"छायावादी युग" के अवतरणों में अंतर

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'''छायावादी युग''' ([[1920]]-[[1937]]) प्राय: '[[द्विवेदी युग]]' के बाद के समय को कहा जाता है। 'द्विवेदी युग' की प्रतिक्रिया का परिणाम ही 'छायावाद' है। इस युग में [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। सन [[1916]] ई. के आस-पास [[हिन्दी]] में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। [[भाषा]], भाव, शैली, [[छंद]], [[अलंकार]] इन सब दृष्टियों से पुरानी [[कविता]] से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया। 'छायावाद' शब्द का सबसे पहले प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया। इस युग की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। [[जयशंकर प्रसाद]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']], [[सुमित्रानंदन पंत]] और [[महादेवी वर्मा]] इस युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं।
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'''छायावादी युग''' ([[1920]]-[[1936]]) प्राय: '[[द्विवेदी युग]]' के बाद के समय को कहा जाता है। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। इस युग को [[जयशंकर प्रसाद]], [[महादेवी वर्मा]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']] और [[सुमित्रानंदन पंत]] जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है। 'द्विवेदी युग' की प्रतिक्रिया का परिणाम ही 'छायावादी युग' है। इस युग में [[हिन्दी साहित्य]] में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। इस समय की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश [[कविता]] में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।
{{tocright}}
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==मुख्य कवि और उनकी रचनाएँ==
==प्रारम्भ==
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'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली [[महादेवी वर्मा]] ही हैं। [[जयशंकर प्रसाद]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']], [[सुमित्रानंदन पंत]] और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ कहे जाते हैं। [[रामकुमार वर्मा]], [[माखनलाल चतुर्वेदी]], [[हरिवंशराय बच्चन]] और [[रामधारी सिंह दिनकर]] को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी। अन्य कवियों में हरिकृष्ण 'प्रेमी', [[जानकी वल्लभ शास्त्री]], [[भगवतीचरण वर्मा]], उदयशंकर भट्ट, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम भी उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाएँ निम्नानुसार हैं-
'छायावाद' का प्रारम्भ सामान्यतः 1920 ई. के आसपास से माना जाता है। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं से पता चलता है कि [[1920]] तक छायावाद संज्ञा का प्रचलन हो चुका था। मुकुटधर पांडेय ने 1920 की [[जुलाई]], [[सितंबर]], [[नवंबर]] और [[दिसंबर]] की 'श्रीशारदा' ([[जबलपुर]]) में 'हिन्दी में छायावाद' नामक शीर्षक से चार निबंधों की एक लेखमाला छपवाई थी। जब तक किसी प्राचीनतर सामग्री का पता नहीं चलता, इसी को छायावाद-संबंधी सर्वप्रथम [[निबंध]] कहा जा सकता है। हिन्दी में उसका नितांत अभाव देखकर मुकुटधर जी ने इधर-उधर की कुछ टीका-टिप्पणियों के सहारे वह निबंध प्रस्तुत किया था। इससे स्पष्ट है कि उस निबंध से पहले भी छायावाद पर कुछ टीका-टिप्पणियाँ हो चुकी थीं। लेखमाला का प्रथम निबंध 'कवि स्वातंत्र्य' में मुकुटधर जी ने रीति-ग्रंथों की परतंत्रता से मुक्त होकर कविता में व्यक्तिव तथा भाव भाषा छंद प्रकाशन-रीति आदि में मौलिकता की आवश्यकता पर जोर दिया है। दूसरा निबंध 'छायावाद क्या है?' सबसे महत्त्वपूर्ण है। आरंभ में ही लेखक कहता है- "[[अंग्रेज़ी]] या किसी पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले तो सुनते ही समझ जाएँगे कि यह शब्द मिस्टिसिज्म’ के लिए आया है फिर भी छायावाद एक ऐसी मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा इसका ठीक-ठीक वर्णन करना असंभव है, क्योंकि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य को खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र हुआ करते हैं।"<ref name="aa">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3170|title=छायावाद|accessmonthday=01 अक्टूबर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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;जयशंकर प्रसाद (1889-1936 ई.) के काव्य संग्रह-
=='छायावाद' शब्द का प्रयोग==
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'[[चित्राधार -जयशंकर प्रसाद|चित्राधार]]' ([[ब्रज भाषा]] में रचित कविताएँ), '[[कानन कुसुम|कानन-कुसुम]]', 'महाराणा का महत्त्व', 'करुणालय', 'झरना', '[[आँसू -जयशंकर प्रसाद|आंसू]]', 'लहर' और '[[कामायनी -प्रसाद|कामायनी]]'।
'छायावाद' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए-
