोई हो उपलब्धा आत्महित को है त्याग पाता नहीं॥28॥

वेदों की भव-वन्दनीय श्रुति को शास्त्राकदि के मर्म को।
सन्तों की शुचि उक्ति को जगत के सध्दार्म के मन्त्रा को।
जाती है तब भूल भक्ति-पथ को विज्ञान की वृत्तिक को।
होती है जब मत्त आत्मरति की वांछा बलीयान हो॥29॥

कानों ने कलिकाल के कब सुनी ऐसी महागर्जना।
हो पाई कब यों कठोर रव से शब्दायमाना दिशा।
हो पाया किस देश मध्य उतना कोलाहलों को बढ़ा।
होता है अब वज्रघोष जितना भू में अहंभाव का॥30॥

सा भूतल में समुद्र-जल में युध्दाग्नि-ज्वाला जगा।
ओले से नभ-यान से दव-भ गोले गिरा प्रायश:।
नाना दानवता-प्रपद्बच-वलिता दुर्वृत्तिकयों को बढ़ा।
है भूलोक-विलोक-साधन-व्रती लिप्सा अहंभाव की॥31॥

नाना नूतन अस्त्रा-शस्त्रा तुपकें गोले बड़े विप्लवी।
हैं संहारक कोटि-कोटि जन के कल्पान्त के अर्क-से।
होते हैं उनसे विनष्ट नगरों के वृन्द तत्काल ही।
है विज्ञान-विभूति आज वसुधा-उद्भूति-विधवंसिनी॥32॥

छाये हैं बहु व्योमयान नभ में जो काल-से क्रूर हैं।
हो-हो हुंकृत ओत-प्रोत निधिक हैं संग्राम के पोत से।
पृथ्वी में उन्मादपूर्ण बजती है द्वंद्व की दुन्दुभी।
प्राय: है अब भ्रान्ति क्रांति बनती, भूशान्ति भागे कहाँ॥33॥

अत्याचार-रता कठोर-हृदया है रक्तपानोत्सुका।
है संहार-परायणा पवि-समा मांसाशिनी पापिनी।
नाना मानव-वंश-धवंस-निरता निन्द्या कृतान्तोपमा।
है कृत्या सम कूटनीति-कटुता-आपूरिता मेदिनी॥34॥

है पाथोधिक विभूति दान करता स्वायत्ता है सिंधुजा।
पृथ्वी है वर्शवत्तिकनी अनुगता है दामिनी शासिता।
पंखा है झलता समीर, मुसका देता सुधा है शशी।
फूला है बन भाव-मत्त, भव को, भूला अहंभाव है॥35॥

होवे जो हित पाप से वह उसे तो पुण्य है मानता।
अत्याचार किये मिले यदि धारा तो क्या सदाचार है।
जो हो लाभ किये कुवृत्तिक तब क्यों सद्वृत्तिक सद्वृत्तिक है।
है सांसारिकता न ईश्वर-रता, है स्वार्थसिध्दिप्रदा॥36॥

ज्ञाता होकर विश्वव्याप्त विभु के जो हैं बने पातकी।
ऑंखें जो नर की बचा प्रभु-दृगों में धूल हैं झोंकते।
जो हो आस्तिक मूर्तिमान बनते हैं नास्तिकों के चचा।
वे हैं ईश्वर मानते, मन भला क्यों मान लेगा इसे॥37॥

होती है कब भीति लोकपति की काटे करोड़ों गले।
आता है कब धयान पूत प्रभु का संसार को पीसते।
काँपा कौन नृशंस सर्वगत के सर्वाश्रितों को सता।
हारी ईश्वरसिध्दि कर्मपथ में आस्वार्थ की सिध्दि से॥38॥

हृद्या ईश्वरता हुई न इतनी हो मुक्ति से मंडिता।
पाके दिव्य मनोज्ञ मूर्ति जितनी भाई अहंमन्यता।
प्यारी हैं उतनी कभी न लगती आधयात्मिकी वृत्तिकयाँ।
भाती है जितनी विभूति-रत को भू भौतिकी प्रक्रिया॥39॥

प्राणी है अनुरक्त भक्त जितना संसार-सम्पत्तिक का।
प्यारी है उतनी उसे न तपसा-सम्बन्धिकनी साधना।
भोगेच्छा जितनी रुची, प्रिय लगी वांछा सुखों की यथा।
वैसी ही कब त्यागवृत्तिक नर की आकांक्षिता हो सकी॥40॥

होता है पर-कार्य पूत, जनता का श्रेय सत्कर्म है।
तो भी त्राकण-निमित्त आत्महित का उद्बोधा ही मुख्य है।
होवे मुक्ति महा विभूति, फिर भी है भुक्ति ही जीवनी।
सच्चा हो परलोक, किन्तु मिलता आलोक है लोक में॥41॥

होता देख महा अनर्थ बनता कोई परार्थी नहीं।
होते भी अपकार कौन करता सत्कार है अन्य का।
मर्यादा प्रिय है किसे न, किसको है नाम प्यारा नहीं।
सत्ता है किसकी न भूति, किसको भाती महत्ता नहीं॥42॥

बाधा की हरती अबाधा गति है धीरे धीरता से भरी।
वैरी के बल को विलोप करती हैं वीरता-वृत्तिकयाँ।
देती है कर छिन्न-भिन्न उसको सत्ता-महत्ता दिखा।
दुष्टों की पशुता-प्रवृत्तिक सहती है शक्तिमत्तक नहीं॥43॥

जोड़े क्यों हित क्रुध्द क्रूर नर से पा प्रार्थिता शक्तियाँ।
मोड़े क्यों मुख, रुष्ट दुष्ट जन को कोड़े लगाये न क्यों।
छोड़े क्यों छल-छ-र्सि र्खंल को दे क्यों न धुर्रे उड़ा।
तोडे क्यों न कृतान्त-तुल्य बन के दुर्दान्त के दन्त को॥44॥

जैसी है त्रिकगुणात्मिका त्रिकगुण से है वैसि ही शासिता।
धू-धू है जलती प्रफुल्ल बनती होती सुधासिक्त है।
है दिव्या मधुरा महान सरसा स्वार्थान्धाता से भरी।
है सांसारिकता रहस्य-भरिता वैचित्रय से आवृता॥45॥

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख