तैमूर लंग

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तैमूर लंग दूसरा चंगेज़ ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए तैमूर लंग कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई॰ में समरंदर का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी मुलायमित नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और बला और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक्ल में जमवाया।

बर्बर व्यक्तित्व

चंगेज़ ख़ाँ और उनके मंगोल भी बेरहम और बरवादी करने वाले थे, पर वे अपने ज़माने के दूसरे लोगों की तरह ही थे। लेकिन तैमूर उनसे बहुत ही बुरा था। अनियंत्रित और पैशाचिक क्रूरता में उसका मुक़ाबला करने वाला कोई दूसरा नहीं था। कहते हैं, एक जगह उसने दो हज़ार जिन्दा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया।

भारत की दौलत का आकर्षण

भारत की दौलत ने इस बहशी को आकर्षित किया। अपने सिपहसलारों और अमीरों को भारत पर हमला करने के लिए राज़ी करने में इसे कुछ कठिनाई हुई। समरकंद में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें अमीरों ने भारत जाने पर इसलिए ऐतराज किया कि वहाँ गरमी बहुत ज्यादा पड़ती है। अंत में तैमूर ने वादा किया कि वह भारत में ठहरेगा नहीं, लूट-मार करके वापस चला आयेगा। उसने अपना वादा पूरा भी किया।

तत्कालीन भारत

उत्तर भारत में उस वक्त मुसलमानी राज्य था। दिल्ली में एक सुल्तान राज करता था। लेकिन यह मुसलमानी रियासत कमज़ोर थी और सरहद पर मंगोलों से बराबर लड़ाई करते-करते इसकी कमर टूट गई थी। इसलिए जब तैमूर मंगोलों की फौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ और वह क़त्लेआम करता और खोपडियों के स्तूप बनाता हुआ मज़े के साथ आगे बढ़ता गया। हिन्दू और मुसलमान दोनों क़त्ल किये गए। मालूम होता है कि, उनमें कोई फर्क नहीं किया गया। अब ज्यादा क़ैदियों को सम्भलना मुश्किल हो गया तो उसने उनके क़त्ल का हुक्म दे दिया और इस तरह से एक लाख क़ैदी मार डाले गए। कहते हैं, एक जगह हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर जौहर की राजपूती रस्म अदा की थी, यानी युद्ध में लड़ते-लड़ते मर जाने के लिए बाहर निकल पड़े थे। रास्ते भर वह यही करता गया। तैमूर की फौज के पीछे-पीछे अकाल और महामारी चलती थी। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और उसने इस बड़े शहर को कसाईख़ाना बना दिया। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह समरकंद वापस लौट गया।

वास्तुकला का शौकीन

हालाँकि तैमूर बहशी था, पर वह समरकंद में और मध्य एशिया में दूसरी जगहों पर खूबसूरत इमारतें बनवाना चाहता था। इसलिए बहुत दिन पहले के सुल्तान महमूद की तरह उसने भारत के कारीगरों, राजगीरों और होशियार मिस्त्रियों को इकट्ठा किया और उन्हें अपने साथ ले गया। इनमें से जो सबसे अच्छे कारीगर और राजगीर थे, उन्हें उसने अपनी शाही नौकर में रख लिया। बाकी को उसने पश्चिम एशिया के खास-खास शहरों में भेज दिया। इस तरह इमारतें बनाने की कला की एक नई शैली का विकास हुआ।

तैमूर के बाद दिल्ली

तैमूर के जाने के बाद दिल्ली मुर्दों का शहर रह गया। चारों तरफ अकाल और महामारी का राज था। दो महीने न कोई राजा था और न संगठन, न व्यवस्था। बहुत कम लोग ही वहाँ रह गये। यहाँ तक कि जिस आदमी को तैमूर ने दिल्ली का वाइसराय नियुक्त किया था, वह भी मुल्तान चला गया।

ईरान और इराक में तबाही

इसके बाद तैमूर ईरान और इराक में तबाही और बरवादी फैलाता हुआ पश्चिम की तरफ बढ़ा। अंगोरा में सन् 1402 ई॰ में उस्मानी तुर्कों की एक बड़ी फौज के साथ इसका मुक़ाबला हुआ। अपने सैनिक कौशल से उसने तुर्कों को हरा दिया। लेकिन समुद्र के आगे उसका बस नहीं चला और वह बासफोरस को पार न कर सका। इसलिए यूरोप उससे बच गया।

मृत्यु

तीन वर्ष के बाद 18 फ़रवरी सन 1405 ई॰ में, जब वह चीन की तरफ बढ़ रहा था, तैमूर मर गया। उसी के साथ उसका लम्बा-चौड़ा साम्राज्य भी, जो क़रीब-क़रीब सारे पश्चिम एशिया में फैला हुआ था, गर्त हो गया। उस्मानी तुर्क, मिस्र और सुनहरे क़बीले इसे खिराज देते थे। लेकिन उसकी योग्यता सिर्फ उसकी अदभुत सिपहसलारी तक ही सीमित थी। साइबेरिया के बर्फिस्तान में उसकी कुछ रण-यात्रायें असाधारण रही हैं। पर असल में वह एक जंगली ख़ानाबदोश था। उसने न तो कोई संगठन बनाया और न ही चंगेज़ की तरह साम्राज्य चलाने के लिए अपने पीछे कोई क़ाबिल आदमी छोड़ा। इस लिए तैमूर का साम्राज्य उसी के साथ ही खत्म हो गया और सिर्फ बरबादी और क़त्लेआम की यादगार अपने पीछे छोड़ गया। मध्य एशिया में होकर जितने भी भाग्य-परीक्षक और विजेता गुज़रे हैं, उनमें से चार के नाम लोगों को अभी तक याद हैं—सिकन्दर, सुल्तान महमूद, चंगेज़ ख़ाँ और तैमूर।