धर्म (सूक्तियाँ)

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क्रमांक सूक्तियाँ सूक्ति कर्ता
(1) जो दृढ राखे धर्म को, नेहि राखे करतार।

जहाँ धर्म नहीं, वहां विद्या, लक्ष्मी। स्वास्थ्य आदि का भी अभाव होता है।
धर्मरहित स्थिति में बिलकुल शुष्कता होती है, शून्यता होती है।

महात्मा गाँधी
(2) पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर-पीड़ा सम नहिं अधमाई। संत तुलसीदास
(3) मनुष्य की धार्मिक वृत्ति ही उसकी सुरक्षा करती है। आचार्य तुलसी
(4) धर्मो रक्षति रक्षतः अर्थात् मनुष्य धर्म की रक्षा करे तो धर्म भी उसकी रक्षा करता है। महाभारत
(5) धार्मिक व्यक्ति दुःख को सुख में बदलना जानता है। आचार्य तुलसी
(6) धार्मिक वृत्ति बनाये रखने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं हो सकता और धार्मिक वृत्ति को खोने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। आचार्य तुलसी
(7) प्रलोभन और भय का मार्ग बच्चों के लिए उपयोगी हो सकता है। लेकिन सच्चे धार्मिक व्यक्ति के दृष्टिकोण में कभी लाभ हानि वाली संकीर्णता नहीं होती। आचार्य तुलसी
(8) शांति से बढकर कोई ताप नहीं, संतोष से बढकर कोई सुख नहीं, तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं और दया के सामान कोई धर्म नहीं। चाणक्य
(9) हर अवसर और हर अवस्था में जो अपना कर्त्तव्य दिखाई दे उसी को धर्म समझ कर पूरा करना चाहिए। गीता
(10) धर्म एक भ्रमात्मक सूर्य है जो मनुष्य के गिर्द धूमता रहता है जब तक मनुष्य मनुष्यता के गिर्द नहीं घूमता। कार्ल मार्क्स
(11) दो धर्मो का कभी झगड़ा नहीं होता, सब धर्मो का अधर्म से ही झगड़ा होता है। विनोबा
(12) धर्म परमेश्वर कि कल्पना कर मनुष्य को दुर्बल बना देता है, उसमे आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं होने देता और उसकी स्वतंत्रता का अपरहण करता है। नरेन्द्र देव

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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