अगर (वृक्ष)

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अगर (वृक्ष)
अगर वृक्ष
जगत पादप (Plantae)
संघ एंजियोस्पर्म (Angiosperms)
गण मालवेल्स (Malvales)
कुल थाईमिलीयेसी (Thymelaeaceae)
जाति एक्वेलारिया (Aquilaria)
प्रजाति मेलेसिनेसिस (malaccensis)
द्विपद नाम एक्वेलारिया मेलेसिनेसिस (Aquilaria malaccensis)
अन्य जानकारी अगर, त्रिपुरा का राजकीय वृक्ष है।

अगर मूल रूप से एशिया महाद्वीप का वृक्ष है। यह भारत के साथ चीन, मलाया, लाओस, कम्बोडिया, विएतनाम, सिंगापुर, मलक्का, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार (बर्मा) सुमात्रा, जावा आदि में भी पाया जाता है। भारत में यह उत्तर भारत के पूर्वी हिमालय के आसपास के भागों त्रिपुरा, नागालैंड, असम, मणिपुर और केरल में पाया जाता है। इनमें सिलहट में पाया जाने वाला अगर सर्वोत्तम माना जाता है। अगर, त्रिपुरा का राजकीय वृक्ष है।

विशेषताएँ

  • सुगंध फैलाने वाले इस शानदार वृक्ष की ऊँचाई 18 मीटर से 30 मीटर तक तथा तने की परिधि 1.5 मीटर से लेकर 2.5 मीटर तक होती है।
  • अगर वृक्ष के तने की छाल भोज पत्र के समान पतली होती है। इसीलिए इसकी छाल का उपयोग एक लम्बे समय तक भोज पत्र के समान धार्मिक पोथियों, साहित्य और इतिहास लिखने में किया गया।
  • अगर वृक्ष के तने से ऊपर उठने के बाद शाखाएँ तथा उपशाखाएँ निकलती हैं। इसकी शाखाएँ गरुड़ के पंखों के समान फैली हुई होती हैं। इसीलिए इसे ईगल वुड भी कहा जाता है।
  • यह सदाबहार वृक्ष है। अर्थात् यह हमेशा हरा भरा रहता है। इसकी खुरदरी और तंतुदार शाखाओं तथा उपशाखाओं पर छोटे-छोटे पत्ते निकलते हैं।
  • इसके पत्ते 6 सेंटीमीटर से 8 सेंटीमीटर तक लम्बे होते हैं। ये पतले और चर्मिल होते हैं तथा इनका आगे का सिरा नुकीला होता है। अगर के पत्ते जिस डंठल द्वारा शाखा अथवा उपशाखा से जुड़े होते हैं, वह बड़ा मजबूत होता है। यही कारण है कि तेज हवाएँ चलने पर भी अगर के पत्ते गिरते नहीं हैं।

फूल एवं फल

मार्च के महीने में अगर वृक्ष पर फूल आ जाते हैं। इसके फूल गुच्छों में निकलते हैं और इनका रंग सफ़ेद होता है। फूल सुंदर तो लगते हैं, पर होते गंधहीन हैं। वर्षा का मौसम आते आते अगर वृक्ष पर फल आने लगते हैं और अगस्त के अंत तक पूरी तरह से फल निकल आते हैं। इसके फल 2.5 सेंटीमीटर से लेकर 5.0 सेंटीमीटर तक लम्बे होते हैं। इनका आगे का सिरा कुछ लम्बा और चिकना होता है।

महत्त्व

यह एक उपयोगी और व्यावसायिक महत्त्व का वृक्ष है। इसके पुराने वृक्ष के तनों और शाखाओं की लकड़ी को अगर कहा जाता है। लकड़ी आरम्भ में साधारण पीले रंग की होती है एवं इसमें किसी प्रकार की कोई सुगंध नहीं होती है। कुछ समय बाद इसके तने और शाखाओं में से जगह-जगह से रस निकलने लगता है, जिससे लकड़ी का रंग काला हो जाता है और यह भारी हो जाती है। अब इसमें एक विशेष प्रकार की सुगंध आने लगती है। यह रस एक साधारण कवक (फंगस) के कारण निकलता है। अर्थात् अगर वृक्ष पर एक साधारण कवक आक्रमण करती है, जिससे यह विशिष्ट रस निकलता है। यह रस अगर की लकड़ी को काला, भारी और सुंगधित बना देता है।