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;सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य संग्रह-
*एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्यवस्तु से होता है अर्थात् जहाँ [[कवि]] उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। रहस्यवाद के अंतर्भूत रचनाएँ पहुँचे हुए पुराने संतों या साधकों की उसी वाणी के अनुकरण पर होती हैं, जो तुरीयावस्था या समाधि दशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थी। इस रूपात्मक आभास को [[यूरोप]] में 'छाया'<ref>फैंटसमाटा</ref> कहते थे। इसी से [[बंगाल]] में '[[ब्रह्मसमाज]]' के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे, वे 'छायावाद' कहलाने लगे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के [[साहित्य]] क्षेत्र में आया और फिर रवींद्र बाबू की धूम मचने पर [[हिन्दी]] के साहित्य क्षेत्र में भी प्रकट हुआ।
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'[[वीणा -सुमित्रनन्दन पंत|वीणा]]', '[[ग्रंथि -सुमित्रनन्दन पंत|ग्रंथि]]', '[[पल्लव -सुमित्रनन्दन पंत|पल्लव]]', '[[गुंजन -सुमित्रनन्दन पंत|गुंजन]]', '[[युगांत -सुमित्रनन्दन पंत|युगांत]]', '[[युगवाणी -सुमित्रनन्दन पंत|युगवाणी]]', '[[ग्राम्या -सुमित्रनन्दन पंत|ग्राम्या]]', 'स्वर्ण-किरण', 'स्वर्ण-धूलि', 'युगान्तर', '[[उत्तरा -सुमित्रनन्दन पंत|उत्तरा]]', 'रजत-शिखर', 'शिल्पी', 'प्रतिमा', 'सौवर्ण', 'वाणी', '[[चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदंबरा]]', 'रश्मिबंध', '[[कला और बूढ़ा चाँद -सुमित्रानन्दन पंत|कला और बूढ़ा चाँद]]', 'अभिषेकित', 'हरीश सुरी सुनहरी टेर', '[[लोकायतन -सुमित्रनन्दन पंत|लोकायतन]]', 'किरण वीणा'
*'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्ध तिविशेष के व्यापक अर्थ में है। सन [[1885]] में [[फ़्राँस]] मंी रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ, जो प्रतीकवाद कहलाया। वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुतों के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों को लेकर चलते थे। इसी से उनकी शैली की ओर लक्ष्य करके 'प्रतीकवाद' शब्द का व्यवहार होने लगा। आध्यात्मिक या ईश्वर प्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिए भी प्रतीक शैली की ओर वहाँ प्रवृत्ति रही। हिन्दी में 'छायावाद' शब्द का जो व्यापक अर्थ में, रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी, ग्रहण हुआ, वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ "प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन"। इस शैली के भीतर किसी वस्तु या विषय का वर्णन किया जा सकता है।<ref name="bb">{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/Alochana/shukl%20granthavali5/itihas%20shukl14a.htm|title=छायावाद|accessmonthday=01 अक्टूबर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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;सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (1898-1961 ई.) के काव्य-संग्रह-
==मुख्य कवि==
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'अनामिका', '[[परिमल -सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'|परिमल]]', '[[गीतिका -सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'|गीतिका]]', '[[तुलसीदास -निराला|तुलसीदास]]', 'आराधना', 'कुकुरमुत्ता', 'अणिमा', 'नए पत्ते', 'बेला', 'अर्चना'।
'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली [[महादेवी वर्मा]] ही हैं। [[जयशंकर प्रसाद]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']], [[सुमित्रानंदन पंत]] और [[महादेवी वर्मा]] इस युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं। [[रामकुमार वर्मा]], [[माखनलाल चतुर्वेदी]], [[हरिवंशराय बच्चन]] और [[रामधारी सिंह दिनकर]] को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए। छायावादी युग के प्रमुख कवि थे-
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;महादेवी वर्मा (1907-1988 ई.) की काव्य रचनाएँ-
#[[रायकृष्ण दास]]
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'[[रश्मि -महादेवी वर्मा|रश्मि]]', 'निहार', '[[नीरजा -महादेवी वर्मा|नीरजा]]', '[[सांध्यगीत -महादेवी वर्मा|सांध्यगीत]]', '[[दीपशिखा -महादेवी वर्मा|दीपशिखा]]', '[[यामा -महादेवी वर्मा|यामा]]'।
#[[वियोगी हरि]]
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;डॉ. रामकुमार वर्मा की काव्य रचनाएँ-
#[[रघुवीर सहाय|डॉ. रघुवीर सहाय]]
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'अंजलि', 'रूपराशि', 'चितौड़ की चिता', 'चंद्रकिरण', 'अभिशाप', 'निशीथ', 'चित्ररेखा', 'वीर हमीर', 'एकलव्य'
#[[माखनलाल चतुर्वेदी]]
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;हरिकृष्ण 'प्रेमी' की काव्य रचनाएँ-
#[[जयशंकर प्रसाद]]
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'आखों में', 'अनंत के पथ पर', 'रूपदर्शन', 'जादूगरनी', 'अग्निगान', 'स्वर्णविहान'
#[[महादेवी वर्मा]]
 
