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*प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है।  
 
*प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है।  
*विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात भिन्न-भिन्न हैं।  
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*विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात् ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात् भिन्न-भिन्न हैं।  
 
*'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं।  
 
*'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं।  
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो।<ref>ये मे मृतस्य कालगतस्य मांसं परिभुञ्जीरन्, स एव तेषां हेतुर्भवेत् स्वर्गोपपत्तये यावत् परिनिर्वाणाय तस्य शीलवत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ0 89 (दरभङ्गा संस्करण, 1996)</ref>
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*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो।<ref>ये मे मृतस्य कालगतस्य मांसं परिभुञ्जीरन्, स एव तेषां हेतुर्भवेत् स्वर्गोपपत्तये यावत् परिनिर्वाणाय तस्य शीलवत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ0 89 (दरभङ्गा संस्करण, 1996</ref>
*पुरश्च, तदनुसार बोधिसत्त्व धर्मकाय से प्रभावित होता है, इसलिए वह अपने दर्शन, श्रवण और स्पर्श से भी सत्त्वों का हित करता है।<ref>स धरृमकायप्रभावितो दर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति, श्रवणेनापि स्पर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति। द्र.- तथागतगुह्सूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 89 (दरभङ्गा संस्करण 1960)</ref>  
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*पुरश्च, तदनुसार बोधिसत्त्व धर्मकाय से प्रभावित होता है, इसलिए वह अपने दर्शन, श्रवण और स्पर्श से भी सत्त्वों का हित करता है।<ref>स धरृमकायप्रभावितो दर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति, श्रवणेनापि स्पर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति। द्र.- तथागतगुह्सूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 89 (दरभङ्गा संस्करण 1960</ref>  
*उसी सूत्र में अन्यत्र उल्लिखित है कि जैसे शान्तमति, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी शाखाएं डालियां और पत्ते सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृष्टि का नाश हो जाने से बोधिसत्त्व के सभी क्लेश शान्त हो जाते हैं।<ref>तद्यथापि नाम शान्तमते, वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशा: शुष्यन्ति, एवमेव शान्तमते, सत्कायदृष्टयुपशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति-द्र. तथागतगुह्य-सूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 130 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref>  
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*उसी सूत्र में अन्यत्र उल्लिखित है कि जैसे शान्तमति, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी शाखाएं डालियां और पत्ते सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृष्टि का नाश हो जाने से बोधिसत्त्व के सभी क्लेश शान्त हो जाते हैं।<ref>तद्यथापि नाम शान्तमते, वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशा: शुष्यन्ति, एवमेव शान्तमते, सत्कायदृष्टयुपशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति-द्र. तथागतगुह्य-सूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 130 (दरभङ्गा संस्करण, 1960</ref>  
*अपि च, महायान में प्रस्थित बोधिसत्त्व के ये चार धर्म विशेष गमन के और अपरिहाणि के हेतु होते हैं। कौन चार? श्रद्धा, गौरव, निर्मानता (अनहंकार) एवं वीर्य।<ref>चत्वार इमे महाराज, धर्मा महायानसंम्प्रतिस्थितानां विशेषगामितायै संवर्तन्तेऽपरिहाणाय च। कतमे चत्वार:? श्रद्धा महाराज, विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय... गौरवं...निर्मानता...वीर्यं महाराज विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 168 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref>  
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*अपि च, महायान में प्रस्थित बोधिसत्त्व के ये चार धर्म विशेष गमन के और अपरिहाणि के हेतु होते हैं। कौन चार? श्रद्धा, गौरव, निर्मानता (अनहंकार) एवं वीर्य।<ref>चत्वार इमे महाराज, धर्मा महायानसंम्प्रतिस्थितानां विशेषगामितायै संवर्तन्तेऽपरिहाणाय च। कतमे चत्वार:? श्रद्धा महाराज, विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय... गौरवं...निर्मानता...वीर्यं महाराज विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 168 (दरभङ्गा संस्करण, 1960</ref>  
 
*पुनश्च, बोधिसत्तत्त्व सर्वदा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अर्थ है 'इन्द्रियसंवर'। वह न निमित्त का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी धर्मों के आस्वाद, आदीनव और नि:सरण को ठीक-ठीक जानता है।<ref>तत्र कतामोऽप्रमाद:? यदिन्द्रियसंवर:। स चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा न निमित्तग्राही भवति नानुव्यंजन-ग्राही।...सर्वधर्मेष्वास्वादं चादीनवं च नि:सरणं च यथाभूतं प्रजानाति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191।</ref>  
 
