तैत्तिरीय शाखा का यह तृतीय श्रौतसूत्र है। वास्तव में आचार्य आपस्तम्ब ने सम्पूर्ण कल्पसूत्र की रचना की है। इसकी विषय–वस्तु निम्नलिखित प्रकार से है:–
प्रश्न |
विषय
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1–4. |
दर्शपूर्णमास
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5. |
अग्न्याधेय
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6. |
अग्निहोत्र
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7. |
निरूढ पशुबन्ध
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8. |
चातुर्मास्ययाग
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9. |
प्रायश्चित्त
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10–13. |
अग्निष्टोम
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14. |
ज्योतिष्टोमान्तर्गत अन्य क्रतु
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15. |
प्रवर्ग्य
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16–17. |
अग्निचयन
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18. |
वाजपेय और राजसूय
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19. |
सौत्रामणी, काठकचयन, काम्यपशु, काम्येष्टि।
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20. |
अश्वमेध, पुरुषमेध तथा सर्वमेध।
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21. |
द्वादशाह, गवामयन तथा उत्सर्गिणामयन।
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22. |
एकाह और अहीन याग
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23. |
सत्रयाग
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24. |
परिभाषा, प्रवर, हौत्रक।
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25–26. |
गृह्यसूत्रगत मन्त्रपाठ
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27. |
गृह्यसेत्र
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28–29. |
धर्मसूत्र
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30. |
शुल्बसूत्र।
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इस प्रकार श्रौतसूत्र की व्याप्ति 24वें प्रश्न तक मानी जानी चाहिए।
भारद्वाज की आपस्तम्ब सूत्र से तुलना
उपलब्ध भारद्वाज श्रौतसूत्र की आपस्तम्ब सूत्र से तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि दोनों के विषय–क्रम में बहुत साम्य है। भारद्वाज के षष्ठ प्रश्न में पहले अग्न्युपस्थान और तत्पश्चात् अग्नहोत्र विधि है। आपस्तम्ब में इसके विपरीत पहले अग्निहोत्र विधि और तदन्तर अग्न्युवस्थान है। आपस्तम्ब के प्रायश्चित्त प्रश्न में अग्निहोत्र, इष्टि और पशु इनसे सम्बद्ध प्रायश्चित्त हैं। भारद्वाज में पशु सम्बन्धी प्रायश्चित्त नहीं हैं। भारद्वाज ने पूरे ज्योतिष्टोम की विधि संहत या संकलित रूप में दी है। आपस्तम्ब ने अग्निष्टोम की विधि देकर तत्पश्चात् उक्थ्य आदि विकृति यागों की विशेषताएँ बताईं हैं। आपस्तम्ब में प्रवर्ग्य विधि स्वतन्त्र प्रश्न के अन्तर्गत ज्योतिष्टोम के अनन्तर दी गई है। भारद्वाज में भी प्रवर्ग्य के लिए स्वतन्त्र प्रश्न है, किन्तु वह ज्योतिष्टोम के अन्तर्गत है। भारद्वाज ने सूत्र में पहले विध्यंश और तत्पाश्चात मन्त्र दिया है। आपस्तम्ब का क्रम इसके विपरीत है। भारद्वाज के ही सदृश आपस्तम्ब ने भी अपनी विधि के समर्थन में तैत्तिरीय ब्राह्मण, और कभी–कभी अन्य शाखीय ब्राह्मणों के भी उद्धरण दिए हैं। भिन्न मतों के भी उद्धरण हैं। ऐसे उद्धरणों के साथ ‘विज्ञायते’ शब्द का प्रयोग प्रचुर परिमाण में है। 'इत्युक्तम्', 'श्रूयते', 'एके', 'अपरम्' सदृश शब्द भी आते हैं। आपस्तम्ब ने कुछ 'काठका:', 'कौषीतकिन:', 'छन्दोगब्राह्मणम्', 'ताण्डकम्' प्रभृति वाक्य उपलब्ध ब्राह्मणों से दिए हैं, तो कुछ ब्राह्मण वाक्य सम्प्रति उपलब्ध ब्राह्मणों में नहीं मिलते। कङ्कति, कालबवि, पैङ्गायनि प्रभृति ब्राह्मण ग्रन्थ ऐसे ही हैं, जो आज अनुपलब्ध हैं।
भाषा–शैली