#नन्द दुलारे वाजपेयी
 
#[[शिवपूजन सहाय|डॉ. शिवपूजन सहाय]]
 
#[[सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला]]
 
#[[रामचन्द्र शुक्ल]]
 
#[[पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी]]
 
#[[बाबू गुलाबराय]]
 
 
 
"छायावाद के [[कवि]] वस्तुओं को असाधारण दृष्टि से देखते हैं। उनकी रचना की संपूर्ण विशेषताएँ उनकी इस ‘दृष्टि’ पर ही अवलंबित रहती हैं।...वह क्षण-भर में बिजली की तरह वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है।...अस्थिरता और क्षीणता के साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अंतरंगता होती है, जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं किंतु एक अन्य रूप में दीख पड़ती है। उसके इस अन्य रूप का संबंध कवि के अंतर्जगत से रहता है।...यह अंतरंग दृष्टि ही ‘छायावाद’ की विचित्र प्रकाशन रीति का मूल है।" इस प्रकार मुकुटधर पांडेय की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि "चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है," तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया। छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं- "उनकी [[कविता]] देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।"<ref name="aa"/> यहीं छायावादिता से आध्यात्मिकता तथा धर्म-भावुकता का मेल होता है, यथार्थ में उसके जीवन के ये दो मुख्य अवलंब हैं।
 
====मुकुटधर पांडेय का निबंध====
 
'छायावाद' में प्रकृति का उपयोग प्रायः प्रतीक की तरह होता है, इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए मुकुटधर जी कहते हैं कि "प्राकृतिक दृश्य और घटनाएँ सांकेतिक रूप में अदृश्य तथा अव्यक्त के प्रकाशन में साहाय्य पहुँचाती हैं।" 'छायावाद' के कलापक्ष पर विचार करते हुए मुकुटधर जी काव्य में चित्रकारी और [[संगीत]] का अपूर्व एकीकरण उसका आदर्श मानते हैं। लेखमाला के शेष दो निबंधों का एक ही शीर्षक है- 'हिन्दी में छायावाद'। इनमें छायावाद पर लगाए गए ‘अस्पष्टता’ आदि आरोपों का स्पष्टीकरण करते हुए अंत में मुकुटधर पांडेय ने लिखा है- "छायावाद की आवश्यकता हम इसीलिए समझते हैं कि उससे कवियों को भाव-प्रकाशन का एक नया मार्ग मिलेगा। इस प्रकार के अनेक मार्गों-अनेक रीतियों का होना ही उन्नत साहित्य का लक्षण है।" मुकुटधर पांडेय का [[निबंध]] 'छायावाद' पर पहला निबंध होने के साथ ही अत्यंत सूझ-बूझ भरी गंभीर समीक्षा भी है। इस निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व ही नहीं, बल्कि स्थायी महत्त्व भी है।
 
==प्रथम उल्लेख==
 
उस युग की प्रतिनिधि पत्रिका '[[सरस्वती (पत्रिका)|सरस्वती]]' में 'छायावाद' का सर्वप्रथम उल्लेख [[जून]] [[1921]] के अंक में मिलता है। किसी सुशील कुमार ने ‘हिन्दी में छायावाद’ शीर्षक से एक संवादात्मक निबंध लिखा है। संवाद में भाग लेने वाले कुल चार व्यक्ति हैं- ब्राह्म कन्या विद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त सुशीला देवी, उनके अरसिक किंतु लक्ष्मी के कृपापात्र पति हरिकिशोर बाबू, चित्रकार रामनरेश जोशी और कवि-सम्राट [[सुमित्रानन्दन पंत]]। पहले केवल प्रथम तीन व्यक्तियों में जोशी जी के एक ‘छाया-चित्र’ पर बातचीत होती है, जिसे उन्होंने पंत जी की एक [[कविता]] के आधार पर बनाया है। चित्र के नाम पर बढ़िया फ्रेम में मढ़ा कोरा [[काग़ज़]] है और उसके नीचे लिखा है ‘छाया’। हरिकिशोर बाबू के अनुसार वह निर्मल ब्रह्मा की विशद छाया है। स्वयं जोशी जी ने भी उसमें किसी प्रकार अनंत की अस्पष्टता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था। अंत में पंत जी आते हैं और वे भी कविता के नाम पर एक ‘कोरा काग़ज़' प्रस्तुत करते हैं, जिसका आधार जोशी जी का वही चित्र है। हरिकिशोर बाबू के शब्दों में "यह तो वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है।" कवि सम्राट अपने वक्तव्य में कहते हैं- "छायावाद का प्रधान गुण है अस्पष्टता। भाव इतने स्पष्ट हो जाएँ कि वे कल्पना के अनंत गर्भ में लीन हो जाएँ। मेरी यह सम्मति है कि शब्द अक्षरों से बनते हैं और अक्षर, अविनाशी है। वह तो अज्ञेय है, अनंत है। अतएव हमें [[भाषा]] को वह रूप देना चाहिए, जिससे वह नीरव हो जाए। वह कर्णश्रुत न होकर हृदयगम्य हो, इंद्रियगोचर न होकर [[आत्मा]] से ग्राह्य हो।"<ref name="aa"/>
 
