बुद्ध

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बुद्ध प्रतिमा
Buddha Image
राजकीय संग्रहालय, मथुरा

गौतम बुद्ध
बुद्ध को 'गौतम बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है। वे संसार प्रसिद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। आज बौद्ध धर्म सारे संसार के चार बड़े धर्मों में से एक है। इसके अनुयायियों की संख्या दिन-प्रतिदिन आज भी बढ़ रही है। इस धर्म के संस्थापक बुद्ध राजा शुद्धोदन के पुत्र थे और इनका जन्म स्थान लुम्बिनी नामक ग्राम था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैला गया और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं- 'थेरवाद', 'महायान' और 'वज्रयान'। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।

जन्म अनुश्रुती

गौतम बुद्ध का मूल नाम 'सिद्धार्थ' था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि 563 ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को शाक्य मुनि भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगे, या फिर एक महान साधु। लुम्बिनी में, जो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो मौर्य काल और कुषाण काल में मथुरा की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं। बुद्ध की जीवन-कथाओं में वर्णित है कि सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु को छोड़ने के पश्चात् अनोमा नदी को अपने घोड़े कंथक पर पार किया था और यहीं से अपने परिचारक छंदक को विदा कर दिया था।

भविष्यवाणी

यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्म प्रवर्त्तन करना पड़ा। त्रिपिटक तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनीतिक महत्त्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) काशी की गणना चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी।

पारदर्शी चीवर धारण किए हुए बुद्ध
भिक्षु यशदिन्न द्वारा निर्मित स्थापित बुद्ध प्रतिमा, मथुरा
Buddha

बुद्ध (सिद्धार्थ) के जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबे दिखाई देते थे। अंत में पिता ने उन्हें विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज़ की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।

गृहत्याग

सिद्धार्थ के मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। विवाह के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- 'राहु'- अर्थात बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम 'राहुल' रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान रात्रि को 29 वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े।

  • कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया।
  • कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।

ज्ञान की प्राप्ति

गृहत्याग करने के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिंबिसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिलकर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद 'तपस्सु' तथा 'काल्लिक' नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।

बुद्ध, कुशीनगर
Buddha, Kushinagar

बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश देकर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्त्तन' नाम से विख्यात है। महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से सदैव बचना चाहिये-

  • काम सुखों में अधिक लिप्त होना तथा
  • शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।[1]

यही उपदेश इनका 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये। अब तक उत्तर भारत में इनका काफ़ी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई वर्षों बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा, लेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था। इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे।

बुद्ध की शिक्षा

मनुष्य जिन दु:खों से पीड़ित है, उनमें बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे दु:खों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दु:खों का प्रहाण अपने सही ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता। सत्य या यथार्थता का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। अत: सत्य की खोज दु:खमोक्ष के लिए परमावश्यक है। खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है। यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो उसकी खोज नहीं। अत: बुद्ध ने अपने पूर्ववर्ती लोगों द्वारा या परम्परा द्वारा बताए सत्य को नकार दिया और अपने लिए नए सिरे से उसकी खोज की। बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न तो अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा। उन्होंने कहा कि मेरी बात को भी इसलिए चुपचाप न मान लो कि उसे बुद्ध ने कही है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो। जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो। यही कारण था कि उनका धर्म रहस्याडम्बरों से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत एवं हृदय को सीधे स्पर्श करता था।

त्रिविध धर्मचक्र प्रवर्तन

भगवान बुद्ध प्रज्ञा व करुणा की मूर्ति थे। ये दोनों गुण उनमें उत्कर्ष की पराकाष्ठा प्राप्त कर समरस होकर स्थित थे। इतना ही नहीं, भगवान बुद्ध अत्यन्त उपायकुशल भी थे। उपाय कौशल बुद्ध का एक विशिष्ट गुण है अर्थात वे विविध प्रकार के विनेय जनों को विविध उपायों से सन्मार्ग पर आरूढ़ करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे यह भलीभाँति जानते थे कि किसे किस उपाय से सन्मार्ग पर आरूढ़ किया जा सकता है। फलत: वे विनेय जनों के विचार, रूचि, अध्याशय, स्वभाव, क्षमता और परिस्थिति के अनुरूप उपदेश दिया करते थे। भगवान बुद्ध की दूसरी विशेषता यह है कि वे सन्मार्ग के उपदेश द्वारा ही अपने जगत्कल्याण के कार्य का सम्पादन करते हैं, न कि वरदान या ऋद्धि के बल से, जैसे कि शिव या विष्णु आदि के बारे में अनेक कथाएँ पुराणों में प्रचलित हैं। उनका कहना है कि तथागत तो मात्र उपदेष्टा हैं, कृत्यसम्पादन तो स्वयं साधक व्यक्ति को ही करना है। वे जिसका कल्याण करना चाहते हैं, उसे धर्मों (पदार्थों) की यथार्थता का उपदेश देते थे। भगवान बुद्ध ने भिन्न-भिन्न समय और भिन्न-भिन्न स्थानों में विनेय जनों को अनन्त उपदेश दिये थे। सबके विषय, प्रयोजन और पात्र भिन्न-भिन्न थे। ऐसा होने पर भी समस्त उपदेशों का अन्तिम लक्ष्य एक ही था और वह था विनेय जनों को दु:खों से मुक्ति की ओर ले जाना। मोक्ष या निर्वाण ही उनके समस्त उपदेशों का एकमात्र रस है।