*पुनश्च, बोधिसत्तत्त्व सर्वदा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अर्थ है 'इन्द्रियसंवर'। वह न निमित्त का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी धर्मों के आस्वाद, आदीनव और नि:सरण को ठीक-ठीक जानता है।<ref>तत्र कतामोऽप्रमाद:? यदिन्द्रियसंवर:। स चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा न निमित्तग्राही भवति नानुव्यंजन-ग्राही।...सर्वधर्मेष्वास्वादं चादीनवं च नि:सरणं च यथाभूतं प्रजानाति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191।</ref>  
 
*अप्रमाद अपने चित्त का दमन करता है, दूसरों के चित्तों की रक्षा, क्लेश में अरति एवं धर्म में रति है।<ref>अप्रमादो यत् स्वचित्तस्य दमनम्, परचित्तस्य रक्षा, क्लेशरतेरपरकिर्मणा, धर्मरतेरनुवर्तनमृ, यावदयमुच्यतेऽप्रमाद। द्र.-तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191</ref>  
 
*अप्रमाद अपने चित्त का दमन करता है, दूसरों के चित्तों की रक्षा, क्लेश में अरति एवं धर्म में रति है।<ref>अप्रमादो यत् स्वचित्तस्य दमनम्, परचित्तस्य रक्षा, क्लेशरतेरपरकिर्मणा, धर्मरतेरनुवर्तनमृ, यावदयमुच्यतेऽप्रमाद। द्र.-तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191</ref>  
*योनिश: प्रयुक्त बोधिसत्त्व 'जो है' उसे अस्ति के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्ति के रूप में जानता है।<ref>योनिश: प्रयुक्तो हि गुह्यकाधिपते, बोधिसत्त्वो यदस्ति तदस्तीति प्रजानाति, यन्नास्ति तन्नास्तीति प्रजानीति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्ध्त पृ. 191 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref>
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*योनिश: प्रयुक्त बोधिसत्त्व 'जो है' उसे अस्ति के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्ति के रूप में जानता है।<ref>योनिश: प्रयुक्तो हि गुह्यकाधिपते, बोधिसत्त्वो यदस्ति तदस्तीति प्रजानाति, यन्नास्ति तन्नास्तीति प्रजानीति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्ध्त पृ. 191 (दरभङ्गा संस्करण, 1960</ref>
 
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिस रात्रि में तथागत ने अभिसम्बोधि प्राप्त की तथा जिस रात्रि में परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, इस बीच में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है कि तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, नाग आदि विनेयजनों को उन्होंने कैसे विविध प्रकार की देशना की? मात्र एक क्षण की ध्वनि के उच्चारण से वह विविधजनों के मानसिक अन्धकार का नाश करने वाली, उनके बुद्धिरूपी कमल को विकसित करने वाली, जरा, मरण आदि रूपी नदी और समुद्र का शोषण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लज्जित करने वाली शरत्कालिक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र [[वायु देव|वायु]] के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, फिर भी शब्द निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की वाणी भी नि:सृत होती है, जबकि उनमें किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।<ref><poem>यां च शान्तमते, रात्रिं तथागतोऽनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुद्ध:, यां च रात्रिमुपादाय परिनिर्वास्यति, अस्मिन्नन्तरे तथागतेन एकाक्षरमपि नोदाहृतं न प्रवराहृतं न प्रवराहरिष्यति। कथं तर्हि भगवता........
 
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिस रात्रि में तथागत ने अभिसम्बोधि प्राप्त की तथा जिस रात्रि में परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, इस बीच में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है कि तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, नाग आदि विनेयजनों को उन्होंने कैसे विविध प्रकार की देशना की? मात्र एक क्षण की ध्वनि के उच्चारण से वह विविधजनों के मानसिक अन्धकार का नाश करने वाली, उनके बुद्धिरूपी कमल को विकसित करने वाली, जरा, मरण आदि रूपी नदी और समुद्र का शोषण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लज्जित करने वाली शरत्कालिक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र [[वायु देव|वायु]] के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, फिर भी शब्द निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की वाणी भी नि:सृत होती है, जबकि उनमें किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।<ref><poem>यां च शान्तमते, रात्रिं तथागतोऽनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुद्ध:, यां च रात्रिमुपादाय परिनिर्वास्यति, अस्मिन्नन्तरे तथागतेन एकाक्षरमपि नोदाहृतं न प्रवराहृतं न प्रवराहरिष्यति। कथं तर्हि भगवता........
 
विनेयजनेभ्यो विविधप्रकारेभ्यो धर्मदेशना देशिता? एकक्षणवागुदाहारेणैव तत्तज्जनमनस्तमोहरणी........
 