==कविता==
 
आधुनिक हिन्दी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि छायावादी काल की कविता में मिलती है। लाक्षणिकता, चित्रमयता, नूतन प्रतीक विधान, व्यंग्यात्मकता, मधुरता तथा सरसता आदि गुणों के कारण छायावादी कविता ने धीरे-धीरे अपना एक प्रशंसक वर्ग खड़ा कर दिया। मुकुटधर पांडेय ने सर्वप्रथम 'छायावाद' शब्द का प्रयोग किया था। शब्द चयन और कोमलकांत पदावली के कारण 'इतिवृत्तात्मक'<ref>[[महाकाव्य]] और प्रबंध काव्य, जिनमें किसी कथा का वर्णन होता है।</ref> युग की खुरदरी [[खड़ी बोली]] सौंदर्य, प्रेम और वेदना के गहन भावों को वहन करने योग्य बनी। हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रमुखता मिली। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। 'द्विवेदी युग' में राष्ट्रीयता के प्रबल स्वर में प्रेम और सौन्दर्य की कोमल भावनाएँ दब-सी गयी थीं। इन सरस कोमल मनोवृतियों को व्यक्त करने के लिए कवि-हृदय विद्रोह कर उठा। [[हृदय]] की अनुभूतियों तथा दार्शनिक विचारों की मार्मिक अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप ही 'छायावाद' का जन्म हुआ। छायावाद काव्यधारा ने हिन्दी को शुष्क प्रचार से बचाया। हिन्दी की खड़ी बोली की कविता को सौन्दर्य और सरसता प्रदान की। छायावाद ने [[हिन्दी]] को [[जयशंकर प्रसाद]], [[सुमित्रानन्दन पन्त]] और [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']] जैसे महाकवि दिए। '[[पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत|पल्लव]]', '[[कामायनी -प्रसाद|कामायनी]]' और 'राम की शक्तिपूजा' छायावाद की महान उपलब्धि हैं।<ref>{{cite web |url=http://saahityaalochan.blogspot.in/2010/04/blog-post.html|title=छायावाद- राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक और भावनात्मक दौर|accessmonthday=01 अक्टूबर|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
 
 
उस समय के लोग 'छायावाद' की कविता को टैगोर-स्कूल के छायाचित्रों के साथ रखकर देखते थे। इस तरह उन कविताओं के लिए [[हिन्दी]] में 'छायावाद' और [[अंग्रेज़ी]] में ‘मिस्टिसिज्म’ शब्द चल पड़े और इन दोनों में भी हिन्दी छायावाद अधिक प्रचलित हुआ। परंतु जैसा कि सुकवि [[आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी]] के [[मई]], [[1927]] ई. की 'सरस्वती' में प्रकाशित 'आजकल के हिन्दी कवि और कविता' शीर्षक [[निबंध]] से पता चलता है, छायावाद और ‘मिस्टिसिज्म’ पर्याय नहीं समझे जाते थे। आचार्य की समझ में नहीं आता था कि इन कविताओं को ‘मिस्टसिज्म’ क्यों कहा जाता है, क्योंकि पं. मथुरा प्रसाद दीक्षित के 'त्रैभाषिक कोष' के अनुसार 'मिस्टिक' का अर्थ होता है 'गूढ़ार्थ गुह्य', 'गुप्त गोप्य', 'रहस्य' आदि। इधर इन कविताओं में आचार्य द्विवेदी को आध्यात्मिक रहस्य दिखाई ही नहीं पड़ता था। रवींद्रनाथ की कविताओं में तो वे 'आध्यात्मिक रहस्य' मान लेते थे; परंतु हिन्दी कवियों के प्रति वे शंकालु थे। इसलिए उनके अनुसार पंत, पांडेय आदि की कविताएँ छायावादी ही थीं। छायावाद का अर्थ ठीक-ठीक न समझते हुए भी वे उन कविताओं को छायावादी मानते थे। कहते हैं- "छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र-जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए।" उनके विचार से ‘अन्योक्ति-पद्धति’ ही छायावाद है। इस तरह आचार्य उन कविताओं और छायावाद संज्ञा में संबंध स्थापित करके दोनों में निहित अर्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। ध्यान देने की बात है कि आचार्य द्विवेदी ने 'रहस्य' शब्द को तो ऊपर किया, परंतु रहस्यवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया।
 
