"मोक्ष तीर्थ, द्वारका" के अवतरणों में अंतर

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==कुशस्थली==
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[[चित्र:Nageshwar-Mahadev-Gujarat-1.jpg|thumb|नंगेश्वर महादेव, [[द्वारका]], गुजरात<br /> Nageshwar Mahadev, Dwarka, Gujarat]]
*द्वारका का प्राचीन नाम है।  पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर [[यज्ञ]] करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था।  बाद में त्रिविकम भगवान ने कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था।  त्रिविक्रम का मंदिर द्वारका में रणछोड़जी के मंदिर के निकट है। ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक (बलराम की पत्नी [[रेवती]] के पिता) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकाल कर यह नगरी बसाई होगी। 
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*हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है । पूर्णावतार [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] के आदेश पर [[विश्वकर्मा]] ने इस नगरी का निर्माण किया था । श्रीकृष्ण ने मथुरा से सब यादवों को लाकर द्वारका में बसाया था।  महाभारत में द्वारका का विस्तृत वर्णन है जिसका कुछ अंश इस प्रकार है-द्वारका के मुख्य द्वार का नाम वर्धमान था <balloon title="('वर्धमानपुरद्वारमाससाद पुरोत्तमम्' महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। नगरी के सब ओर सुन्दर उद्यानों में रमणीय वृक्ष शोभायमान थे, जिनमें नाना प्रकार के फलफूल लगे थे।  यहाँ के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरू के समान उच्च थे। नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयां थीं जो [[गंगा नदी|गंगा]] और [[सिन्धु नदी|सिंधु]] के समान जान पड़ती थीं और जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे <balloon title="('पद्यषंडाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभि: गंगासिंधुप्रकाशाभि: परिखाभिरंलंकृता महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी <balloon title="('प्राकारेणार्कवर्णेन पांडरेण विराजिता, वियन् मूर्घिनिविष्टेन द्योरिवाभ्रपरिच्छदा' महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित होता था <balloon title="('भाति रैवतक: शैलो रम्यसनुर्महाजिर:, पूर्वस्यां दिशिरम्यायां द्वारकायां विभूषणम्'महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के चतुर्दिक् अनेक उद्यान थे।  महानगरी द्वारका के पचास प्रवेश द्वार थे- <balloon title=" ('महापुरी द्वारवतीं पंचाशद्भिर्मुखै र्युताम्' महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon> शायद इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण पुरी का नाम द्वारका या द्वारवती था। पुरी चारों ओर गंभीर सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी।  तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे-<balloon title="('तीक्ष्णयन्त्रशतघ्नीभिर्यन्त्रजालै: समन्वितां आयसैश्च महाचक्रैर्ददर्श। महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। द्वारका की लम्बाई बारह योजना तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था <balloon title="('अष्ट योजन विस्तीर्णामचलां द्वादशायताम् द्विगुणोपनिवेशांच ददर्श द्वारकांपुरीम्'महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था ('अष्टमार्गां महाकक्ष्यां महाषोडशचत्वराम् एव मार्गपरिक्षिप्तां साक्षादुशनसाकृताम्'महाभारत [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] 38) द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। श्रीकृष्ण का राजप्रासाद चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे साक्षात् विश्वकर्मा ने बनाया था <ref>('साक्षाद् भगवतों वेश्म विहिंत विश्वकर्मणा, ददृशुर्देवदेवस्य-चतुर्योजनमायतम्, तावदेव च विस्तीर्णमप्रेमयं महाधनै:, प्रासादवरसंपन्नं युक्तं जगति पर्वतै:')</ref>। श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के पश्चात समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी जैसा कि [[विष्णु पुराण]] के इस उल्लेख से सिद्ध होता है-'प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,<balloon title="विष्णु0 5,38,9" style="color:blue">*</balloon>
*[[हरिवंश पुराण]] <balloon title="हरिवंश पुराण 1,11,4" style="color:blue">*</balloon> के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी। 
 
*[[विष्णु पुराण]] के अनुसार,<balloon title="'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रोजज्ञे योऽसावानर्तविषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास' विष्णु पुराण 4,1,64." style="color:blue">*</balloon> अर्थात् आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर [[आनर्त]]  पर राज्य किया। विष्णु पुराण <balloon title="विष्णु पुराण 4,1,91" style="color:blue">*</balloon> से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी-'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।
 