विनेयजनेभ्यो विविधप्रकारेभ्यो धर्मदेशना देशिता? एकक्षणवागुदाहारेणैव तत्तज्जनमनस्तमोहरणी........
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द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत पृ. 155 नाना (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref>  
 
द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत पृ. 155 नाना (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref>  
 
*नाना आशय वाले सत्त्व समझते हैं कि तथागत के मुख से वाणी निकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें धर्म की देशना कर रहे हैं और हम देशना सुन रहे हैं, किन्तु तथागत में कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि उन्होंने समस्त विकल्प जालों का प्रहाण कर दिया है।<ref><poem>अथ च चथाधिमुक्ता: सर्वसत्त्वा नानाधातवाशयास्तां तां विविधां तथागतवाचं निश्चरन्तीं संजानन्ति। तेषामिदं पृथक् भवति- अथ। भगवान अस्मभ्यमिमं धर्म देशयति, सयं च तथागतस्य धर्मदेशनां श्रुणुम:। तथागतो न कल्पयति न विकल्पयति सर्वविकल्पजालवासनाप्रपंचविगतो हि शान्तमते,  तथागत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत, पृ. 236 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref>  
 
*नाना आशय वाले सत्त्व समझते हैं कि तथागत के मुख से वाणी निकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें धर्म की देशना कर रहे हैं और हम देशना सुन रहे हैं, किन्तु तथागत में कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि उन्होंने समस्त विकल्प जालों का प्रहाण कर दिया है।<ref><poem>अथ च चथाधिमुक्ता: सर्वसत्त्वा नानाधातवाशयास्तां तां विविधां तथागतवाचं निश्चरन्तीं संजानन्ति। तेषामिदं पृथक् भवति- अथ। भगवान अस्मभ्यमिमं धर्म देशयति, सयं च तथागतस्य धर्मदेशनां श्रुणुम:। तथागतो न कल्पयति न विकल्पयति सर्वविकल्पजालवासनाप्रपंचविगतो हि शान्तमते,  तथागत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत, पृ. 236 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref>  
*इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य [[शान्तिदेव बौद्धाचार्य|शान्तिदेव]] के शिक्षासमुच्चय और चन्द्रकीर्ति की प्रसन्नपदा मूल माध्यमिक कारिका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिनका हमने भी यथासम्भव पादटिप्पणी में उल्लेख किया है। यदि ये उद्धरण प्रकाशित वर्तमान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना चाहिए कि तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अभिन्न नहीं है, जैसे कि कुछ विद्वानों की धारणा है। आचार्य शान्तिदेव और चन्द्रकीर्ति के काल में ये दोनों अवश्य भिन्न-भिन्न थे।
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*इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य [[शान्तिदेव बौद्धाचार्य|शान्तिदेव]] के शिक्षासमुच्चय और [[चन्द्रकीर्ति]] की प्रसन्नपदा मूल माध्यमिक कारिका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिनका हमने भी यथासम्भव पादटिप्पणी में उल्लेख किया है। यदि ये उद्धरण प्रकाशित वर्तमान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना चाहिए कि तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अभिन्न नहीं है, जैसे कि कुछ विद्वानों की धारणा है। आचार्य शान्तिदेव और चन्द्रकीर्ति के काल में ये दोनों अवश्य भिन्न-भिन्न थे।
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07:51, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