==रहस्यवाद शब्द का प्रचलन==
 
लगभग दो साल बाद [[1929]] ई. में [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] का 'काव्य में रहस्यवाद' निबंध पुस्तकाकार निकला, जिससे पता चलता है कि ‘रहस्यवाद’ शब्द का प्रचलन पहले से हो चुका था। [[सुमित्रानन्दन पंत]] का '[[पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत|पल्लव]]' तब तक निकल गया था। शुक्ल जी के निबंध से पता चलता है कि उनका ध्यान मुख्यतः पंत जी की उन कविताओं पर केंद्रित था, जिनमें रहस्य के प्रति प्रायः जिज्ञासा और कहीं-कहीं लालसा व्यक्त की गई थी। उनके अनुसार अज्ञात के प्रति जिज्ञासा ही सच्ची रहस्य-भावना है। परंतु उन्होंने देखा कि छायावादी कवि उस जिज्ञासा को आध्यात्मिकता का रूप दे रहे हैं; इसलिए रहस्यवादी रहस्य-भावना को उन्होंने सांप्रदायिक अथवा आध्यत्मिक रहस्यवाद समझ लिया। उन्हें छायावाद की इस आध्यात्मिकता का मूल स्रोत [[रवींद्रनाथ टैगोर|रवींद्रनाथ]] में दिखाई पड़ा और चूँकि रवींद्रनाथ ब्राह्म थे और ब्राह्मों का मत [[ईसाई धर्म]] से ज्यादा मिलता था, इसलिए शुक्ल जी ने इन सब में एक तरह का बादरायण संबंध स्थापित कर लिया। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ईसाई धर्म की ही आध्यात्मिकता बाह्म माध्यम से हिन्दी कविता में व्यक्त हो रही है। जब मूल भाव की एकसूत्रता स्थापित हो गई तो उन्होंने छायावाद नाम के साथ भी उसका मेल मिला दिया। बुद्धि हो तो आदमी क्या नहीं कर सकता! उन्हें ईसाई मत में छाया अर्थ देने वाला एक 'फैंटसमैटा' शब्द भी मिल गया। बस फिर क्या था, उन्होंने छायावाद शब्द को उससे जोड़ दिया और साबित कर दिया कि 'छायावाद' नाम और भाव-धारा दोनों दृष्टियों से [[यूरोप]] का प्रभाव है। जिस तरह उन्होंने यूरोपीय और [[हिन्दी]] आध्यात्मिकता के बीच में बंगला को माध्यम माना; उसी तरह उन्होंने हिन्दी छायावाद और ईसाई ‘फैंटसमैटा’ के बीच की बंगला कड़ी की भी कल्पना कर डाली और कह चले कि [[बंगला भाषा|बंगला]] में भी इन कविताओं को छायावाद कहते थे।
 
====बंगला में छायावाद====
 
बंगला में छायावाद नामक कोई वाद या शब्द है या नहीं, इसकी छानबीन करना उनका प्रयोजन न था। उन्हें तो अपनी बात रखनी थी, रख दी। भले ही वह ग़लत हो या ठीक। यह प्रवाद कि [[बंगला भाषा|बंगला]] में भी 'छायावाद' नामक एक वाद है, बहुत दिनों बाद [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]] द्वारा निर्मूल हुआ। तात्पर्य यह कि [[रामचन्द्र शुक्ल]] ने 'छायावाद' की केवल आध्यात्मिक कविताओं को अपने दृष्टि-पथ में रखा और इसीलिए रहस्यवाद को छायावादी कविताओं की विषयवस्तु कहा। उनका यह विचार अंत तक बना रहा। शेष को यह शैली-मात्र मानते थे। जिस तरह [[आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी]] 'छायावाद' को ‘अन्योक्ति-पद्धति’ समझते थे, उसी तरह आचार्य शुक्ल भी उसे शैली मानते थे, जिसमें ‘अन्योक्ति’ के अतिरिक्त भी कई प्रकार की शैलियों का समावेश था। आगे चलकर आलोचकों ने शुक्ल जी द्वारा प्रवर्तित इस 'द्वैतवाद' को समाप्त करते हुए स्थापित किया कि भाव के क्षेत्र में जो रहस्यवाद है, वही शैली में लाक्षणिक वक्रता, अन्योक्ति-विधान, अप्रस्तुत योजना आदि रूपों में व्यक्त होता है। इस तरह इन्होंने रहस्यवादी विषय और लाक्षणिक शैली दोनों को एक कर दिया। इस समन्वित रूप को [[जयशंकर प्रसाद]] ने 'रहस्यवाद' नाम दिया और नंददुलारे वाजपेयी ने 'छायावाद'।<ref name="aa"/>
 