*कुशावती का अन्य नाम कुशावर्त भी है। एक प्राचीन किंवदंती में द्वारका का संबंध 'पुण्यजनों' से बताया गया है। ये 'पुण्यजन' वैदिक 'पणिक' या 'पणि' हो सकते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि पणिक या पणि प्राचीन ग्रीस के फिनीशियनों का ही भारतीय नाम था। ये लोग अपने को कुश की संतान मानते थे <balloon title="वेडल-मेकर्स आव सिविलीजेशन, पृ0 80" style="color:blue">*</balloon>। इस प्रकार कुशस्थली या कुशावर्त नाम बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। [[पुराण|पुराणों]] के वंशवृत्त में शार्यातों के मूल पुरुष शर्याति की राजधानी भी कुशस्थली बताई गई है।
 
*महाभारत, <balloon title="महाभारत सभा पर्व 14,50" style="color:blue">*</balloon> के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी-'कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्'।  [[जरासंध]] के आक्रमण से बचने के लिए श्रीकृष्ण मथुरा से कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने नई नगरी द्वारका बसाई थी। पुरी की रक्षा के लिए उन्होंने अभेद्य दुर्ग की रचना की थी जहां रह कर स्त्रियां भी युद्ध कर सकती थीं-'तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्, स्त्रियोऽपियस्यां युध्येयु: किमु वृष्णिमहारथा:'।<balloon title="महाभारत, सभा पर्व 14,51" style="color:blue">*</balloon>
 
 
 
  
  

09:07, 25 मई 2010 का अवतरण

मोक्ष तीर्थ

नंगेश्वर महादेव, द्वारका, गुजरात
Nageshwar Mahadev, Dwarka, Gujarat
  • हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है । पूर्णावतार श्रीकृष्ण के आदेश पर विश्वकर्मा ने इस नगरी का निर्माण किया था । श्रीकृष्ण ने मथुरा से सब यादवों को लाकर द्वारका में बसाया था। महाभारत में द्वारका का विस्तृत वर्णन है जिसका कुछ अंश इस प्रकार है-द्वारका के मुख्य द्वार का नाम वर्धमान था <balloon title="('वर्धमानपुरद्वारमाससाद पुरोत्तमम्' महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। नगरी के सब ओर सुन्दर उद्यानों में रमणीय वृक्ष शोभायमान थे, जिनमें नाना प्रकार के फलफूल लगे थे। यहाँ के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरू के समान उच्च थे। नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयां थीं जो गंगा और सिंधु के समान जान पड़ती थीं और जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे <balloon title="('पद्यषंडाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभि: गंगासिंधुप्रकाशाभि: परिखाभिरंलंकृता महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी <balloon title="('प्राकारेणार्कवर्णेन पांडरेण विराजिता, वियन् मूर्घिनिविष्टेन द्योरिवाभ्रपरिच्छदा' महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित होता था <balloon title="('भाति रैवतक: शैलो रम्यसनुर्महाजिर:, पूर्वस्यां दिशिरम्यायां द्वारकायां विभूषणम्'महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के चतुर्दिक् अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के पचास प्रवेश द्वार थे- <balloon title=" ('महापुरी द्वारवतीं पंचाशद्भिर्मुखै र्युताम्' महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। शायद इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण पुरी का नाम द्वारका या द्वारवती था। पुरी चारों ओर गंभीर सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे-<balloon title="('तीक्ष्णयन्त्रशतघ्नीभिर्यन्त्रजालै: समन्वितां आयसैश्च महाचक्रैर्ददर्श। महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। द्वारका की लम्बाई बारह योजना तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था <balloon title="('अष्ट योजन विस्तीर्णामचलां द्वादशायताम् द्विगुणोपनिवेशांच ददर्श द्वारकांपुरीम्'महाभारत सभा पर्व 38)" style="color:blue">*</balloon>। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था ('अष्टमार्गां महाकक्ष्यां महाषोडशचत्वराम् एव मार्गपरिक्षिप्तां साक्षादुशनसाकृताम्'महाभारत सभा पर्व 38) द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। श्रीकृष्ण का राजप्रासाद चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे साक्षात् विश्वकर्मा ने बनाया था [1]। श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के पश्चात समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी जैसा कि विष्णु पुराण के इस उल्लेख से सिद्ध होता है-'प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,<balloon title="विष्णु0 5,38,9" style="color:blue">*</balloon>।
  1. ('साक्षाद् भगवतों वेश्म विहिंत विश्वकर्मणा, ददृशुर्देवदेवस्य-चतुर्योजनमायतम्, तावदेव च विस्तीर्णमप्रेमयं महाधनै:, प्रासादवरसंपन्नं युक्तं जगति पर्वतै:')