  • प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है।
  • विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात् ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात् भिन्न-भिन्न हैं।
  • 'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं।
  • तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो।[1]
  • पुरश्च, तदनुसार बोधिसत्त्व धर्मकाय से प्रभावित होता है, इसलिए वह अपने दर्शन, श्रवण और स्पर्श से भी सत्त्वों का हित करता है।[2]
  • उसी सूत्र में अन्यत्र उल्लिखित है कि जैसे शान्तमति, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी शाखाएं डालियां और पत्ते सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृष्टि का नाश हो जाने से बोधिसत्त्व के सभी क्लेश शान्त हो जाते हैं।[3]
  • अपि च, महायान में प्रस्थित बोधिसत्त्व के ये चार धर्म विशेष गमन के और अपरिहाणि के हेतु होते हैं। कौन चार? श्रद्धा, गौरव, निर्मानता (अनहंकार) एवं वीर्य।[4]
  • पुनश्च, बोधिसत्तत्त्व सर्वदा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अर्थ है 'इन्द्रियसंवर'। वह न निमित्त का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी धर्मों के आस्वाद, आदीनव और नि:सरण को ठीक-ठीक जानता है।[5]
  • अप्रमाद अपने चित्त का दमन करता है, दूसरों के चित्तों की रक्षा, क्लेश में अरति एवं धर्म में रति है।[6]
  • योनिश: प्रयुक्त बोधिसत्त्व 'जो है' उसे अस्ति के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्ति के रूप में जानता है।[7]
  • तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिस रात्रि में तथागत ने अभिसम्बोधि प्राप्त की तथा जिस रात्रि में परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, इस बीच में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है कि तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, नाग आदि विनेयजनों को उन्होंने कैसे विविध प्रकार की देशना की? मात्र एक क्षण की ध्वनि के उच्चारण से वह विविधजनों के मानसिक अन्धकार का नाश करने वाली, उनके बुद्धिरूपी कमल को विकसित करने वाली, जरा, मरण आदि रूपी नदी और समुद्र का शोषण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लज्जित करने वाली शरत्कालिक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र वायु के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, फिर भी शब्द निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की वाणी भी नि:सृत होती है, जबकि उनमें किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।[8]
  • नाना आशय वाले सत्त्व समझते हैं कि तथागत के मुख से वाणी निकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें धर्म की देशना कर रहे हैं और हम देशना सुन रहे हैं, किन्तु तथागत में कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि उन्होंने समस्त विकल्प जालों का प्रहाण कर दिया है।[9]
  • इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय और चन्द्रकीर्ति की प्रसन्नपदा मूल माध्यमिक कारिका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिनका हमने भी यथासम्भव पादटिप्पणी में उल्लेख किया है। यदि ये उद्धरण प्रकाशित वर्तमान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना चाहिए कि तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अभिन्न नहीं है, जैसे कि कुछ विद्वानों की धारणा है। आचार्य शान्तिदेव और चन्द्रकीर्ति के काल में ये दोनों अवश्य भिन्न-भिन्न थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ये मे मृतस्य कालगतस्य मांसं परिभुञ्जीरन्, स एव तेषां हेतुर्भवेत् स्वर्गोपपत्तये यावत् परिनिर्वाणाय तस्य शीलवत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ0 89 (दरभङ्गा संस्करण, 1996
  2. स धरृमकायप्रभावितो दर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति, श्रवणेनापि स्पर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति। द्र.- तथागतगुह्सूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 89 (दरभङ्गा संस्करण 1960
  3. तद्यथापि नाम शान्तमते, वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशा: शुष्यन्ति, एवमेव शान्तमते, सत्कायदृष्टयुपशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति-द्र. तथागतगुह्य-सूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 130 (दरभङ्गा संस्करण, 1960
  4. चत्वार इमे महाराज, धर्मा महायानसंम्प्रतिस्थितानां विशेषगामितायै संवर्तन्तेऽपरिहाणाय च। कतमे चत्वार:? श्रद्धा महाराज, विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय... गौरवं...निर्मानता...वीर्यं महाराज विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 168 (दरभङ्गा संस्करण, 1960
  5. तत्र कतामोऽप्रमाद:? यदिन्द्रियसंवर:। स चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा न निमित्तग्राही भवति नानुव्यंजन-ग्राही।...सर्वधर्मेष्वास्वादं चादीनवं च नि:सरणं च यथाभूतं प्रजानाति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191।
  6. अप्रमादो यत् स्वचित्तस्य दमनम्, परचित्तस्य रक्षा, क्लेशरतेरपरकिर्मणा, धर्मरतेरनुवर्तनमृ, यावदयमुच्यतेऽप्रमाद। द्र.-तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191
  7. योनिश: प्रयुक्तो हि गुह्यकाधिपते, बोधिसत्त्वो यदस्ति तदस्तीति प्रजानाति, यन्नास्ति तन्नास्तीति प्रजानीति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्ध्त पृ. 191 (दरभङ्गा संस्करण, 1960
  8. यां च शान्तमते, रात्रिं तथागतोऽनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुद्ध:, यां च रात्रिमुपादाय परिनिर्वास्यति, अस्मिन्नन्तरे तथागतेन एकाक्षरमपि नोदाहृतं न प्रवराहृतं न प्रवराहरिष्यति। कथं तर्हि भगवता........
    विनेयजनेभ्यो विविधप्रकारेभ्यो धर्मदेशना देशिता? एकक्षणवागुदाहारेणैव तत्तज्जनमनस्तमोहरणी........
    शरदरुणमहाप्रभेति।
    तदेव सूत्रे:
    यथा यन्त्रकृतं तूर्यं वाद्यते पवनेरितम्।
    न चात्र वादक: कश्चिनिरन्त्यथ च स्वरा:॥
    एवं पूर्वसुशुद्धत्वात् सर्वसत्त्वाशयेरिता।
    वाग्निश्चरति बुद्धस्य न चास्यास्तीह कल्पना॥
    द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत पृ. 155 नाना (दरभङ्गा संस्करण, 1960)

  9. अथ च चथाधिमुक्ता: सर्वसत्त्वा नानाधातवाशयास्तां तां विविधां तथागतवाचं निश्चरन्तीं संजानन्ति। तेषामिदं पृथक् भवति- अथ। भगवान अस्मभ्यमिमं धर्म देशयति, सयं च तथागतस्य धर्मदेशनां श्रुणुम:। तथागतो न कल्पयति न विकल्पयति सर्वविकल्पजालवासनाप्रपंचविगतो हि शान्तमते, तथागत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत, पृ. 236 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)

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