==नंददुलारे वाजपेयी की परिभाषा==
 
वाजपेयी जी का भी 'छायावाद' आध्यात्मिक ही है। हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी नामक पुस्तक के 'महादेवी वर्मा' शीर्षक [[निबंध]] में 'छायावाद' की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं कि- "मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।" वाजपेयी जी की आध्यात्मिक छाया शुक्ल जी का ‘फैंटसमैटा’ अथवा छायाभास ही है, केवल इस अंतर के साथ कि उसमें धार्मिक स्थूलता नहीं है। अपने को इस परिभाषा में बाँधकर वाजपेयी जी ने [[जयशंकर प्रसाद]], [[सुमित्रानन्दन पंत]], [[सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला']], [[महादेवी वर्मा]] की बहुत-सी कविताओं को छोड़ दिया। उन्होंने अपनी परिभाषा का निर्माण छायावादी कवियों की केवल एक तरह की कविताओं के आधार पर किया। वाजपेयी जी की इस परिभाषा के पीछे शांतिप्रिय द्विवेदी, महादेवी वर्मा, नगेंद्र आदि की यह प्रचलित धारणा भी है कि छायावाद स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह है। छायावाद में निःसंदेह सूक्ष्मता काफी है, लेकिन इस सूक्ष्मता की सीमा के कारण हम निराला और प्रसाद की उन कविताओं से वंचित रह जाते हैं, जिनमें अतीव मांसलता है। इसलिए इस परिभाषा में स्पष्ट ही अव्याप्ति दोष है। जो हो, इन तमाम बातों से मालूम होता है कि शुरू-शुरू में जिस अस्पष्टता के लिए 'छायावाद' शब्द चलाया गया, वही थोड़ा नाम बदलकर मुकुटधर पांडेय और आचार्य शुक्ल से होती हुई नंददुलारे वाजपेयी और नगेंद्र तक आई और अब भी अनेक विद्यार्थियों का संस्कार बन गई है। सुशील कुमार की अस्पष्टता, मुकुटधर की आध्यात्मिकता, आचार्य द्विवेदी का रहस्य, शुक्ल जी का आध्यात्मिक छायाभास, वाजपेयी जी का ‘आध्यात्मिक छाया का भान’ और नगेंद्र का ‘स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ सब एक-से ही चिंतन क्रम में हैं।
 
====शुक्लजी का स्वच्छंदतावाद====
 
छायावादी कविताओं की आलोचना-प्रत्यालोचना के सिलसिले में जिस समय [[अंग्रेज़ी]] का ‘मिस्टिसिज्म’ शब्द आया, उसके कुछ ही दिन बाद ‘रोमैटिसिज्म’ शब्द आ गया। [[रामचन्द्र शुक्ल]] ने इसका [[हिन्दी]] अनुवाद स्वच्छंदतावाद किया और श्रीधर पाठक, [[रामनरेश त्रिपाठी]] आदि को स्वच्छंदतावादी कवि कहा। इस तरह शुक्ल जी ने ‘स्वच्छंदतावाद’ और ‘छायावाद’ में अंतर किया। वे छायावाद को ‘रोमैंटिसिज्म’ कहने के पक्ष में नहीं थे। आश्चर्य की बात है कि प्रसाद, पंत, निराला की शैली इत्यादि से प्रभावित मानते हुए भी शुक्ल जी उन्हें रोमैंटिक मानने से इनकार करते थे। परंतु यहाँ भी शुक्ल जी का द्वैतवाद न चल सका। कवि, आलोचक और सामान्य पाठक 'छायावाद' को रोमैंटिसिज्म का पर्याय समझने लगे। कुछ लोग शुक्ल जी द्वारा गढ़े हुए 'स्वच्छंदतावाद' को भी 'छायावाद' का पर्याय अथवा अंग मानने लगे तथा अन्य लोग 'छायावाद' को 'स्वच्छंदतावाद' का द्वितीय उत्थान कहना अधिक युक्ति संगत मानने लगे थे।
 
====अन्योक्तिपद्धति का अवलंबन====
 
चित्रभाषा शैली या प्रतीक पद्धति के अंतर्गत जिस प्रकार वाचक पदों के स्थान पर लक्षक पदों का व्यवहार आता है, उसी प्रकार प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाले अप्रस्तुत चित्रों का विधान भी। अत: अन्योक्तिपद्धति का अवलंबन भी 'छायावाद' का एक विशेष लक्षण हुआ। जैसा कि कहा गया है कि 'छायावाद' का चलन 'द्विवेदी युग' की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। अत: इस प्रतिक्रिया का प्रदर्शन केवल लक्षण और अन्योक्ति के प्राचुर्य के रूप में ही नहीं, कहीं-कहीं उपमा और उत्प्रेक्षा की भरमार के रूप में भी हुआ। इनमें से उपादान और लक्षण लक्षणाओं को छोड़ और सब बातें किसी न किसी प्रकार की साम्य भावना के आधार पर ही खड़ी होने वाली हैं। साम्य को लेकर अनेक प्रकार की अलंकृत रचनाएँ बहुत पहले भी होती थीं तथा '[[रीतिकाल]]' के और उसके पीछे भी होती रही हैं। अत: 'छायावाद' की रचनाओं के भीतर साम्य ग्रहण की उस प्रणाली का निरूपण आवश्यक है, जिसके कारण उसे एक विशिष्ट रूप प्राप्त हुआ।<ref name="bb"/>
 
==रचनाएँ==
 
'छायावाद' की रचनाएँ गीतों के रूप में ही अधिकतर होती हैं। इससे उनमें अन्विति कम दिखाई पड़ती है। जहाँ यह अन्विति होती है, वहाँ समूची रचना अन्योक्ति पद्धति पर की जाती है। इस प्रकार साम्य भावना का ही प्राचुर्य हम सर्वत्र पाते हैं। यह साम्य भावना हमारे [[हृदय]] का प्रसार करने वाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधाने वाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं, पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव वहीं उत्पन्न करती है, जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर खड़ी होती है। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ वा अगूढ़ व्यंजना करती रहती है। इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्य विधान होगा, वह मनमाना आरोप मात्र होगा। इस अनंत विश्व महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्य विधान होता है, वह मार्मिक और उद्बोधाक होता है, जैसे- 
 