औषधीय महत्त्व

प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में केवल एक प्रकार के अगर का उल्लेख देखने को मिलता है, किंतु यूनानी हकीमों और वैद्यों ने अगर के कुछ भेद किये हैं। ये भेद अगर में पायी जाने वाली रस की मात्रा पर आधारित हैं। यूनानी हकीमों के अनुसार अगर तीन प्रकार का होता है- गर्की, नीम गर्की और समालह। इनमें गर्की पानी में आधा डूबता है और समालह पानी में अन्य लकड़ियों के समान तैरता रहता है। यूनानी हकीमों ने गर्की को सर्वोत्तम माना है और औषधियों के निर्माण में इसी के उपयोग का सुझाव दिया है। अगर वृक्ष की लकड़ी लगभग 20 वर्षों में पक कर तैयार होती है। पुराने वृक्षों से अधिक अगर प्राप्त होता है। 50-60 वर्ष पुराने अगर वृक्षों से सर्वाधिक अगर मिलता है। अगर एक कृमि (कवक) द्वारा तैलीय राल अथवा निर्यास (ऑलियोरेजिन) उत्पन्न करता है। इसी से अगर की लकड़ी पकती है। अत: इसे संस्कृत ग्रंथों में कृमिज और कृमिजग्ध कहा गया है। इसकी लकड़ी और तेल दोनों ही बड़े उपयोगी होते हैं। कभी कभी इसकी जड़ों का भी उपयोग किया जाता है। अगर वृक्ष की सहायता से दो प्रकार की औषधियाँ तैयार की जाती हैं। पहली वे औषधियाँ हैं, जिनमें केवल अगर वृक्ष के किसी एक अंग अथवा एकाधिक अंगों का उपयोग किया जाता है तथा दूसरी वे औषधियाँ हैं, जिनमें अगर के साथ अन्य जड़ी बूटियों का भी उपयोग किया जाता है।

  • कफ और वात से उत्पन्न रोगों, खांसी, श्वांस आदि में बहुत उपयोगी होता है। इसके सहयोग से बनायी गई हृदय, यकृत और मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों की औषधियाँ एवं इन्द्रियों को शक्ति प्रदान करने वाली और कब्ज से उत्पन्न रोगों की औषधियाँ बड़ी प्रभावशाली होती हैं।
  • अगर का काढ़ा बड़ा ही उपयोगी होता है। बुखार आने पर इसका काढ़ा पिलाने से रोगी की उत्तेजना शांत होती है और ज्वर धीरे धीरे कम होता है।
  • पेट दर्द, उल्टी और दस्त जैसे रोगों में भी अगर का उपयोग किया जाता है। इसके लिए अगर का चूर्ण उपयोग में लाते हैं।
  • अगर की जड़ तिक्त और अग्निवर्धक होती है। इसका उपयोग ज्वर, बदन दर्द, सूजन आदि में किया जाता है।
  • शरीर के किसी भाग की सूजन अथवा दर्द में अगर का लेप प्रयोग में लाया जाता है। यह उपयोग पक्षाघात अथवा जल जाने पर भी किया जा सकता है।
  • अगर की जड़ कृमिनाशक होती है। अत: इसके लेप से शरीर पर पाये जाने वाले छोटे छोटे कृमि नष्ट हो जाते हैं।[1]

 



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आभार-नवनीत हिंदी डाइजेस्ट, दिनांक- जून 2013, लेखक- डॉ. परशुराम शुक्ल, पृष्ठ-82

बाहरी कड़ियाँ

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