ब्रज (मथुरा) में बौद्ध धर्म

मथुरा और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था। जो बुद्ध के जीवन-काल से कुषाण-काल तक अक्षु्ण रहा। 'अंगुत्तरनिकाय' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था।[2] 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है।[3] पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी। [4] मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की। [5] भगवान बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे। इस नगर में अशोक के गुरु उपगुप्त[6], ध्रुव (स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता[7] भी निवास करती थी। मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था।[8] राजगृह से तक्षशिला जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।[9]

बुद्ध मूर्तियाँ

मथुरा के कुषाण शासक, जिनमें से अधिकांश ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया, मूर्ति निर्माण के पक्षपाती थे। यद्यपि कुषाणों के पूर्व भी मथुरा में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। विदित हुआ है कि कुषाण काल में मथुरा उत्तर भारत में सबसे बड़ा मूर्ति निर्माण का केन्द्र था और यहाँ विभिन्न धर्मों सम्बन्धित मूर्तियों का अच्छा भण्डार था। इस काल के पहले बुद्ध की स्वतंत्र मूर्ति नहीं मिलती है। बुद्ध का पूजन इस काल से पूर्व विविध प्रतीक चिन्हों के रूप में मिलता है। परन्तु कुषाण काल के प्रारम्भ से महायान भक्ति, पंथ भक्ति उत्पत्ति के साथ नागरिकों में बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों का निर्माण होने लगा। बुद्ध के पूर्व जन्म की जातक कथायें भी पत्थरों पर उत्कीर्ण होने लगी। मथुरा से बौद्ध धर्म सम्बन्धी जो अवशेष मिले हैं, उनमें प्राचीन धार्मिक एवं लौकिक जीवन के अध्ययन की अपार सामग्री है। मथुरा कला के विकास के साथ–साथ बुद्ध एवं बौधित्सव की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुप्त कालीन बुद्ध प्रतिमाओं में अंग प्रत्यंग के कला पूर्ण विन्यास के साथ एक दिव्य सौन्दर्य एवं आध्यात्मिक गांभीर्य का समन्वय मिलता है।

मथुरा और दिल्ली संग्रहालय से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाएँ

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अंतिम उपदेश व शरीरांत

बौद्ध धर्म का प्रचार बुद्ध के जीवन काल में ही काफ़ी हो गया था, क्योंकि उन दिनों कर्मकांड का जोर काफ़ी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। प्राय: 44 वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में कुशीनगर के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।

मुख से निकले अंतिम शब्द

भगवान बुद्ध ने जो अंतिम शब्द अपने मुख से कहे थे, वे इस प्रका थे-

"हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो।" यह 483 ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।[10]

भगवान बुद्ध के अन्य नाम

बुद्ध प्रतिमा, बोधगया, बिहार
  1. विनायक
  2. सुगत
  3. धर्मराज
  4. तथागत
  5. समन्तभद्र
  6. मारजित्
  7. भगवत्
  8. मुनि
  9. लोकजित्
  10. जिन
  11. षडभिज्ञ
  12. दशबल
  13. अद्वयवादिन्
  14. सर्वज्ञ
  15. श्रीघन
  16. शास्तृ
  17. मुनीन्द्र

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विनय पिटक 1, 10
  2. अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257
  3. भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109
  4. दिव्यावदान, पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी। भगवान्......परिनिर्वाणकालसमये..........मथुरामनुप्राप्त:। पालि परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।
  5. उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।
  6. वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199
  7. मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352
  8. आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5
  9. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440
  10. हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, 235

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