<blockquote><poem>दुखदावा से नवअंकुर पाता जग जीवन का वन
 
करुणार्द्र विश्व का गर्जन बरसाता नवजीवन कण।
 
खुल खुल नव इच्छाएं फैलाती जीवन के दल। 
 
यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर में है आ जाता। 
 
यह ऊषा का नवविकास है, जो रज को है रजत बनाता। 
 
यह लघु लहरों का विलास है, कलानाथ जिसमें खिंच आता।
 
 
 
हँस पड़े कुसुमों में छविमान, जहाँ जग में पदचिद्द पुनीत।
 
वहीं सुख में ऑंसू बन प्राण, ओस में लुढ़क दमकते गीत। (गुंजन)
 
 
 
मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव में।
 
जाकर सूनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना।
 
अखिल की लघुता आई बन, समय का सुंदर वातायन।
 
देखने को अदृष्टर् नत्तान। (लहर)
 
 
 
जल उठा स्नेह दीपक सा, नवनीत हृदय था मेरा।
 
अब शेष धूमरेखा से, चित्रित कर रहा अंधेरा। (ऑंसू)</poem></blockquote>
 
 
 
मनमाने आरोप, जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, [[हृदय]] के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्रय का कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। 'छायावाद' की [[कविता]] पर कल्पनावाद, कलावाद, अभिव्यंजनावाद आदि का भी प्रभाव ज्ञात या अज्ञात के रूप में पड़ता रहा है। इससे बहुत सा अप्रस्तुत विधान मनमाने आरोप के रूप में भी सामने आता है।<ref name="bb"/> प्रकृति के वस्तु व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत चलन हो जाने से कहीं-कहीं ये आरोप वस्तु व्यापारों की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर जा पड़े हैं, जैसे- चाँदनी के इस वर्णन में- 
 
<poem>1. जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवनबाला।
 
पीली पड़, निर्बल, कोमल, कृश देहलता कुम्हलाई।
 
विवसना, लाज में, लिपटी, साँसों में शून्य समाई।</poem>
 
*चाँदनी अपने आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पड़ती है , 
 
<poem>2. नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद हासिनि।
 
मृदु करतल पर शशिमुख धार नीरव अनिमिष एकाकिनि।</poem>
 
*इसी प्रकार ऑंसुओं को 'नयनों के बाल' कहना भी व्यर्थ सा है। नीचे की जूठी प्याली भी<ref>जो बहुत आया करती है।</ref> किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़तीहै , 
 
<poem>3. लहरों में प्यास भरी है, है भँवर पात्र से खाली।
 
मानव का सब रस पीकर, लुढ़का दी तुमने प्याली।</poem>
 
====प्रेमगीतात्मक प्रवृत्ति====
 
'छायावाद' की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक होने के कारण हमारा वर्तमान काव्य प्रसंगों की अनेकरूपता के साथ नई-नई अर्थ भूमियों पर कुछ दिनों तक बहुत कम चल पाया। कुछ कवियों में वस्तु का आधार अत्यंत अल्प रहता है। विशेष लक्ष्य अभिव्यंजना के अनूठे विस्तार पर रहा है। इससे उनकी रचनाओं का बहुत सा भाग अधार में ठहराया सा जान पड़ता है। जिन वस्तुओं के आधार पर उक्तियाँ मन में खड़ी की जाती हैं, उनका कुछ भाग कला के अनूठेपन के लिए पंक्तियों के इधर उधर से हटा भी लिया जाता है। अत: कहीं-कहीं व्यवहृत शब्दों की व्यंजकता पर्याप्त न होने पर भाव अस्फुट रह जाता है, पाठक को अपनी ओर से बहुत कुछ आक्षेप करना पड़ता है, जैसे नीचे की पंक्तियों में- 
 
<blockquote><poem>निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप आओगे। 
 
इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे। 
 
आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप चाँप कर उन्हें नहीं। 
 
दुख दो इतना, अरे! अरुणिमा उषा सी वह उधर बही। </poem></blockquote>
 
 
 
यहाँ [[कवि]] ने उस प्रियतम के छिपकर दबे पाँव आने की बात कही है, जिनके चरण इतने सुकुमार हैं कि जब आहट न सुनाई पड़ने के लिए वह उन्हें बहुत दबा दबाकर रखते हैं, तब एड़ियों में ऊपर की ओर खून की लाली दौड़ जाती है। वही ललाई उषा की लाली के रूप में झलकती है। '[[जयशंकर प्रसाद|प्रसादजी]]' का ध्यान शरीर विकारों पर विशेष जमता था। इसी से उन्होंने 'चाँप चाँपकर दुख दो', से ललाई दौड़ने की कल्पना पाठकों के ऊपर छोड़ दी है। '[[कामायनी -प्रसाद|कामायनी]]' में उन्होंने मले हुए कान में भी कामिनी के कपोलों पर की 'लज्जा की लाली' दिखाई है।
 