भारद्वाज और आपस्तम्ब की भाषा–शैली में बहुत साम्य है। विषयों की समान्तरता के साथ ही सूत्र–रचना में भी समानता है। जब कहीं सामान्य नियम की बात होती है, तो सूत्रकार 'तत्रैषोऽत्यन्तप्रदेश:' कहते हैं। आपस्तम्ब सूत्र–रचना के समय सूत्रकार के सम्मुख तैत्तिरीय शाखा का सारस्वत पाठ प्रतिष्ठित रूप में था। 'आपस्तम्ब हौत्रप्रश्न' नामक एक प्रकरण सत्याषाढ–हिरण्यकेशि सूत्र के 21वें प्रश्न के पूर्व (आनन्दाश्रम, पुणे) संस्कृत टीका के साथ छापा गया है। यह आपस्तम्ब सूत्र का परिशिष्ट प्रतीत होता है। आपस्तम्ब तैत्तिरीय संहिता के मन्त्र प्रतीक रूप में लेते हैं, जबकि तैत्तिरीय ब्राह्मण के मन्त्रों का सकल पाठ देते हैं। आपस्तम्ब ने मैत्रायणी अर्थात् मानव श्रौतसूत्र से कुछ आदान किया है, यद्यपि उसमें इस शाखा का साक्षात् निर्देश नहीं है। आपस्तम्ब सूत्र–रचना में तैत्तिरीय शाखा की परम्परा सबसे अच्छी तरह प्रदर्शित करते हैं। इसी के साथ कालगति से वैदिक कर्मकाण्ड में जो परिवर्तन हुए और समीप वर्तिनी शाखाओं से जो आदान–प्रदान हुए, उनका अच्छा प्रतिबिम्ब आपस्तम्ब सूत्र में सुलभ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण की भाषा–शैली का प्रभाव सूत्र की भाषा–शैली पर पड़ना स्वाभाविक ही था। परिणामत: वैदिक भाषा के अनेक शब्दों का प्रयोग आपस्तम्ब सूत्र में मिलता है। सूत्रकार के काल में व्यवहृत प्राकृत भाषा का भी उस पर प्रभाव है। आपस्तम्ब सूत्र में अनेक प्राकृत शब्द इस कारण मिल जाते हैं; सत्याषाढ सूत्र से भी विषय–क्रम, कर्मकाण्ड और रचना की दृष्टि से आपस्तम्ब की बहुत समानता है। अनेक स्थलों पर सत्याषाढ का स्वरूप आपस्तम्ब के समान है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के सम्पादक डॉ. गार्बे ने अपनी प्रस्तावना[1] में लिखा है कि आपस्तम्ब सूत्र में समय समय पर बीच–बीच में सूत्र जोड़े गए हैं। डॉ. गार्बे का यह मत स्वीकार्य नहीं है। मैंने इसका खण्डन किया है।[2]
रचना–काल
आपस्तम्ब श्रौतसूत्र पर धूर्तस्वामी का अधूरा भाष्य प्रकाशित हुआ है। इस पर कौशिक रामाग्निचित् की वृत्ति है। प्रश्न 1–15 पर रुद्रदत्त का भाष्य भी मुद्रित है। रुद्रदत्त ने कुछ स्थलों पर धूर्तस्वामी से अपना मतभेद व्यक्त किया है। 14वीं शताब्दी के चौण्डपाचार्य ने आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के कुछ प्रश्नों पर टीका लिखी है, जो अभी तक अप्रकाशित है। श्रौतयागों पर आपस्तम्बानुसारी प्रयोग भी रचे गए थे, जिनका उपयोग ऋत्विग्गण कर्मानुष्ठान में करते हैं। ऐसा ही एक दर्शपूर्णमासेष्टि प्रयोग आनन्दाश्रम (पुणे) से प्रकाशित हुआ है।
रचना–काल की दृष्टि से आपस्तम्ब सूत्र का प्रणयन ई. पूर्व 5वीं शती में माना जा सकता है क्योंकि वह भारद्वाज श्रौतसूत्र (ई. पूर्व 550) से परवर्ती है।
आपस्तम्ब सूत्र में मैत्रायणी के साथ वाजसनेय शाखा के सम्बन्ध विषयक प्रमाण मिलते हैं। वाजसनेय शाखा का प्रचार पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में रहा है। इससे सिद्ध होता है कि भारद्वाज सूत्र की प्रचार भूमि की पूर्व दिशा में आपस्तम्ब का प्रचार था। कालान्तर से सामाजिक–राजनीतिक परिस्थितियोंवश कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा के अनुयायी दक्षिण के आन्ध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में चले गए। आज भी ये ही प्रदेश उनके निवास–स्थान हैं।
आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के संस्करण
- आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सं. रिचर्ड गार्बे, द्वितीय संस्करण, खण्ड 1–3। मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली से 14983 में प्रकाशित।
- विल्हेल्म कालन्द का जर्मन में अनुवाद ‘‘श्रौतसूत्र डेस आपस्तम्ब’’ (तीन खण्ड) गाटिन्जन् तथा एम्सटर्डम से क्रमश: 1821, 1824 तथा 1828 ई. में प्रकाशित।
- आपस्तम्ब श्रौतसूत्र (धूर्तस्वामिभाष्य और रामाग्निचित् की वृत्ति सहित), 1–10 प्रश्नान्त भाग, ग. ओरि. लाइब्रेरी मैसूर से प्रकाशित।
- धूर्तस्वामिभाष्य के साथ गायकवाड़ सीरीज़ में बड़ौदा से दो भागों में प्रकाशित, सं. चिन्नस्वामिशास्त्री।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ खण्ड 3, प्रस्तावना पृष्ठ 23–25
- ↑ द्रष्टव्य: चिं. ग. काशीकर, सूत्राज़ ऑफ भरद्वाज, उपोद्घात तथा सर्वे ऑफ दि श्रौतसूत्राज़, पृष्ठ 34–37।
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