==साम्य==
 
हमारे यहाँ साम्य मुख्यत: तीन प्रकार का माना गया है-
 
#सादृश्य - रूप या आकार का साम्य
 
#साधार्म्य - गुण या क्रिया का साम्य
 
#शब्दसाम्य - दोभिन्न वस्तुओं का एक ही नाम होना।
 
 
 
इसमें से अंतिम तो श्लेष की शब्द क्रीड़ा दिखाने वालों के ही काम का है। रहे सादृश्य और साधार्म्य। विचार करने पर इन दोनों में प्रभाव साम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है, जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचंडता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बँधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इसी के हैं। केवल रूप रंग, आकार या व्यापार को ऊपर से देखकर या नाप जोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कवि कर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्य या अभ्यासगम्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी, तब बहुत से उपमान केवल बाहरी नाप जोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिए सिंहनी और भिड़ सामने लाई जाने लगी।<ref name="bb"/>
 
====काव्य शैली की विशेषता====
 
'छायावाद' बड़ी सहृदयता के साथ प्रभाव साम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला है। कहीं-कहीं तो बाहरी सादृश्य या साधार्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभाव साम्य लेकर अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत होते हैं, जैसे- सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवन काल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल, प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अंधेरी रात, संधया की छाया, पतझड़, मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान, भावतरंग के लिए झंकार, भावप्र्रवाह के लिए [[संगीत]] या [[मुरली]] का स्वर इत्यादि। आभ्यंतर प्रभाव साम्य के आधार पर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास 'छायावाद' की काव्य शैली की असली विशेषता है।
 
 
 
  
 
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08:23, 4 अक्टूबर 2013 का अवतरण

छायावादी युग (1920-1936) प्राय: 'द्विवेदी युग' के बाद के समय को कहा जाता है। बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध छायावादी कवियों का उत्थान काल था। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और सुमित्रानंदन पंत जैसे छायावादी प्रकृति उपासक-सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है। 'द्विवेदी युग' की प्रतिक्रिया का परिणाम ही 'छायावादी युग' है। इस युग में हिन्दी साहित्य में गद्य गीतों, भाव तरलता, रहस्यात्मक और मर्मस्पर्शी कल्पना, राष्ट्रीयता और स्वतंत्र चिन्तन आदि का समावेश होता चला गया। इस समय की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं।

मुख्य कवि और उनकी रचनाएँ

'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ कहे जाते हैं। रामकुमार वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी। अन्य कवियों में हरिकृष्ण 'प्रेमी', जानकी वल्लभ शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा, उदयशंकर भट्ट, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम भी उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाएँ निम्नानुसार हैं-

जयशंकर प्रसाद (1889-1936 ई.) के काव्य संग्रह-

'चित्राधार' (ब्रज भाषा में रचित कविताएँ), 'कानन-कुसुम', 'महाराणा का महत्त्व', 'करुणालय', 'झरना', 'आंसू', 'लहर' और 'कामायनी'।

सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य संग्रह-

'वीणा', 'ग्रंथि', 'पल्लव', 'गुंजन', 'युगांत', 'युगवाणी', 'ग्राम्या', 'स्वर्ण-किरण', 'स्वर्ण-धूलि', 'युगान्तर', 'उत्तरा', 'रजत-शिखर', 'शिल्पी', 'प्रतिमा', 'सौवर्ण', 'वाणी', 'चिदंबरा', 'रश्मिबंध', 'कला और बूढ़ा चाँद', 'अभिषेकित', 'हरीश सुरी सुनहरी टेर', 'लोकायतन', 'किरण वीणा'।

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (1898-1961 ई.) के काव्य-संग्रह-

'अनामिका', 'परिमल', 'गीतिका', 'तुलसीदास', 'आराधना', 'कुकुरमुत्ता', 'अणिमा', 'नए पत्ते', 'बेला', 'अर्चना'।

महादेवी वर्मा (1907-1988 ई.) की काव्य रचनाएँ-

'रश्मि', 'निहार', 'नीरजा', 'सांध्यगीत', 'दीपशिखा', 'यामा'।

डॉ. रामकुमार वर्मा की काव्य रचनाएँ-

'अंजलि', 'रूपराशि', 'चितौड़ की चिता', 'चंद्रकिरण', 'अभिशाप', 'निशीथ', 'चित्ररेखा', 'वीर हमीर', 'एकलव्य'।

हरिकृष्ण 'प्रेमी' की काव्य रचनाएँ-

'आखों में', 'अनंत के पथ पर', 'रूपदर्शन', 'जादूगरनी', 'अग्निगान', 'स्वर्णविहान'।


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